आत्मजीत के नाटक
जाने-माने रंगकर्मी और नाटककार आत्मजीत ने
अपने नाटकों में अक्सर कई दुर्लभ विषयों को उठाया है। उनका नाटक ‘लाल मसीहा’ केन्या की आजादी के एक गुमनाम
नायक मक्खन सिंह के जीवन पर आधारित है। मक्खन सिंह अहिंसावादी थे, फिर ट्रेड
यूनियन नेता बने और फिर अंग्रेजों की आँख की किरकिरी। उन्होंने ट्रेड यूनियनों के
नस्लीय स्वरूप को खत्म कर राष्ट्रीय स्वरूप देने की कोशिश की, केन्या को अपना देश
माना, ‘पर बाहर से आए
किसी भी शख्स को कहीं पर भी आसानी से इंसाफ नहीं मिलता’ इसलिए मक्खन सिंह को भी
नहीं मिला। एक अचीन्हे विषय की समग्रता में मक्खन सिंह की पत्नी सतवंत कौर का
किरदार और कुछ भावुक लम्हे भी कथानक में नत्थी हैं, जिससे पंजाबियत का अपना एक खास
रूमान निर्मित होता है। एक अन्य नाटक ‘तुम कब लौट के आओगे’ की कहानी तो और भी दूर की है। इसमें पहले विश्वयुद्ध में जर्मनी के खिलाफ
मोर्चे पर तैनात भारतीय उपमहाद्वीप के सैनिक दिखाए गए हैं, जिनके साथ दो ऐतिहासिक
किरदार- अंग्रेज कवि सैसून और नृत्यांगना व जासूस माताहारी भी है। नाटक किरदारों
की त्रासदियों की मार्फत युद्ध के सच को दिखाता है। बहुत सारे किरदार, विवरणबहुल
कथानक और छोटे दृश्य प्रत्यक्षतः एक सांकेतिक मंच की ही संभावना बताते हैं, पर
नाटक की एक हो चुकी प्रस्तुति की पुस्तक में शामिल तस्वीरें ऐसा नहीं बतातीं। नाटक
की भाषा में अच्छी रवानगी है और स्पष्टतः चरित्रांकन का अच्छा स्कोप भी। वस्तुतः
यह सघनता से बुना गया एक काफी संवेदनशील पाठ है।
नाटक ‘पंच नद का पानी’ में अलाउद्दीन खिलजी के दौर का इतिहास है। आत्मजीत
स्थिति की भीषणता को कम किए बगैर उसे कुरेदते हैं और भीतर से एक घुटती हुई सच्चाई
निकलकर बाहर आती है। पंजाब का सूबेदार
गाजी मलिक अपने भाई की शादी राणा साँवल की बेटी से करना चाहता है, जो कि राजपुताना अहं के लिए बड़े
धिक्कार की बात है। राणा साँवल की बेटी नीला एक बुद्धिमान लड़की है जिसमें
आत्मसम्मान की पहचान है पर हकीकत के मद्देनजर वह इस स्थिति को कबूल करती है। नाटक
में एक दलित पात्र बिरजू भी है। आत्मजीत उसकी मार्फत हिंदू जातीय बोध और
ब्राह्मणवादी कर्मकांड के नाकारापन को एक दूसरे के बरक्स खड़ा करते हैं। राणा और
उनके राजकीय पंडित जी बिरजू को उसकी जातिगत हैसियत से ऊपर कुछ भी देना कबूल नहीं
करते। ऐसे में अपने ही समाज में बार-बार ठुकराया गया बिरजू कुरबान अली बनना मंजूर
करता है। नाटक बहुत सारे आवेगों और आवेशों से बना एक ऐसा ताना-बाना है, जिसमें
कौमियतों के द्वंद्व को समझने की चेष्टा की गई है। और आत्मजीत के इन नाटकों की यही
विशेषता है कि इनमें बेबसी और अहंकार एक समग्र स्थिति के दो छोर हैं। दूसरी यह कि
उनमें स्थिति की असल चुभन साफ-साफ महसूस की जा सकती है। हालात के सभी पक्ष उनके
यहाँ अपने-अपने बयान के साथ मौजूद हैं।
नाटक ‘मैं तो एक सारंगी हूँ’ में तीन स्त्री पात्रों के माध्यम से जिंदगी की कहानी कही गई है। एक
किरदार नए जमाने की उन्मुक्त है, दूसरी पारंपरिक और तीसरी
दुनियादार। उनकी आजादखयाल पात्र को ‘मर्द भी चाहिए और मर्द
से आजादी भी'। नाटक में पुरुष से आजादी के एक विकल्प
समलैंगिकता के संदर्भ को भी छुआ गया है, और स्त्री-पुरुष
संबंध के दरम्यान मौजूद नैतिकता के पुरुषवादी प्रश्न को भी। आखिर में उसमें एक
बुनियादी बात कही गई है- ‘सबसे भयानक होता है कब्जा जो इंसान
इंसान पर करता है’। इस अर्थ में यह नारीवादी मुबाहसा
इंसानियत के बुनियादी नुक्स को समझने के एक पाठ में तब्दील होता है।
नाटक ‘कैमलूप्स की मछलियाँ’ में अपने जन्मस्थान से दूर पश्चिमी देशों में रह रहे भारतीयों के
भावनात्मक द्वंद्व को दिखाया गया है। लेकिन इससे पहले इसमें दो सभ्यताओं की
जीवनशैली का एक सांस्कृतिक द्वंद्व भी है। इस बेगानी जगह पर ‘कम से कम धर्म के नाम पर दंगे तो नहीं होते’। यानी
मुद्दे के सारे ओर-छोर यहाँ भी उतने ही दुरुस्तगी से मौजूद हैं। लेकिन इससे थोड़ा
भिन्न सांस्कृतिक द्वंद्व नाटक ‘रिश्तों का क्या रखें नाम’ में मंटो की कहानी ‘टोबा टेकसिंह’ की मार्फत दिखाई देता है, जहाँ बँटवारे के बाद के हालात में बहुत सी
बातें सामने आती हैं। कह सकते हैं कि नाटक विभाजन के बाद के हालात का एक
सांस्कृतिक सार है।
आत्मजीत एक ओर आंतरिक
यथार्थ की सीवन उधेड़ते हैं, वहीं परंपरा के अवयवों से खेलते भी नजर आते हैं। कोरस
और सूत्रधार उनके प्रायः हर नाटक का हिस्सा हैं। जाहिर है इन्हें खेलने वाले
निर्देशकों को यह ध्यान रखना पड़ेगा कि परंपरा का व्यामोह कहीं विषय की संजीदगी की
ही वाट न लगा दे।
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