सियारों की छवियाँ

एक गांव में एक बूढ़ा आदमी अपनी बुढ़िया के साथ रहता था। दोनों खेत में बीज बोने गए, तभी उन्हें दो चालाक सियार मिले। एक सियार ने उनसे कहा कि उसने काफी कृषि विज्ञान पढ़ रखा है और अगर उन्हें अच्छी फसल चाहिए तो उन्हें बीज को उबाल कर बोना चाहिए। बूढ़े ने ऐसा ही किया। उधर रात को दोनों सियार अपने साथियों के साथ आए और सबने खेत पर उबले हुए बीजों की जमकर दावत उड़ाई। सुबह बूढ़े दंपती को जब हकीकत मालूम हुई तो सियारों को सबक सिखाने के लिए उन्होंने भी एक चाल चली। बुढ़िया जोर-जोर से रोने लगी कि बूढ़ा मर गया है। आवाज सुनकर सब सियार वहां जमा हो गए। और तब बूढ़े ने अपनी लाठी से जमकर उनकी पिटाई की। आखिरकार परस्पर बदले की इस भावना को समाप्त करने का एक रास्ता निकलता है। 

यह कहानी है उत्तरी त्रिपुरा के धर्मनगर के 'कथा चित्र' ग्रुप की प्रस्तुति 'चुप कथा ना' की, जिसका मंचन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा आयोजित उत्तरपूर्वी राज्यों की बाल प्रस्तुतियों के समारोह के अंतर्गत श्रीराम सेंटर में सोमवार 20 दिसंबर को किया गया। करीब एक घंटे की इस प्रस्तुति में मंच पर सात-आठ साल से 14-15 साल की उम्र तक के लगभग 32 बाल अभिनेता मौजूद थे। युवा निर्देशक मनोज साइकिया को पता है कि बच्चों की प्रस्तुति में मंच पर छवियां कैसे निर्मित की जाती हैं। पात्रों की (बांग्ला) भाषा समझ न आने के बावजूद प्रेक्षागृह में बैठे बच्चों ने इन्हीं छवियों के सहारे प्रस्तुति का भरपूर मजा लिया। सिर पर सियार का मुखौटा, कमर में सन के रेशों की पूंछ और मुंह पर खींची गईं काले रंग की मूंछों जैसी लकीरें- सियार का यह कुल मेकअप था। कुछ ज्यादा धूर्त सियार काले रंग का ऐनक लगाए थे और इनका मुखिया लाल रंग की टाई पहने था। वो लगातार अपनी गर्दन को घुमाते-फिराते हुए पूरे चौकन्नेपन से किसी भी संदिग्ध हालात की थाह लेता है। उनकी देहभाषा से यह भी जाहिर होता है कि सियार मूलतः डरपोक प्राणी है। बूढ़े-बुढ़िया के पास इनका मुकाबला करने के लिए तीन कुत्ते हैं। इन जांबाज कुत्तों की भूमिका में तीन काफी नन्हे बच्चे थे। एक छोर से जब वे मंच पर आते हैं तो सियारों में खलबली मच जाती है। उनके आते ही स्पीकर पर भूं-भूं का स्वर गूंजने लगता है। सियार इतने धूर्त हैं कि दावत उड़ाने के बाद चिढ़ाने के लिए एक किलकारी के जरिए अपनी उद्दंडता को भी जाहिर करते हैं। लेकिन बूढ़े से पिटाई खाने के बाद कोई अपना सिर पकड़े है, कोई बाजू, कोई पैर। एक सियार हर समय समय ट्रांजिस्टर लिए रहता है। बूढे की पिटाई के दौरान वो अंदर के कमरे में कहीं छुप गया है, लेकिन ट्रांजिस्टर की आवाज से पकड़ा जाता है। इसी तरह मुखिया सियार का बच्चा बोतल से दूध पीता है और कृषि विज्ञानी होने का दावा कर रहा सियार मोटी किताब पढ़ने का स्वांग करते हुए बूढ़े से झूठ बोलता है। 

सियारों के अलावा बूढ़े बुढ़िया की अपनी दुनिया की भी कुछ छवियां हैं। बूढ़ा कान लगाकर आंख फैलाकर सियारों की आवाज सुनता है। बुढ़िया अपनी बेटी के यहां जाती है तो मिलने पर पहले दोनों रोती हैं। बेटी की दो बेटियां हैं, और एक शिशु कपड़े के झूले में झूल रहा है। दोनों लड़कियों में किसी बात पर झगड़ा होता है, छोटी लड़की स्पष्टतः ही ज्यादा जिद्दी दिखाई देती है। बुढ़िया खाना खाने के पहले और बाद में कुल्ला करने के लिए मुंह में पानी भरकर जोर से गुलगुलगुल करती है। मां-बेटी बैठकर बात कर रही हैं तभी कीड़ा या चूहा जैसा कुछ 'दिखने' पर मां हड़बड़ाकर उसे 'भगाती' है। दोनों लड़कियां नानी के पैर छूने में शायद स्थानीय परंपरा के मुताबिक बिल्कुल लेट जैसी जाती हैं।

प्रस्तुति में अनगढ़पन बिल्कुल भी नहीं था और बच्चों की टाइमिंग, दृश्य और चरित्र का उनका बोध बहुत ही अच्छा था। वहीं सब कुछ इतना सहज भी था कि अभिनय वगैरह में कहीं कोई गढ़न दिखाई नहीं देती। प्रस्तुति में इतने बच्चे होने के बावजूद मंच पर कभी भी चीजें ठूंसी हुई नहीं लगतीं, और पूरी प्रस्तुति के दौरान रोचकता और सहजता बनी रहती है। मंच पर दृश्य सज्जा के नाम पर प्रायः कुछ भी नहीं था, लेकिन जंगल के दृश्य को दर्शाने के लिए हरी साड़ी में एक लड़की नीम की कुछ डालियां लिए लगातार खड़ी रहती है। (एक पुरानी समीक्षा)       

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