मुँहफट पिंदी की लेखिका


हिंदी के बड़े लेखकों में कृष्णा सोबती के यहाँ एक दुर्लभ विविधता है। मित्रो मरजानी से लेकर डार से बिछुड़ी, दिलो दानिश और हम हशमत तक। संपादक छबिल कुमार मेहेर ने अपनी पुस्तक कृष्णा सोबती एक मूल्यांकन में उनके लेखन की बुनावट को समझने के लिए 28 समीक्षकों के लेखों को सम्मिलित किया है। इस तरह यह पुस्तक अपने विषय पर अलग-अलग विचार दृष्टियों का एक अच्छा संयोजन बन गई है। कृष्णा सोबती के उपन्यासों में रिश्तों के बीहड़ हैं और ऐसे बीहड़ कई बार उनकी भाषा में भी दिखते हैं। (उनके उपन्यास जिंदगीनामा में पंजाबी शब्दों की विपुलता को लेकर अज्ञेय ने कहा था जब यह उपन्यास हिंदी में प्रकाशित हो जाएगा तब पढ़ लूँगा।’) इसका एक साक्ष्य पुस्तक में शामिल उनका आत्मकथ्य है, जिसके दुरूह, गूढ़ अथवा उलझे हुए गद्य की बानगी इस वाक्य में देखी जा सकती है- रचना में से उभरती सारवत्ता ही उसके गुणाभाग हैं जो उसे समतुल्यता और धारणीयता प्रदान करते हैं। यह एक विकट आलोचकीय भाषा है जिसमें कृष्णा सोबती रचना की निर्मिति के बहुविध पक्षों के गहरे में उतरती हैं। गहरे में उतरना उनके लेखन की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इस आत्मकथ्य में वे एक महत्त्वपूर्ण बात कहती हैं—अंतर्द्वंद्व और अंतर्विरोध को पहचानने के लिए स्थितियों के बुनियादी भूगोल और इतिहास जाँचने-मापने जरूरी होते हैं। यह वाक्य उनके साहित्य को समझने का एक क्लू भी हो सकता है। जहाँ से दिखाई देता है कि कैसे उनके पात्र बाहरी दुनिया की टहल करते हुए साथ-साथ अपनी भीतरी दुनियाओं में भी टहल किया करते होंगे, और यह कि उनके यहाँ कहानी के पूरे माहौल में एक सघनता किस मार्फत पैबस्त होती है। संपादक छबील कुमार मेहेर इस सिलसिले में शायद ठीक ही कहते हैं कि कृष्णा सोबती शब्दों की मांसलता से नहीं खेलतीं, शब्दों की आत्मा से साक्षात्कार कराती चलती हैं। मृदुला गर्ग अपने लेख में याद करती हैं कि कभी जैनेन्द्र कुमार ने कहा था कि कृष्णा सोबती के साहित्य में सेक्स का जश्न है। लेकिन मैंने पढ़कर देखा तो महसूस किया कि जश्न सेक्स का नहीं, भाषा का है।...कथ्य की गहराई में पीड़ा का बोध कुंडली मारे बैठा रहता है। अगर वाकई जश्न सेक्स का होता तो मित्रो आशिक के पास जाते-जाते पति के घर द्वार लौट न आती। लेकिन वहीं देखने का एक नजरिया यह भी है कि मार्कंडेय को मित्रो की पात्रता ही संदिग्ध मालूम देती है, क्योंकि उसमें समसामयिक स्त्री के शील का औसत प्रतिभास नहीं है। जबकि गोपाल राय ने इसे किसी महिला कथाकार द्वारा स्त्री के स्वैराचार का इतने साफ और और मुँहफट रूप में पहला चित्रण कहा है। स्पष्ट है कि कृष्णा सोबती के पात्र लेखक की किस्सागोई के नुमाइंदे मात्र नहीं हैं, बल्कि उनके भीतर दुविधाओं की एक पूरी दुनिया रहा करती है, जिसने इस पुस्तक के लेखकों को भी दुविधा में डाला है।
कृष्णा सोबती के यहाँ साहित्य, समाज और राजनीति के बारे में एक गहरी अंतर्दृष्टि होने का जिक्र कांतिकुमार जैन ने हम हशमत के हवाले से किया है। साथ ही बेहद संवेदना, गजब की अवलोकन शक्ति और भाषा पर असाधारण अधिकार का भी। इस तरह वे अन्य मूल्यांकनों के अलावा अपने साहित्यकार दोस्तों की हँसी के फर्कों के बारे में भी बता पाती हैं-- खोखली हँसी से लेकर पुरजोर ठहाकों तक के फर्क। जैन उनकी हिंदी को पिंदी, यानी कुछ ज्यादा ही किक देने वाला हिंदी और पंजाबी का कॉकटेल कहते हैं। वहीं उपन्यास जिंदगीनामा के संदर्भ से निर्मला जैन ने उनकी भाषा को जबाने ख़लक (ख़ल्क) कहा है, जो जबाने अदब के हिमायतियों के लिए मुश्किल खड़ी करती है। और अर्चना वर्मा लंबी कहानी ऐ लड़की की मार्फत याद करती हैं कि स्वदेश दीपक ने कभी कृष्णा सोबती को भाषा की सुल्तान कहा था। उनके मुताबिक इस कहानी में वृद्धावस्था तथा मरण के धीरे-धीरे आगमन को भी बहुत खूबसूरती से दर्शाया गया है। जबकि ध्रुव शुक्ल ने इस मातृवंशी रचना को जीने के पुरस्कारों का पवित्र स्मरण बताया है। इससे पता चलता है कि एक ही रचना को लोगबाग अपने अनुभवों में कितनी अलग-अलग तरह से देखते हैं। कुल मिलाकर कृष्णा सोबती की रचनाओं पर एक परिशिष्ट सहित यह पुस्तक उन्हें समझने के लिहाज से ठीकठाक उपयोगी कही जा सकती है।

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