गाँधी बनाम अंबेडकर की चर्चा
एक लंबी टिप्पणी की शक्ल में लिखी गई पुस्तक 'एक था डॉक्टर एक था संत' में विषयवस्तु थोड़ा बेतरतीब ढंग से प्रस्तुत है। बात अंबेडकर-गाँधी से शुरू होकर कभी मलाला युसूफजई और सुरेखा भोतमाँगे के संघर्षों की ओर मुड़ती है तो कभी पंडिता रमाबाई के प्रसंग तक और फिर प्राचीन हिंदू संस्कृति को आदिम कम्युनिज्म बताने वाले डाँगे तक जा पहुँचती है। इसी तरह गाँधी के अफ्रीका में किए कामों के बहु उल्लिखित ब्योरे भी शामिल हैं। इस प्रकार बहुत सी दलित, स्त्री, अफ्रीकी संघर्षों की कहानियों को मिलाकर यह वंचित जीवन के संघर्षों और उसके साथ होने वाले जुल्मों का एक बहुविध पाठ बन जाता है, जो असल मुद्दे अंबेडकर बनाम गाँधी की दलित दृष्टि के साथ थोड़े अटपटे ढंग से नत्थी है। अरुंधति राय की यह टिप्पणी असल में भीमराव अंबेडकर की प्रसिद्ध पुस्तक ‘जाति का विनाश’ के एक खास संस्करण की प्रस्तावना के रूप में लिखी गई थी। अब यह हिंदी में अनूदित करवाकर स्वतंत्र रूप से प्रकाशित की गई है। जाति के मुद्दे पर गाँधी-अंबेडकर का प्रसिद्ध संवाद (या विवाद) पूना पैक्ट की चर्चा के दौरान हुआ था। उन्होंने इस विषय पर कभी कोई सैद्धांतिक शास्त्रार्थ किया हो ऐसा तो सामने नहीं आता पर अलग-अलग मौकों पर जो कहा या लिखा है उसी की तफ्तीश से अरुंधति राय ने यह तुलना पेश की है। ढूँढ़-ढूँढ कर ऐसे उद्धरण जुटाए हैं जो गाँधी को न सिर्फ वर्णव्यवस्था का पैरोकार बल्कि नस्लवादी तक साबित करते हैं। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के जमाने से ही गाँधी के किरदार की जो पोल खोली है उससे पता चलता है कि गाँधी बहुत पहले से ही एक बुरे इंसान थे जो इंसान-इंसान में नस्ल और जाति के आधार पर भेदभाव करते थे। हालाँकि अंबेडकर की चूकों पर भी ध्यान दिया है जब वे आदिवासियों को बर्बर कहते हैं और उनके धर्म परिवर्तन को लेकर आशंकित हैं।
लेकिन यहाँ यह भी याद रखने की जरूरत है कि अरुंधति स्वयं कोई तटस्थ विश्लेषक नहीं, बल्कि इधर के वर्षों में हिंदूवादी राजनीति के खिलाफ उभरे उस सेकुलरपंथी-दलितपंथी-मानवाधिका रवादी कल्ट की एक प्रमुख प्रवक्ता हैं जिसपर खुद पूर्वाग्रहों का शिकार होने के आरोप लगते रहे हैं। इसीलिए कहीं न कहीं उनका यह पाठ जुटाए गए तथ्यों को खींच-तान कर अपने ‘स्टैंड’ में फिट करने की एक कवायद भी है। वे अंबेडकर की बात करती हैं, मुसलमानों की बात करती हैं—पर इन दोनों के आपसी रिश्ते की कोई बात नहीं करतीं। जबकि भारत की इस्लामिक राजनीति पर अंबेडकर की एक पूरी किताब उपलब्ध है, और लिखती हैं- ‘राजनैतिक इस्लाम अंतर्मुखी हो रहा है, अपने परिसर को, अंतःक्षेत्र को संकीर्ण और कड़ा कर रहा है।’ साथ ही गोधरा कांड में ट्रेन के डिब्बों में ‘रहस्यमय ढंग से’ आग लगने की बात पर भी वह कायम हैं। फिर भी पुस्तक में अपनी ओर से निष्पक्ष रहने की उन्होंने काफी कोशिश की है, और पृथक निर्वाचिका के विरोध में गाँधी के अनशन को ‘बेशर्मीपूर्ण ब्लैकमेल’ कहने वाली लेखिका कबूल करती हैं कि- ‘गाँधी के अस्पृश्यता अभियान ने यदि कुछ किया और प्रभावशाली तरीके से किया वह यह था कि सदियों पुरानी चोटों पर मरहम लगाया।’
इस बार एक और दिक्कत यह भी है कि मार्क्सवाद का बोरिया-बिस्तर सिमटने के बाद बना सेकुलर-प्रगतिशील बुद्धिजीवी मोर्चा जिन गाँधी के बूते अपना ठीहा जमाए रहा है यहाँ वह गाँधी भी दलित-विरोधी दिख रहे हैं। सवाल है कि मार्क्स भी नहीं गाँधी भी नहीं, तो फिर उनके विरोध का मॉडल क्या है? उनकी धारणाओं की वस्तुनिष्ठता क्या है? क्या उनका अपना तमाम प्रतिरोध पश्चिमी मानवाधिकारवाद का ही कॉपी-पेस्ट नहीं है? उदाहरण के लिए क्या उन्होंने कभी विचार किया है कि बकौल लोहिया कीड़े-मकोड़ों की तरह जीवन से चिपकी रहने वाली सभ्यता में मृत्युदंड समाप्त करने का क्या अर्थ होगा? या कश्मीर को आत्मनिर्णय का अधिकार, जिसकी वे पैरोकार रही हैं, दिए जाने के नतीजे क्या होंगे?
उन्होंने विचार किया हो या नहीं, पर अंबेडकर की दृष्टि इस बारे में पूरी तरह साफ है जो मानते हैं कि यदि किसी जनता की प्रवृत्ति न्याय में नहीं है तो मात्र किसी संस्था पर अन्याय-समाप्ति का भरोसा नहीं किया जा सकता। हिंदू धर्म के ढाँचे और गाँधी से उनकी निराशा की यही वजह है, कि वे चीजों को बुनियादी तौर पर बदलना नहीं चाहते। अरुंधति राय ने इस पुस्तक में एक रेडिकल सच को झाड़-पोंछकर सामने रखा है, जो बातों को अधूरे में गोलमोल करने की हिंदुस्तानी आदत के कारण अभी तक किसी तहखाने में पड़ा था। पुस्तक के अनुवादकद्वय, अनिल यादव ‘जयहिंद’ और रतन लाल, सामाजिक न्याय आंदोलन के कार्यकर्ता रहे हैं।
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