पद्मावती की कहानी
पद्मावती
मलिक मुहम्मद जायसी के प्रबंधकाव्य ‘पद्मावत’ की नायिका है, जिसका
कथानक ये है— अद्वितीय
सुन्दरी पद्मावती सिंहलदेश के
राजा गंधर्वसेन की पुत्री थी। उसके पास हीरामन नाम का एक तोता था, जो किसी बहेलिये के हाथों पकड़ा जाकर चित्तौड़ के राजा रत्नसेन के यहाँ जा
पहुँचा। हीरामन से पद्मावती के रूप का वर्णन सुन रत्नसेन ने साधु का वेश धरा और
पद्मावती को ब्याह कर चित्तौड़ ले आया। उधर रत्नसेन द्वारा अपमानित ज्योतिषी राघव
चेतन से पद्मावती की सुंदरता के
बारे में सुनकर दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। 8 वर्षों
के युद्ध के बाद भी असफल रहने पर उसने संधि का झूठा संदेश भिजवाया और धोखे से राजा
रत्नसेन को कैद कर लिया। रत्नसेन को छोड़ने की शर्त थी पद्मावती। पद्मावती ने तब
गोरा-बादल की मदद ली। सोलह सौ पालकियाँ सजाई गईं और भेस बदलकर राजा रत्नसेन को
मुक्त कराया गया। चित्तौड़ लौटने पर जब राजा रत्नसेन को पता चला कि पड़ोसी राज्य
कुंभलनेर के राजा देवपाल ने पद्मावती को एक दूत के जरिए प्रेम-प्रस्ताव भेजा था तो
उसने कुंभलनेर जाकर देवपाल को द्वंद्वयुद्ध के लिए ललकारा। इस लड़ाई में देवपाल को
मौत और रत्नसेन को जीत हासिल हुई, पर एक घाव ने बाद
में उसकी भी जान ले ली। उधर रत्नसेन का पीछा करते आए अलाउद्दीन खिलजी ने जब दोबारा
आक्रमण किया तो कोई रास्ता
न बचने पर रानी पद्मावती सोलह सौ स्त्रियों के साथ जौहर की अग्नि में कूद गई। सारे
राजपूत योद्धा भी लड़ते हुए मारे गए। अलाउद्दीन खिलजी को सिर्फ भस्म मिली और शव
मिले।
पद्मावत का
रचनाकाल 1521 से 1542 के मध्य माना गया है, जबकि इसका खलनायक
अलाउद्दीन खिलजी 1296 से 1316 तक दिल्ली की गद्दी पर रहा था। इतिहास के तथ्यों के
मुताबिक खिलजी ने सन 1303 में चित्तौड़ पर हमला किया था, जहाँ
के राजा रत्नसिंह की पत्नी का नाम पद्मिनी था, जिसने युद्ध
में राजा रत्नसिंह के मारे जाने के बाद जौहर में प्राण दिए थे। जायसी के कथानक के
इतने ही तथ्य इतिहास में मिलते हैं, बाकी को कवि की कल्पना
माना गया। लेकिन ब्रिटिश अधिकारी जेम्स टॉड (1782-1835) ने राजस्थान के चारणों
द्वारा सुनाए गए वृत्तांतों में एक अन्य कहानी बताई। टॉड के यहाँ रत्नसेन का नाम
भीमसिंह है, पद्मावती का नाम पद्मिनी और उसके पिता और सिंहलदेश के राजा का नाम गंधर्वसेन के
बजाय हम्मीर है। पद्मिनी के रूप के बारे में सुन अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर चढ़ाई
कर दी। भयंकर युद्ध के बाद भी कोई परिणाम न निकलने पर अलाउद्दीन ने संधि प्रस्ताव
भिजवाया कि उसे बस एक बार पद्मिनी का रूप देख लेने दिया जाए। इस तरह युद्ध रुका और
अलाउद्दीन को एक दर्पण में पद्मिनी का अक्स दिखाया गया। इसके आगे भीमसिंह को धोखे
से कैद किया जाना, सैनिकों द्वारा भेस बदलकर उसे छुड़ाया
जाना आदि स्थितियाँ पद्मावत की कथा के मुताबिक ही हैं, पर
अंत ठीक वैसा नहीं है। टॉड ने अलाउद्दीन के दूसरे हमले में राणा भीमसिंह के अपने
11 पुत्रों सहित मारे जाने की बात कही है।
हालांकि
जेम्स टॉड के कामों में परवर्ती शोधार्थियों ने अक्सर गलतियाँ ढूँढी हैं, पर पद्मावती की कहानी के मामले में किंचित हेरफेर के साथ एक और पुस्तक ‘आईने आकबरी’ टॉड का समर्थन करती है। जायसी से करीब आधी सदी
बाद लिखी गई ‘आईने
अकबरी’ के नायक का नाम
रत्नसेन ही है, लेकिन अलाउद्दीन यहाँ दो बार युद्ध में हारा
हुआ बताया गया है। दूसरी बार हारने पर उसने धोखे की व्यूह रचना की।
आचार्य
रामचंद्र शुक्ल ने पद्मावत की वृहद मीमांसा में जायसी के इतिहास और भूगोल के ज्ञान
को काफी विस्तार से खँगाला है। उनके मुताबिक, “अलाउद्दीन के
समय की और घटनाओं का भी जायसी को पूरा पता था। मंगोलों के देश
का नाम उन्होंने ‘हरेव’ लिखा है। अलाउद्दीन के समय में मंगोलों के कई आक्रमण
हुए थे जिनमें सबसे जबरदस्त हमला सन 1303 ई. में हुआ था। सन 1303 ई. में ही चित्तौड़ पर अलाउद्दीन ने चढ़ाई की थी। अब देखिए मंगोलों की इस चढ़ाई का उल्लेख जायसी ने किस प्रकार किया है। अलाउद्दीन चित्तौड़ गढ़ को घेरे हुए है, इसी बीच में दिल्ली से चिट्ठी आती है-
एहि विधि ढील
दीन्ह तब ताईं! दिल्ली तें अरदासैं आईं।
पछिउँ हरेव
दीन्हि जो पीठी, जो
अब चढ़ा सौंह के दीठी।
जिन्ह भुइं
माथ गगन तेहि लागा, थाने
उठे आव सब भागा।
उहाँ साह
चितउर गढ़ छावा, इहाँ
देस अब होइ परावा।”
क्या रामचंद्र
शुक्ल के इस उदाहरण से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जायसी अपने बाकी वर्णनों में
भी तथ्यों को लेकर उतने ही दुरुस्त होंगे? वैसे जहाँ तक पूर्वार्ध के राजा-रानी, तोते वाले कथासूत्र की बात है तो शुक्ल जी और हजारीप्रसाद द्विवेदी दोनों
ने ही इसे प्रचलित और बहुश्रुत माना है, जिसमें कवि ने अपने
नामों को फिट किया। वैसे यहाँ यह भी याद रखने की बात है कि साहित्य के इतिहास में पद्मावती सिर्फ मलिक मुहम्मद जायसी की नायिका ही नहीं है। हजारीप्रसाद
द्विवेदी ने इस क्रम में दसवीं सदी के मयूर कवि के ‘पद्मावती-कथा’ नाम के एक काव्य का उल्लेख किया है, और ‘पृथ्वीराज रासो’ में भी पृथ्वीराज का एक पद्मावती से विवाह
बताया गया है।
पद्मावत और
उसके आसपास की इन सभी कथाओं में जो एक बात समान है वह है अलाउद्दीन खिलजी का
खलनायकत्व। क्या इसका कारण वही है जैसा अलाउद्दीन के समकालीन इतिहासकार जियाउद्दीन
बरनी ने लिखा कि “उसने
फराओ (अपनी क्रूरता के लिए कुख्यात मिस्र के रोमनपूर्व शासक) से भी कहीं ज्यादा
निर्दोष लोगों का खून बहाया।” सच जो भी हो, पर पद्मावती की कहानी से कमाई करने
वालों और उसपर बवाल करने वालों के लिए बेहतर होगा कि वे बरनी के बयान के
बजाय रामचंद्र शुक्ल को याद रखें, जिन्होंने
लिखा, “पद्मावत की
हस्तलिखित प्रतियाँ अधिकतर मुसलमानों के ही घर में पाई गई हैं। इतना मैं अनुभव से
कहता हूँ कि जिन मुसलमानों के यहाँ यह पोथी देखी गई उन सबको मैंने विरोध से दूर और
अत्यंत उदार पाया।”
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