झाँसी की रानी से एक मुलाकात
झाँसी की रानी से एक
मुलाकात
जॉन लैंग
जॉन लैंग (1816-1864) का जन्म सिडनी में हुआ था।
उसने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से कानून की पढ़ाई की, और 1842 में भारत आकर वकालत करने
लगा। सन 1851 में आगरा कोर्ट में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ एक मुकदमे में उसे
बड़ी जीत हासिल हुई। यह मुकदमा कंपनी के ही एक कॉन्ट्रैक्टर रहे लाला जोती प्रसाद की
ओर से था। मुकदमे में जीत ने उसे हिंदुस्तानियों के बीच प्रसिद्ध कर दिया। रानी
झाँसी द्वारा अपने राज्य के अधिकार पुनः हासिल करने की कोशिशों के सिलसिले में
उसकी राय जानने के लिए उसे बुलाया जाना उसी प्रसिद्धि का नतीजा था। रानी से उसकी
मुलाकात का यह वाकया 1854 का है, जिसपर लिखे संस्मरण को उसने 1859 में प्रकाशित
अपनी पुस्तक ‘वांडरिंग्स
इन इंडिया’
में शामिल किया।
छोटे से राज्य झाँसी को कब्जे में लेने का आदेश दिए जाने के करीब महीने भर
बाद, और कब्जे के लिए 13वीं नेटिव इन्फेन्ट्री की एक टुकड़ी के रवाना होने के पहले
मुझे रानी झाँसी का एक पत्र मिला। सुनहरे पृष्ठ पर फारसी भाषा में लिखे इस पत्र
में निवेदन किया गया था कि मैं झाँसी में एक बार उनसे मिलने के लिए आऊँ। पत्र लाने
वाले दोनों लोग हैसियतदार हिंदुस्तानी थे। एक दिवंगत राजा का वित्त मंत्री रहा था,
दूसरा रानी का मुख्य वकील था।
झाँसी का राजस्व करीब छह लाख सालाना था। सरकार के खर्चे और दिवंगत राजा की
सेवा में रहे सैन्य दल का वेतन देने के बाद करीब ढाई लाख बच जाते थे। सैन्य दल
ज्यादा बड़ा नहीं, एक हजार के भीतर ही था, और ये मुख्यतः घुड़सवार ही थे। राज्य को
कब्जे में लेने के बाद रानी को 60 हजार सालाना की पेंशन मासिक तौर पर दी जानी थी।
रानी के निमंत्रण का उद्देश्य मुझसे यह सलाह करना था कि क्या कब्जे के आदेश को
रद्द या वापस करवाया जा सकता है। मैं यहाँ जिक्र कर दूँ कि रानी ने मुझसे यह
संपर्क सिविल सेवा के एक सज्जन के कहने पर किया था, जो कभी अपर प्रोविंस के एक
स्थानीय दरबार में रेजीडेंट या गवर्नर जनरल के एजेंट रहे थे। वो भारत में ऊँची रैंक
के अन्य बहुतेरे अफसरों की तरह झाँसी पर कब्जे को ‘कुल मिलाकर एक घटिया बात’
मानते थे, जो न सिर्फ अनुचित बल्कि अन्यायपूर्ण भी थी और जिसका कोई तर्क नहीं था। तथ्य
संक्षेप में ये थे :
दिवंगत राजा के अपनी एकमात्र पत्नी (वह महिला जो किले में हमारे देश के औरतों, मर्दों
और बच्चों की मौत का कारण बनी, और जिसे बाद में मिली सलाहों के मुताबिक मार दिया
गया*) से कोई संतान नहीं थी। अपनी मौत
से कुछ हफ्ते पहले ‘अशक्त
शरीर के बावजूद दृढ़ मस्तिष्क से’
उन्होंने सबके सामने एक उत्तराधिकारी गोद लिया, और झाँसी में नियुक्त गवर्नर जनरल के प्रतिनिधि के जरिए वाजिब
तरीके से सरकार को इस बात की सूचना भी दी। संक्षेप में, ऐसे मामलों में धोखेबाजी
से बचने के लिए सरकार की ओर से निर्धारित सभी नियमों का अनुपालन किया गया। राजा ने
अपने लोगों और गवर्नर जनरल के प्रतिनिधि की मौजूदगी में बच्चे को अपनी गोद में
लिया, साथ ही इस सारी कार्रवाई का जिक्र करते हुए विधिवत सत्यापित दस्तावेज पर
हस्ताक्षर भी किए। राजा एक ब्राह्मण था, और गोद लिया लड़का उसके नजदीकी रिश्ते में
था।
झाँसी का राजा ब्रिटिश सरकार के प्रति खासतौर पर
विश्वासपात्र रहा था। लॉर्ड विलियम बेंटिक ने दिवंगत राजा के भाई** को एक ब्रिटिश चिह्न और ‘राजा’
की पदवी देने वाले पत्र दिये थे। इस पत्र में सुनिश्चित किया गया था कि ब्रिटिश
सरकार राजा, उसके वंशजों और गोद लिए वारिसों को इस पदवी और इसमें निहित आजादी की गारंटी
करती है। कोई शक नहीं कि लॉर्ड विलियम बैंटिक के उस अनुबंध का उल्लंघन किया गया और
इसके लिए किसी ढोंग की जरूरत तक नहीं समझी गई। पेशवा के वक्त में झाँसी का मरहूम
राजा महज एक बड़ा जमींदार हुआ करता था, और अगर वह बिना पदवी के ही बना रहता तो कम
से कम जायदाद के मामले को सुलटाने में उसकी आखिरी इच्छा को लेकर कोई सवाल ही खड़ा
न होता। यह तो राजा की पदवी को स्वीकारने की वजह से हुआ कि उसकी जागीरों की ज़ब्ती
हुई, और सालाना ढाई लाख को 60 हजार में बदला गया। हो सकता है पाठकों को यह पूरा बयान अविश्वसनीय लगे, पर यह पूरी तरह सच है।
मुझे जब रानी का पत्र मिला तब मैं आगरा में था, जो
वहाँ से दो दिन के रास्ते पर है। यूँ मैं झाँसी से ही आया था पर मेरी इस महिला से
सहानुभूति थी। जिस लड़के को राजा ने गोद लिया था वह सिर्फ छह साल का था, और राजा
की वसीयत के मुताबिक उसके बालिग यानी 18 साल का होने तक रानी को ही शासक और उसके अभिभावक
के तौर पर रहना था। और यह कोई छोटा मामला नहीं था कि कोई महिला- वो भी हिंदुस्तानी
कुलीन महिला- इतनी बड़ी हैसियत को छोड़कर
एक पेंशनभोगी बन जाए—भले ही वो पेंशन 60 हजार सालाना की क्यों न हो। अब मैं झाँसी
में रानी के महल तक की अपनी यात्रा के बारे में बताता हूँ। मैं शाम के वक्त पालकी
में बैठा, और अगली सुबह उजाला होने के वक्त ग्वालियर आ गया। यहाँ छावनी से करीब
डेढ़ मील के फासले पर झाँसी के राजा का एक छोटा मकान था, जिसे पड़ाव के रूप में
इस्तेमाल किया जाता था। मेरे साथ चल रहे मंत्री और वकील मुझे वहीं ले गए। दस बजे,
जब मैं नाश्ता करके अपना हुक्का गुड़गुड़ा चुका था, तो कहा गया कि एक ही ठाँव में
निकल लिया जाए। दिन बहुत गरम था, लेकिन रानी ने बड़ी ही सुविधाजनक पालकी-गाड़ी भेजी
थी। बल्कि कहें तो यह किसी गाड़ी के बजाय हर तरह की सुविधा से युक्त एक छोटा कमरा थी।
यहाँ तक कि इसमें एक पंखा भी था, जिसे बाहर फुट-बोर्ड पर बैठा एक नौकर चलाता था। गाड़ी
में मेरे, मंत्री और वकील के अलावा एक खानसामा या बावर्ची था, जो अपने घुटनों के
बीच रखे खास तरह के पात्र में ठंडा पानी, वाइन और बीयर इस तरह रखे बैठा था कि प्यास
लगने का इशारा मिलते ही पलक झपकते वो ये चीजें मुझे पेश कर सके। इस विशाल वाहन को
घोड़ों की एक जोड़ी पूरी ताकत और वेग से खींच रही थी। दोनों ही करीब सत्रह हाथ
ऊँचे घोड़े थे। दिवंगत राजा ने इन्हें फ्रांस से 15000 की कीमत पर आयात करवाया था।
सड़क कई जगह काफी ऊबड़खाबड़ थी, पर हमने इसे औसतन करीब नौ मील प्रति घंटा की
रफ्तार से पार किया। दो बार घोड़े बदलने के बाद दिन के करीब दो बजे हमने झाँसी
राज्य की सीमा में प्रवेश किया। हमें अभी करीब नौ मील और जाना था। अब तक हमारे साथ
महज चार घुड़सवार रक्षाकर्मी थे, पर अब उनकी तादाद बढ़कर करीब पचास हो गई। हर
घुड़सवार एक बड़ी सी बर्छी लिए था, और काफी कुछ ईस्ट इंडिया कंपनी के अनियमित घुड़सवार दल से मिलती-जुलती
पोशाक में था। सड़क के किनारे कुछ-कुछ सौ गज के अंतराल पर घुड़सवार मौजूद थे, और
जैसे ही हम गुजरते वो भी इस दल में शामिल हो जाते। इस तरह जब हम किले- यदि निम्न
कोटि की नौ तोपों के पार उन कमजोर दीवारों को किला कहा जा सके- के करीब पहुँचे तो
झाँसी की कुल अश्वारोही सेना वहाँ उपस्थित थी। सवारी को ‘राजा का बगीचा’
कही जाने वाली एक जगह की ओर ले जाया गया, जहाँ मैं उतरा, और वित्त मंत्री, वकील और
अन्य राज्य कर्मचारियों द्वारा आम के विशाल पेड़ों के झुरमुट के नीचे लगे एक बड़े
से तंबू की ओर ले आया गया। यह वही तंबू था जिसमें मरहूम राजा ब्रिटिश सरकार के
प्रशासनिक और सैन्य अफसरों से मिला करते थे। तंबू अच्छी तरह से लगाया हुआ था, उसमें
कालीन बिछा था, और कम से कम दर्जन भर घरेलू नौकर मेरे आदेशों को पूरा करने के लिए
वहाँ थे। मुझे यहाँ यह जिक्र नहीं भूलना चाहिए कि मेरी यात्रा के साथी- मंत्री और
वकील- दोनों ही अच्छे स्वभाव और सलाहियत वाले लोग थे। वे पढ़े-लिखे और जानकार थे, इसलिए
सफर में मेरा समय अच्छे ढंग से गुजरा।
रानी ने अपने आश्रित बहुतेरे ब्राह्मणों में से एक से
पूछा था कि उस परदे, जिसके दूसरी ओर वे बैठती हैं, पर मेरे आने के लिए सबसे शुभ
समय क्या होगा; और ब्राह्मण ने उन्हें बताया था कि यह अवश्य ही
सूर्य के अस्त होने और चाँद, जो कि तब लगभग अपने पूरे आकार में था, के उदित होने
का समय होना चाहिए। दूसरे शब्दों में साढ़े पाँच और साढ़े छह के बीच का समय।
यह अहम बात मुझे बता दी गई थी। मिलने के समय को लेकर मुझे
कोई दिक्कत नहीं थी। उसी के मुताबिक मैंने रात के खाने का आदेश दे दिया। यह होने
के बाद वित्त मंत्री ने थोड़ा झेंपते हुए मेरे नजदीक आकर कहा कि वे मुझसे एक जरा
नाजुक विषय पर कुछ बात करना चाहते हैं, और अगर मेरी इजाजत हो तो वे मेरे निजी सेवक
सहित मेरी आवभगत में लगे नौकरों को तंबू से थोड़ा दूर होकर खड़े होने के लिए आदेश
दें। जाहिर ही मैंने हाँ कहा और पाया कि कि मैं छोटे से झाँसी राज्य के केवल ‘आधिकारिक’
लोगों (आठ या नौ की संख्या में) के साथ वहाँ अकेला रह गया हूँ। वित्त मंत्री मुझसे
जो पूछना चाहते थे वह यह था-- कि क्या मैं इस बात के लिए राजी हूँ कि रानी के कक्ष
में प्रवेश से पहले मुझे जूते बाहर ही उतार देने होंगे? मैंने पूछा कि क्या गवर्नर जनरल के प्रतिनिधि ने ऐसा किया था? उन्होंने जवाब दिया कि गवर्नर जनरल के प्रतिनिधि की
रानी से कभी कोई मुलाकात नहीं हुई;
और मरहूम राजा ने कभी किसी यूरोपीय जेंटलमैन की अपने महल के निजी कक्ष में अगवानी
नहीं की, बल्कि इसके लिए अलग से एक कक्ष तय था, या इस तंबू में जहाँ इस वक्त हम
बात कर रहे थे। मैं थोड़ी मुश्किल में पड़ गया। सूझ नहीं रहा था क्या कहूँ। ऐसी ही
स्थिति में कुछ साल पहले मुझे दिल्ली के बादशाह के यहाँ पेश होने से मना कर दिया
गया था, जिसका इसरार था कि यूरोपियन उसके यहाँ जूते उतारकर आएँ। जूते उतारने का
विचार मुझे बहुत गैरवाजिब लग रहा था और यह बात मैंने दिवंगत राजा के मंत्री से स्पष्ट रूप से कह दी। मैंने
उससे पूछा कि क्या वह इंग्लैंड की रानी के राजदरबार में शामिल होगा, अगर उसे पता चले
कि वहाँ उसे अपना सिर (बिना पगड़ी के) खुला रखना होगा, क्योंकि ऐसा ही नियम छोटे
से बड़े तक सबके लिए है?
इस सवाल का उसने मुझे सीधा जवाब नहीं दिया, बल्कि कहा- ‘आप अपना हैट पहन सकते हैं साहब। रानी उसका बुरा नहीं मानेंगी। उल्टे वो तो इसे
अपने प्रति सम्मान जताने का एक अतिरिक्त संकेत मानेंगी।’ अब यही वो बात थी जो मैं नहीं
चाहता था। मैं चाहता था कि मान लो मैं अपने जूते उतारने पर राजी हो जाता हूँ तो वो
मेरे हैट पहनने को अपनी ओर से, और मेरी ओर से भी, एक किस्म का समझौता मानें। खैर, यह
सौदेबाजी जैसी थी उससे मुझे काफी आनंद आया, जिस वजह से मैंने उन्हें साफ तौर पर यह
समझाते हुए सहमति जता दी कि मेरी सहमति को उनके पद और महिमा के प्रति नहीं बल्कि
उनके महिला और सिर्फ महिला होने के प्रति शुभकामना के रूप में माना जाए। इस तरह यह
अहम मुद्दा तय हुआ। मैंने मेरे लिए तैयार किया गया आलीशान भोजन ग्रहण किया, और
सूर्य के अस्त या चाँद के उदय होने की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करने लगा। हालाँकि
मैं अडिग था कि अपनी काले रंग के निचले हिस्से और सफेद रंग के ऊपरी हिस्से वाली हैट
पहनूंगा।
आखिर वक्त हो गया, और अपनी विशाल पीठ पर लाल रंग के
मखमल से सजा हुआ चाँदी का हौदा लिए एक सफेद हाथी (एक अलबीनो, जो कि पूरे भारत में
कुछ ही हैं) तंबू की ओर लाया गया। मैं लाल मखमल से ही सजाए ‘स्टेप्स’
से ऊपर चढ़ा और अपनी जगह बैठ गया। महावत बहुत ही अच्छी वेशभूषा में था। हाथी के
दोनों ओर राज्य के मंत्री सफेद अरबी घोड़ों पर सवार खड़े थे। झाँसी का घुड़सवार दल
महल की ओर जाने वाली सड़क पर पंक्तिबद्ध खडा होकर एक वीथिका बनाए हुए था। महल मेरे
शिविर की जगह से करीब आधे मील की दूरी पर था।
शीघ्र ही हम मुख्य द्वार पर आ गए, जिसे पैदल
अर्दलियों ने जोरदार तरह से खटखटाना शुरू किया। एक छोटा दरवाजा खुला, और फौरन ही
बंद हो गया। रानी को सूचना भिजवाई गई, और करीब दस मिनट के विलंब के बाद द्वार को
खोलने का हुक्म आया। मैंने हाथी पर बैठे-बैठे भीतर प्रवेश किया, और एक प्रांगण में
जाकर उतरा। शाम बहुत ही गर्म थी, और मुझे लगा कि मेरे आसपास जमा हो गए स्थानीय
लोगों (आश्रितों) में मेरा दम न घुट जाए। मेरी बेचैनी को देख मंत्री ने उन्हें
जोरदार तरह से ‘पीछे
रहो!’ का आदेश दिया। फिर एक और तनिक-सी
देरी के बाद मुझसे एक बहुत ही सँकरे पत्थर के जीने पर चढ़ने के लिए कहा गया। ऊपर
पहुँचने पर मुझे एक देसी सज्जन मिले, जो रानी के कोई रिश्तेदार थे। वे मुझे पहले
एक कक्ष में फिर दूसरे कक्ष में ले गए। ये सभी (छह या सात) एक जैसे कक्ष फर्श पर
पड़े कालीन को छोड़कर बिना किसी साज-सज्जा के थे। लेकिन छत पर पंखा और झूमर लटके
हुए थे, और दीवारों पर हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीरें और यहाँ-वहाँ विशाल दर्पण लगे
थे। थोड़ी देर में मैं एक कमरे के दरवाजे पर ले जाया गया, जिसपर देसी सज्जन ने
दस्तक दी। एक स्त्री-स्वर ने भीतर से पूछा- ‘कौन है वहाँ?’
‘साहब
हैं’ जवाब दिया गया। फिर एक और मुख्तसर
देरी के बाद दरवाजा किन्हीं अदृश्य हाथों से खोला गया। देसी सज्जन ने मुझसे भीतर
प्रवेश करने के लिए कहा और साथ ही बताया कि वह अब वहाँ से जा रहे हैं। इस बार तनिक
विलंब मेरी ओर से हुआ। मुझे जूते उतारने में काफी मुश्किल हो रही थी; तथापि कुछ देर में यह कार्य संपादित कर ‘मोज़े पहने पैरों के साथ’ मैं कक्ष में दाखिल हुआ। कक्ष,
जिसमें बहुत सुंदर कालीन बिछा हुआ था, के बीचोबीच यूरोप में बनी एक आरामकुर्सी
(आर्म चेयर) रखी थी और इसके चारों ओर फूलों की मालाएँ फैली हुई थीं (झाँसी अपने
सुंदर और सुगंधित फूलों के लिए मशहूर है)। कक्ष के दूसरे सिरे पर एक परदा था, और
इसके पीछे कुछ लोग बात कर रहे थे। मैं आर्म चेयर पर बैठ गया, और आदतन अपनी हैट
उतार ली;
पर अपने निश्चय का खयाल आते ही उसे पुनः पहन लिया—बल्कि इस बार इसे इतनी अच्छी तरह
खींचकर पहना कि मेरा माथा ही पूरी तरह इसमें छुप गया। यह शायद मेरा एक
मूर्खतापूर्ण निश्चय था, क्योंकि हैट ने पंखे की हवा को मेरी कनपटियों तक ठंडक
पहुँचाने से रोक लिया था।
मैंने एक महिला-स्वर सुना जो किसी बच्चे से कह रही थी
‘जाओ साहब के पास’, और यह भी सुना कि बच्चा ऐसा करने से इनकार कर रहा
है। अंततः उसे कक्ष में भेज ही दिया गया। मैंने बच्चे से सहृदयतापूर्वक बात की तो
वह मुझसे मुखातिब हुआ, लेकिन बहुत ही संकोच के साथ। उसकी वेशभूषा और पहने हुए
जवाहरात से मैं आश्वस्त हुआ कि यह बच्चा दिवंगत राजा का गोद लिया बेटा और झाँसी के
छोटे से राजमुकुट का ठुकराया हुआ उत्तराधिकारी ही है। वह एक सुंदर, लेकिन अपनी
उम्र के लिहाज से काफी ठिगना और जैसा कि मैंने ज्यादातर मराठा बच्चों में देखा है
चौड़े कंधों वाला बच्चा था।
जब मैं बच्चे से बात कर रहा था, एक महीन और बेमेल आवाज पर्दे के पीछे से सुनाई दी, और मुझे बताया गया कि लड़का
महाराजा है, जिसे हाल ही में भारत के गवर्नर जनरल द्वारा उसके अधिकारों से महरूम
कर दिया गया है। मुझे लगा कि आवाज किसी बहुत वृद्ध महिला की है—शायद किसी सेविका
या उत्साही आश्रिता की; लेकिन
बच्चे ने यह मानकर कि उससे ही बोला जा रहा है, जवाब दिया- ‘महारानी!’
और लिहाजा मुझे पता चला कि मेरा अनुमान गलत था
और अब रानी ने मुझे परदे के करीब आने के लिए आमंत्रित
कर अपनी शिकायतें बताना शुरू किया। जब वह रुकतीं, तो उन्हें घेरकर बैठी औरतों का
एक तरह का का कोरस शुरू हो जाता। यह हताशा से भरे उच्छवासों का एक सिलसिला था।
मसलन ‘धिक्कार
है मुझे!’, ‘कैसा अत्याचार है!’ । इससे मुझे किसी तईं एक ग्रीक
ट्रैजेडी का एक दृश्य याद हो आया—ऐसी हास्यप्रद स्थिति थी।
मैंने वकील से सुना था कि रानी करीब छब्बीस या
सत्ताईस साल***
की उम्र की एक बहुत खूबसूरत महिला हैं, और मैं यकीनन उनकी एक झलक पाने के लिए बेताब
था। मुझे नहीं पता कि यह दुर्घटनावश हुआ याकि यह रानी की ओर से योजनाबद्ध था कि
मेरी जिज्ञासा फलीभूत हो पाई। छोटे लड़के द्वारा परदा एक ओर को हटाया गया और मुझे उनकी
एक ठीकठाक झलक देखने को मिली। यह सही है कि यह सिर्फ क्षण भर के लिए था, पर फिर भी
मैंने उन्हें इतना पर्याप्त देखा था उनके व्यक्तित्व का निरूपण कर पाऊँ। वो मँझोले
कद की मजबूत डीलडौल वाली महिला थीं— लेकिन बहुत मजबूत भी नहीं। उनका चेहरा अपनी कम
उम्र में यकीनन काफी सुंदर रहा होगा, और बल्कि अभी भी उसमें काफी आकर्षण थे—फिर
भी, सौंदर्य के मेरे नजरिये से, यह काफी गोल था। उनके चेहरे के भाव भी काफी अच्छे,
और काफी समझदारी से परिपूर्ण थे। आँखें विशेष रूप से सुंदर थीं और नाक भी बहुत सुघड़
सुकुमार थी। उनका रंग बहुत गोरा नहीं था, लेकिन काले से भी बहुत दूर था। अजीब बात
थी कि उन्होंने सिवाय कानों में सोने की बालियों के कोई आभूषण नहीं पहना हुआ था।
उनके वस्त्र बहुत अच्छा अहसास देने वाले साधारण सफेद मलमल के, कसे हुए और इस तरह
से थे कि उनकी देहयष्टि का पता चलता था, और वे यकीनन एक सुंदर देहयष्टि वाली महिला
थीं। जो चीज बिगाड़ करती थी वो थी उनकी आवाज--जो थोड़ी फटी हुई और कराहती हुई के
बीच की आवाज थी। जब परदा एक ओर को हुआ तो वो बहुत गुस्से में थीं, या ऐसा उन्होंने
दिखावा किया। लेकिन प्रत्यक्षत वो हँस दीं, और खुशमिजाजी के साथ कहा कि उन्हें उम्मीद
है कि उनका इस तरह ‘दिख
जाना’
उनके कष्टों के प्रति मेरी सहानुभूति को कम नहीं कर देगा, और ना ही उनकी तकलीफ के सबब
को समझने में इससे कोई दिक्कत आएगी।
मैंने जवाब दिया, ‘उल्टे, यदि गवर्नर जनरल महज उतने भी भाग्यशाली हो सकें जितना कि मैं रहा हूँ,
और वो भी सिर्फ पल भर के लिए, तो मुझे यह पक्का यकीन है कि वो तुरंत झाँसी को इसकी
खूबसूरत रानी को शासन के लिए लौटा देंगे।’
इसपर उन्होंने भी कुछ कहा, और अगले दस मिनट इसी किस्म
की बातचीत में व्यतीत हुए। मैंने उनसे कहा कि पूरी दुनिया में उनकी खूबसूरती और
दानिशमंदी की गूँज है। और उन्होंने मुझे कहा कि धरती पर कोई कोना नहीं है जहाँ
मेरे लिए दुआ न की गई हों।
फिर हम उनकी समस्या पर लौटे। मैंने उन्हें बताया कि
गवर्नर जनरल के पास उनका राज्य लौटाने और दत्तक पुत्र के दावे को मान्यता देने की
ताकत नहीं है, जब तक कि उन्हें इंग्लैंड से ना कहा जाए। लिहाजा उनके लिए सबसे अच्छा
यही होगा कि वे सम्राट के यहाँ अपनी दरखास्त लगा दें और इस बीच विरोध बनाए रखते
हुए 60 हजार सालाना की पेंशन लेती रहें क्योंकि इससे गोद लिए बेटे के हक को कोई नुकसान
नहीं होगा। पहले तो उन्होंने यह करने से इनकार कर दिया, और जोर से चिल्लाईं—‘मैं मेरा झाँसी नहीं दूँगी’। तब मैंने जितना संभव था उतनी मुलायमियत से उन्हें
यह बताने की कोशिश की कि उनके द्वारा किसी भी तरह का विरोध कितना व्यर्थ होगा, और
उन्हें वो बताया जो सच था कि देसी रेजीमेंट की एक टुकड़ी और कुछ तोपखाने महल से
तीन कदम की दूरी पर थे। और उन्हें फिर से बताया कि उनकी ओर से हल्का-सा भी विरोध तमाम
उम्मीदों को मिट्टी में मिला देगा-- यानी उनकी आजादी को जोखिम में डाल देगा। ऐसा
मैंने इसलिए किया क्योंकि उनसे, और उनके वकील से भी, बात करके मुझे यह समझ आया (और
मेरा अंदाजा है कि वे सच बोल रहे थे) कि झाँसी की जनता ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन
के अधीन नहीं होना चाहती थी।
यह रात के दो बजे से पहले का वक्त था जब मैं महल से निकला।
निकलने से पहले मैंने अपनी समझ के मुताबिक रानी को मशविरा दिया। सिवाय इसके
कि वो ब्रिटिश सरकार से पेंशन के लिए सहमति नहीं देंगी।
अगले रोज मैं ग्वालियर लौट गया, जो कि आगरा के रास्ते
पर था। रानी ने मुझे एक हाथी, एक ऊँट, एक अरबी घोड़ा, एक जोड़ी फुर्तीले शिकारी
कुत्ते, झाँसी में बने रेशम के कुछ कपड़े और भारतीय दुशाले का एक एक जोड़ा भेंट
किया। मैंने काफी ना-नुकुर के बाद इन्हें स्वीकार किया। वित्त मंत्री ने उन्हें ले
लेने की काफी विनती की। उन्होंने यहाँ तक कहा कि अगर मैंने इन्हें स्वीकार न किया
तो इससे रानी के मन को चोट पहुँचेगी। रानी ने एक स्थानीय हिंदू व्यक्ति द्वारा
बनाया अपना एक चित्र भी मुझे भेंट किया।
झाँसी राज्य का अधिकार रानी को दोबारा नहीं दिया गया।
हम जानते हैं कि बाद में उन्होंने परम क्रूर व्यक्ति नाना साहब, जिनके ‘कष्ट’
उनसे मिलते-जुलते थे, के साथ विद्रोह कर दिया था। सरकार ने नाना साहब को पेशवा के
गोद लिए बेटे और उत्तराधिकारी के तौर पर मान्यता नहीं दी थी, जबकि झाँसी की रानी
दिवंगत राजा के गोद लिए बेटे की अवयस्कता के दौरान उसकी संरक्षक-शासक के तौर पर
मान्यता चाहती थीं।
*झाँसी
के जोखनबाग में 7 जून 1857 को हुई इस घटना में 60 अंग्रेज स्त्री-पुरुष मारे गए
थे। यह कृत्य बंगाल इन्फेन्ट्री की विद्रोही टुकड़ी ने उसके एक कमांडर काला खान के
कहने पर किया था। अंग्रेजों के आधिपत्य वाले किले में फँसे गोरे लोगों को रानी
लक्ष्मीबाई से मदद की उम्मीद थी, जो वे उन्हें मुहैया नहीं करा पाईं। इसका कारण यह
था कि वे खुद असहाय स्थिति में थीं।
** रानी
के पति गंगाधर राव के भाई और उनके ठीक पहले राजा रहे रघुनाथ राव तृतीय
*** प्रायः
रानी का जन्म 1835 और उस लिहाज से उनकी मृत्यु 23 साल की उम्र में मानी जाती है।
पर कुछ शोधकर्ताओं के मुताबिक उनका जन्म 1828 का होना चाहिए। इसका एक प्रमाण ब्रिटिश
लाइब्रेरी में सुरक्षित झाँसी के खजाने से गंगाधर राव की शादी के लिए किए गए 40
हजार रुपए के भुगतान की एक प्रविष्टि का दस्तावेज है। वैसे में क्या लक्ष्मीबाई की
गंगाधर राव से सिर्फ सात साल की उम्र में शादी हो जाना व्यवहार्य माना जा सकता है? अगर
वैसा था भी, तो वे अपने से उम्र में 15 साल ज्यादा ठहरने वाले नाना साहब के साथ
बिठूर में ‘बरछी,
ढाल, कृपाण, कटारी’
से कब खेलीं?
It's a captivating piece presenting the original alongwith the presenter's view and comment. The presenter Mr. Sangam Pandey as he appeared to me in a journey account of Bithur has the requisite bearing, approach and insight of a historian. The piece at hand is no history writing; it can be labelled as sth. by a historian.It entertained as also enlightened me to such great degrees.
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