विकास बाहरी की 'खिड़की'
विकास बाहरी के नाटक ‘खिड़की’ में कथानक के भीतर घुसकर उसकी पर्तें बनाने और खोलने की एक युक्ति है। यह मंच पर मौजूद मुख्य पात्र के भ्रम और यथार्थ का एक खेल है, जिसमें दर्शक फँसा रहता है। यह पात्र एक लेखक है, जो अपनी खिड़की से सामने की खिड़की में मोबाइल पर बात करती एक लड़की को देखता है। ऐन इसी वक्त अपने फटेहाल हालात से जूझते हुए वह एक कहानी की तलाश भी कर रहा है। मोबाइल पर बात करती लड़की के चेहरे के बदलते भावों से वह एक कहानी बनाता है। कमाल की बात है कि यह कहानी अपने पात्रों के रखे गए नामों सहित पूरी सही साबित होती है।
सिर्फ दो पात्रों के एक घंटे के नाटक में दूसरी पात्र खिड़की वाली लड़की है। प्रस्तुति में बयान की नाटकीयता है, और साथ ही आशय की एक दिशा भी। विकास बाहरी में चीजों को फ्रेम के भीतर ही बरतने की अच्छी आदत है। वरना थोड़ी सी ढील से मानव कौल के नाटकों की तरह यह प्रस्तुति भी साहित्यिक शब्दों का गट्ठर बन सकती थी। रंगमंचीय वक्रता साहित्यिक जुमले से अलग चीज होती है, इस बात की समझ इस प्रस्तुति में है, जो कि अपने यहाँ कम ही दिखाई देती है।
स्थितियों के ट्रीटमेंट में भी दृश्य काफी ठीक से बनाए हैं। दो छत से लटकते फ्रेम हैं और एक बैचलर लेखक का बोहेमियन घर, जिसे यह भी नहीं पता कि घर में चीनी कहाँ है, या है भी कि नहीं। लोहे की खाट के नीचे पड़े बैग में उसकी गृहस्थी ठुँसी हुई है। यहाँ-वहाँ पड़े गोला बनाकर फेंके गए कागजों के बीच वह खाट पर तौलिया ओढ़कर सो जाता है।
जतिन सरना और प्रियंका शर्मा दोनों ही अच्छे एक्टर हैं और किरदार में काफी ठीक से हैं। खासकर प्रियंका में जल्दी से खुद को अलग-अलग मूड में शिफ्ट कर लेने की अच्छी सलाहियत है। इसी तरह जतिन सरना भी एकालाप से द्वि-पात्रीय संवादों में काफी कुशल आवाजाही करते हैं। फिर भी उनमें चुटकीबाजी का पुट थोड़ा कम और लेखक की बेचैनी का मूड थोड़ा ज्यादा होना बेहतर होता।
इस नाटक का लेखन और निर्देशन दोनों ही विकास ने किया है, जिनकी एक बड़ी टीम के साथ तैयार प्रस्तुति ‘द ट्रायल’ भी अभी कुछ दिन पहले देखी थी। वह भी एक मुश्किल विषय की पर्याप्त चुस्त प्रस्तुति थी। हालाँकि काफ्का का ऊबड़खाबड़पन उसमें अतिचारी व्यवस्था के एक समकालीन आशय में रिड्यूस हुआ मालूम देता है। इससे पहले उनकी प्रस्तुतियाँ ‘अजनबी’ और ‘चिड़िया और चाँद’ भी देखी थीं। स्पष्ट है कि उनकी रुचि आख्यानमूलक सीधे-सरल सच के बजाय उलझनों की थाह लेने में ज्यादा है।
स्थितियों के ट्रीटमेंट में भी दृश्य काफी ठीक से बनाए हैं। दो छत से लटकते फ्रेम हैं और एक बैचलर लेखक का बोहेमियन घर, जिसे यह भी नहीं पता कि घर में चीनी कहाँ है, या है भी कि नहीं। लोहे की खाट के नीचे पड़े बैग में उसकी गृहस्थी ठुँसी हुई है। यहाँ-वहाँ पड़े गोला बनाकर फेंके गए कागजों के बीच वह खाट पर तौलिया ओढ़कर सो जाता है।
जतिन सरना और प्रियंका शर्मा दोनों ही अच्छे एक्टर हैं और किरदार में काफी ठीक से हैं। खासकर प्रियंका में जल्दी से खुद को अलग-अलग मूड में शिफ्ट कर लेने की अच्छी सलाहियत है। इसी तरह जतिन सरना भी एकालाप से द्वि-पात्रीय संवादों में काफी कुशल आवाजाही करते हैं। फिर भी उनमें चुटकीबाजी का पुट थोड़ा कम और लेखक की बेचैनी का मूड थोड़ा ज्यादा होना बेहतर होता।
इस नाटक का लेखन और निर्देशन दोनों ही विकास ने किया है, जिनकी एक बड़ी टीम के साथ तैयार प्रस्तुति ‘द ट्रायल’ भी अभी कुछ दिन पहले देखी थी। वह भी एक मुश्किल विषय की पर्याप्त चुस्त प्रस्तुति थी। हालाँकि काफ्का का ऊबड़खाबड़पन उसमें अतिचारी व्यवस्था के एक समकालीन आशय में रिड्यूस हुआ मालूम देता है। इससे पहले उनकी प्रस्तुतियाँ ‘अजनबी’ और ‘चिड़िया और चाँद’ भी देखी थीं। स्पष्ट है कि उनकी रुचि आख्यानमूलक सीधे-सरल सच के बजाय उलझनों की थाह लेने में ज्यादा है।
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