तफसीलों में तसलीमा


मोहनकृष्ण बोहरा की किताब तसलीमा- संघर्ष और साहित्य को तसलीमा के जीवन और लेखन का एक गजट या टीका कह सकते हैं। बोहरा ने इसमें तसलीमा की पुस्तकों की विषयवस्तु को पूरे विस्तार में समेटते हुए उसका जायजा लिया है। इस क्रम में आत्मकथा-पुस्तकों से तसलीमा का जीवन खुलता है, और उपन्यास, कविता, कहानी और अन्य विचारपरक पुस्तकों से उनकी साहित्यिक-वैचारिक अभिव्यक्तियाँ। इस तरह साढ़े छह सौ पृष्ठों की यह पुस्तक ढेर सारे विवरणों और आवश्यकतानुसार विश्लेषण के जरिए तसलीमा की शख्सियत का एक मुकम्मल खाका पेश करती है। लेखक ने इसमें एक विद्रोही, बेबाक और व्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता की कायल शख्सियत की चेतना के ब्योरों को उसी की रैशनल परिधि में देखने की कोशिश की है।
बोहरा तसलीमा की आत्मकथा के प्रसंगों को उद्धृत करते हुए कम उम्र से ही उनके अन्याय-विरोध की भावना को रेखांकित करते हैं। कम उम्र लड़की कुछ न कर पाने पर अन्यायी को सजा देने की फैंटेसी रचती हैजिसमें पत्नी को जलाने वाले पड़ोस के एक आदमी को वह खुद आग में झुलसाएगी। तसलीमा का प्रतिरोधी स्वभाव समाज के दस्तूरों से तालमेल नहीं बैठा पाता। वे माँपिताभाईबहन और खुद के अंतरतम के झूठों की चीरफाड़ करती हैंऔर बोहरा उनकी इस चीरफाड़ की चीरफाड़ करते हैं। ईद के दिन बड़ों के पैर छूकर सलाम करने की रवायत को नामंजूर करने वाली तसलीमा के बारे में वे कहते हैं—‘क्या यह बाहरी दुनिया में अपनी आत्महीनता के प्रतिकार में उभर रहा उसका अहं नहीं थाजो घर में बड़ों की अप्रतिष्ठा करके तोष पा रहा था?’
मोहनकृष्ण बोहरा नोट करते हैं कि माँ के प्रति तसलीमा की भावना में कई उतार-चढ़ाव रहे हैं। आखिर वो क्या अंतर्वस्तु थी जिसने जीवन भर सताई जाती रही माँ के प्रति तसलीमा को अपमानपूर्ण और कटु बना दिया था? वह कटुता जिसकी शुरुआत खुद के बलात्कारी को माँ के बिस्तर पर देख लेने से हुई थी। बोहरा के मुताबिक तसलीमा ने इस घटना को पिता के प्रति माँ के विश्वासघात के रूप में देखा था, और जिस देखने को बाद में उन्होंने बाहरी प्रभावों में बनी खुद की पुरुषतांत्रिक दृष्टि के रूप में करेक्ट किया। लेकिन एक ऐसे पति, जो पत्नी को उपेक्षित करके अन्यत्र संबंध रखे और अंत में उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा करता हो, के प्रति पत्नी की अन्यत्र हमबिस्तरी को तसलीमा जैसी तार्किक स्त्री द्वारा विश्वासघात मानना गले नहीं उतरता। कहीं यह बचपन में खुद के साथ हुए बलात्कार की मनोग्रंथि तो नहीं थी जो उसी व्यक्ति को माँ के साथ देख लेने पर माँ के प्रति अपमानों के रूप में अभिव्यक्त हो रही थी।  
दिलचस्प यह भी है जिस विश्वासघात को बाद के दिनों में खुद तसलीमा ने डिसओन कर दिया, उसे यहाँ पुस्तक लेखक ने सत्य करार देते हुए झट से अपना समर्थन दे दिया है। इससे ऐसा लगता है कि सामाजिक नैतिकता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मुद्दों पर दोनों जन में मतांतर की स्थिति है, जो अन्यत्र भी दिखाई देती है। मसलन कथा-पुस्तक दो औरतों के पत्र की नायिका के हवाले से तसलीमा द्वारा एक विवाहित स्त्री के अन्यत्र शारीरिक संबंध के समर्थन का मसला। नायिका के मुताबिक मैं शत प्रतिशत सच्ची और ईमानदार रहते हुए किसी और मर्द से अगर शारीरिक संबंध स्थापित करूँ तो इससे किसी का नुकसान नहीं होता; न मेरा, न हुमायूँ का।’ इसे बोहरा वस्तुनिष्ठ औचित्य से परे तसलीमा की आत्मनिष्ठ धारणा ठहराते हैं, क्योंकि इससे पति के उसमें विश्वास का नुकसान होगा (हालाँकि नायिका का पति यहाँ खुद भी बहुस्त्रीगामी है)। आगे चलकर वे नायिका की फ्रीडम ऑफ सेक्स की धारणा का विवेचन करते हुए भी इस तथ्य को अनदेखा करते हैं कि यह धारणा सेक्स को किसी संबंध का निर्धारक तत्त्व मानने से इनकार करती है। इसी तरह तसलीमा द्वारा परिवार संस्था को खारिज किए जाने के विचार से भी मोहनकृष्ण बोहरा निहायत दुनियादार ढंग से असहमत दिखाई देते हैं। अलबत्ता वे तसलीमा को भाषा पर अच्छा अधिकार रखने वाली ऐसी निपुण लेखिका कहते हैं जिनके पास अमूर्त का मूर्त रचने और शब्दों से खेलने का कौशल है। 

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