देश में बदलाव के लिए छह सुझाव
1991 के बाद बनी
अर्थव्यवस्था बड़ी पूँजी की फूँक से फुलाई हुई अर्थव्यवस्था है। किसी भी
अर्थव्यवस्था की जाँच का वास्तविक तरीका उसके सबसे गरीब लोग होते हैं। लेकिन इस
फुलाई हुई अर्थव्यवस्था ने सिद्धांततः गरीबी को अप्रासंगिक और व्यवहारतः उसे
ज्यादा दयनीय बनाया है। सबसे गरीब आदमी फटीचर यूनीफॉर्म पहने दफ्तरों और
सोसाइटियों के बाहर गार्डगीरी करता दिखता है और दिन के बारह घंटे नौकरी में गिरवी
रखने के बाद उतना गरीब मालूम नहीं देता;
जबकि उसकी जिंदगी पहले की तुलना में बहुत कम उसकी अपनी है। भौतिक रूप से पुराने
फुटपाथ के दिनों से उसकी हालत जितनी बेहतर हुई है उसकी तुलना में ऊपर वाले लोगों
की हालत उनकी वर्गीय हस्तियों के हिसाब से कई-कई गुना ज्यादा बेहतर होती गई है—इसलिए
अंततः उसकी स्थिति ज्यादा हीन ही हुई है। इसे संक्षेप में कहें तो वैश्वीकरण का
फायदा उठाकर भारतीय राज्य-व्यवस्था ने यहाँ की प्रिय सामाजिक प्रवृत्ति ‘हाइरारकी’ (ऊँच-नीच) को एक आर्थिक दिशा देकर उच्चतम अवस्था में
पहुँचा दिया है। ऐसा विश्वपूँजी को छुट्टा छोड़ने और अपने तईं मुद्रास्फीति को
बढ़ावा देने से हुआ है। विश्व पूँजी ‘गैरजरूरी’ उत्पाद बनाती है और लोगों के पास
मुद्रा का इजाफा उन्हें इन गैरजरूरी चीजों का ग्राहक बनाता है। भारत के दीन यथार्थ
में कार से लेकर डियो तक जैसी चीजें अगर इसी क्रम में ‘आवश्यक’
होती गईं, तो इसका कारण सरकारी प्रयत्नों से तैयार की गई एक कृत्रिम अमीरी थी। 1996
में लागू की गईं पाँचवें वेतन आयोग की बंपर सिफारिशें ऐसा पहला बड़ा प्रयत्न और
देश के निचले तबके के लोगों के साथ की गई एक विलक्षण गद्दारी थी। जनता के टैक्स का
पैसा एक तबके को उपभोक्ता बनाने के लिए खर्च किया जाने लगा। ऐसा वेतन जिसके लिए
उत्पादकता का कोई लक्ष्य न हो एक कृत्रिम और अर्थव्यवस्था-घातक अमीरी रचता है, और
अंततः सामाजिक ताने-बाने को भी नकली बना देता है, जिसकी असंख्य मिसालें हम आज देख
सकते हैं। सन 1996-97 तक जिस मद में सरकारी कोष से 21,885 करोड़ खर्च होता था,
1999 में निन्यानबे फीसद बढ़कर 43,568 करोड़ हो गया। यह इतना खतरनाक कदम था कि
विश्व बैंक ने इसे देश और यहाँ के सार्वजनिक वित्त के लिए ‘अकेला सबसे बड़ा घातक झटका’ कहकर भर्त्सना की थी। लेकिन हमारे
अनोखे देश की सरकारें कोई आत्मालोचना करने के बजाय सरकारी कर्मचारियों के अगले
वेतन निर्धारणों में भी यह ज्यादती करती रहीं, और इस तरह एक ऐसी अर्थव्यवस्था आकार
लेती रही जिसने पूरी दुनिया को ताज्जुब में डाल दिया कि ग्रोथ रेट ठीकठाक होने के
बावजूद यहाँ गरीबी क्यों नहीं घट रही।
गरीबी
इसलिए नहीं घट रही क्योंकि पूरा ‘विकास’ बिना उत्पादकता के अमीर बनाने और
फिर इन अमीरों के जरिए एक नकलची अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को बढाने की संभावना पर
टिका है। यानी एक वस्तुस्थिति-निरपेक्ष मुनाफा शेयर बाजार के सूचकांक को तय करता
है। यह महानगरमुखापेक्षी छद्म अर्थव्यवस्था है, जिसने कालांतर में ऐसा तंत्र
विकसित कर लिया है कि वास्तविक उत्पादन न करने वाली पूँजी निरंतर बड़ी होती गई है।
मसलन आज देश में विज्ञापन उद्योग लगभग 52 हजार करोड़ रुपए का हो गया है। जरा इस
उद्योग के फूले पेट की तुलना वास्तविक उत्पादन करने वाले कृषि क्षेत्र से करें—जहाँ
हर साल सैकड़ों की तादाद में किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
ऐसा
ढाँचा है कि कुछ लोग भयानक रूप से शोषित और कुछ लोग सिर्फ मौज करने के लिए पैदा हुए
हैं। याद करें पिछले दो दशकों को, जब एक देश में जहाँ सात सौ ग्राम चावल या 2200 कैलोरी प्रतिदिन
की उपलब्धता पर गरीबी रेखा का निर्धारण था उस देश में बेइंतहा कारें उतार दी गईं,
जगह कम पड़ने लगी तो नई-नई सड़कें और फ्लाईओवर बनाए गए; टेलीविजन,
एयरकंडीशनर, फ्रिज वगैरह की खपत बनी रहे इसके लिए बिजली की उपलब्धता बढ़ाई गई। अमीरों
को गुणवत्ता मुहैया कराने के लिए अमेरिकी नकल पर हर चीज की पैकेजिंग कर दी गई। और
विकास की इस पूरी प्रक्रिया में गाँव और गरीब कहीं नहीं थे। उनके लिए एक ही विकल्प
था कि थोड़े-बहुत लाभ रिस-रिस कर उन तक भी पहुँच जाएँ। कुछ मूर्ख लोगों ने इसे
कृषि युग के पिछड़ेपन से औद्योगिक युग के अगड़ेपन की ओर का अगला चरण माना।
यहीं
सवाल खड़ा होता है कि क्या हम सिविल समाज हैं? एक
व्यवस्था है जो अपने अधिसंख्य नागरिकों के जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूरा किए
बगैर अन्य के लिए विलासिता के सामान का बंदोबस्त करने में जुटी है और समाज को इन
बेडौल नीतियों से कोई फर्क नहीं पड़ता। आखिर ये कैसा समाज है! ऐसा नहीं है कि इस तरह बनाई गई
व्यवस्था के विरोधाभास कोई छुपी हुई चीज हैं। जिस तरह सरकारी राजस्व से
उपभोक्तावाद का सूत्रपात किया गया उसी तरह अब मनरेगा जैसी योजना के जरिए कृत्रिम
तरह से ग्रामीण रोजगार सृजित किए जा रहे हैं। क्या मनरेगा का पैबंद उदारवादी
अर्थव्यवस्था के हमारे मॉडल की नाकामी का ही एक सबूत नहीं है।
वैश्वीकरण
ने भारतीय अर्थव्यवस्था को जो गति दी थी उसे यहाँ की बेढंगी सरकारी नीतियों और
भ्रष्टाचार ने बेडौल परिणामों की ओर मोड़ दिया। जो लोग इस बात से खुश नजर आते हैं
कि उदार अर्थव्यवस्था के कारण ही गरीब के पैर में चप्पल नजर आने लगी थी वे यह बात
भूल जाते हैं कि उदारीकरण ने दुनिया के तमाम देशों में भौतिक विकास के बहुत अच्छे
परिणाम दिए हैं, जिनके मुकाबले ये चप्पल-विकास कुछ भी नहीं। और उदारीकरण ने
दुनियाभर में जो समस्याएँ दी हैं उन समस्याओं को जटिल से जटिलतम की ओर ले जाने के
मामले में हम नंबर एक पर हैं। यह एक निरंकुश उत्पादन के जरिए लागू की गई विकास की नीति
थी, जिसका परिणाम था कि आबादी बढ़ रही है, कारें बढ़ रही हैं, कूड़ा बढ़ रहा है,
शोर बढ़ रहा है, असमानता बढ़ रही है—जिनको मिलाकर अंततः एक दारुण यथार्थ निरंतर और
अराजक होता जा रहा है।
पाँचवें
वेतन आयोग ने गैरआनुपातिक ढंग से सरकारी कर्मचारियों का वेतन बढ़ाते हुए यह लक्ष्य
भी निर्धारित किया था कि आने वाले दिनों में सरकार का आकार घटाया जाएगा। लेकिन सन
2010 के आँकड़ों के मुताबिक बीस साल के उदारीकरण के बावजूद सरकारी क्षेत्र की
नौकरियाँ निजी क्षेत्र से 1 के मुकाबले 1.8 के अनुपात में बहुत ज्यादा थीं। 2010
में ये पौने दो करोड़ कर्मचारी करीब दस करोड़ का उपभोक्ता वर्ग बना रहे थे। छठे
वेतन आयोग की सिफारिशों तक देश की औसत प्रति व्यक्ति आमदनी के मुकाबले सरकारी वेतन
1 के मुकाबले 4.8 था;
जो कि विकसित देशों में पाए जाने वाले 1.2 या 1.4 के अनुपात से बहुत ज्यादा था।
उसके बाद सातवाँ वेतन आयोग भी लागू कर दिया गया है। लेकिन इससे भी ज्यादा
महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि देश का 94 फीसदी श्रमिक असंगठित क्षेत्र में काम करता
है, जिसके आर्थिक या मानवीय अधिकारों की किसी भी स्तर पर कोई फिक्र नहीं की जा
रही।
कैसी
अजीब बात है कि एक ओर थॉमस पिकेटी जैसा अर्थशास्त्री वैश्वीकरण के बाद वित्तीय
पूँजी के बढ़ते संकेंद्रण को लोकतंत्र के लिए संहारक बताते हुए सत्तर फीसद टैक्स
तक के सरकारी दखल की जरूरत बताता है, वहीं भारत जैसे देश में सरकारें इसी पूँजी को
संकेंद्रित करने की एजेंसी बनी हुई हैं; जिसे
भ्रष्टाचार और नकली करेंसी आदि ने और भी व्यापक बना दिया है। ऐसे में सरकार द्वारा
नोटबंदी नीचे के आम लोगों के लिए एक फायदेमंद कदम साबित हो सकता है। हालाँकि ये
अकेला कोई पर्याप्त कदम नहीं है। जरूरत सिर्फ काले धन पर ही नकेल लगाने की नहीं
है, बल्कि स्वयं सरकार द्वारा प्रश्रित आर्थिक फासले को भी कम करने की है। सरकार
को चाहिए कि अर्थव्यवस्था को असल उत्पादकता और वास्तविक उत्पादन से जोड़े। जैसे कि
भारत जैसे देश में टेलीविजन इंडस्ट्री का इतना बड़ा हो जाना अर्थव्यवस्था के
बेडौलपन को ही साबित करता है। भारत को इन सब मामलों में अमेरिका की नकल नहीं करनी
चाहिए, और सबसे पहले सभी नागरिकों की समावेशिता वाले इन्फ्रास्ट्रक्चर पर काम करना
चाहिए। ये नहीं कि कभी एक हिस्से में सूखा पड़ रहा है, कभी दूसरे हिस्से में बाढ़
आ रही है, और देश की डेढ़ फीसद जनता दिल्ली में अरबों रुपए से बनी अत्याधुनिक
मेट्रो ट्रेन में सफर कर रही है।
नोटबंदी
के साथ-साथ सरकार को कुछ और कदम भी शीघ्र उठाने चाहिए, जो इस प्रकार हैं-
1. 1- सरकार को एक नया वेतन आयोग गठित
करना चाहिए, जिसमें एक कर्मचारी का कुल वेतन 15000 से एक लाख की अधिकतम सीमा के
दरम्यान हो।
2- कारों को हतोत्साहित किया जाना
चाहिए। इसके लिए कई सौ गुना टैक्स लगाकर कारों को महँगा करने के साथ-साथ यह बंदिश
भी हो कि कार वही खरीद सकता है जिसके पास पार्किंग स्पेस हो। कार अर्थतंत्र और
पर्यावरण के लिए ही नहीं, भारत जैसे ज्यादा आबादी वाले देश में विचरण के सार्वजनिक
स्पेस को घेरने के लिहाज से भी नुकसानदेह है।
5 3- न्यूनतम वेतन कानून को कार्यावधि
के साथ नत्थी करके सख्ती से लागू किया जाए। इससे अर्थव्यवस्था का लाभ नीचे तक
पहुँच पाएगा, और कीमतों का सही निर्धारण हो सकेगा।
4- स्कूलों में बिल्कुल प्रारंभिक
स्तर से इस तरह की शिक्षा दी जाए कि लोग खुद की ही तरह दूसरे के अस्तित्व को भी
स्वीकार करें। शिशु अवस्था से शामिल करने पर ये चीज एक संस्कार के रूप में सामाजिक
ढाँचे को मजबूत करने वाली होगी। सामाजिकता का अंतर्भूत इलहाम व्यक्ति के स्वार्थ
और उसी क्रम में भ्रष्टाचार को कम करेगा। इसे दूसरे शब्दों में इस तरह कहा जा सकता
है कि खुद की और दूसरों की वैयक्तिकता का संज्ञान सामाजिकता का मूलाधार है।
हिंदुओं के भाववादी समाज में इसकी कमी होने से इस ओर विशेष तवज्जो दी जानी आवश्यक
है।
5- लोगों में अपने काम को ठीक से करने
की आदत का विकास करने के उपक्रम किए जाएँ। यह आदत कालांतर में अन्वेषी वृत्ति का
कारण बनती है, और अर्थव्यवस्था के तीव्र विकास का आधार बनती है।
6. 6- कृषि को अर्थव्यवस्था का सर्वाधिक
प्राथमिकता वाला क्षेत्र घोषित करके इसे लाभकारी बनाने के उपाय किए जाएँ, जिसके
लिए कुछ सुझाव निम्न हो सकते हैं—(क). मदर डेयरी और अमूल डेयरी की तर्ज पर कृषि को
समर्पित कुछ ऐसे कोऑपरेटिव बनाए जाएँ जो किसानों से किराए पर जमीन लेकर उनसे ही
वहाँ कर्मचारी के रूप में खेती कराएँ। बड़े स्तर पर और आधुनिकतम उपकरणों से खेती
का एक मॉडल प्रस्तुत किया जाए। (ख) किसी भी कृषि उत्पाद की अंतिम कीमत में किसान
का सर्वाधिक फीसद सुनिश्चित किया जाना चाहिए। (ग) सच्चाई तो यह है कि मध्यवर्ग की
गैरआनुपातिक भारीभरकम तन्ख्वाहों को संतुलित किए बगैर किसानों को लाभ देने में
हमेशा ही मुश्किल आएगी। इसलिए सबसे पहले उसी दिशा में काम किया जाना चाहिए।
बहुत ही उम्दा आलेख संगम जी। आपके सुझावों से सहमत हूँ। कृषि क्षेत्र में बहुत अधिक परिवर्तन की आवश्यकता है। खेती लाभप्रद हो और गाँवों में लोग रहें, इसके जतन हों। सरकारी अमले को रहने के लिए आवास हों, अच्छी स्कूलें हों, अच्छे अस्पताल हों, सड़कें हों, आदि आदि। आभार।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद योगेश जी। पूरी अर्थव्यवस्था बहुत गहरे अंतर्विरोधों से ग्रसित है। चीजों को सुधारने के क्रम में नोटबंदी तभी एक उपयोगी उपाय हो सकता है जबकि उन अंतर्विरोधों को भी खत्म किया जाए। और इन अंतर्विरोधों को कम करने का अर्थ है शहरी मध्यवर्ग के सरप्लस से छुटकारा पाना।
हटाएंमुझे क्रमांक 4 व 6 आधारभूत सुझाव समझ आते हैं भारतीय व्यवस्था में। आज किसान सबसे कमजोर कड़ी की तरह रखा जा रहा है और साथ ही साथ उसे निकम्मा बनाने के कुचक्र भी मौजूद हैं। भारतीय व्यवस्था मजबूत किसान और उत्कृष्ट विद्यालयीन शिक्षा के बगैर जितनी चरमरा चुकी है उससे समाज को स्वयं ही जागृति प्राप्त कर लेने की आवश्यकता है। जिस युवा वर्ग को राजनैतिक तंत्र स्वप्न दिखा कर बरगला रहा है उसका अधिकांश अपने देश की थाती से बखूबी परिचित तक नहीं है। उसे इस शिक्षा कीआवश्यकता है। आपका आलेख कई मायनों में महत्वपूर्ण है।
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