भारत रंग महोत्सव : एक जायज़ा

यह भारत रंग महोत्सव का अठाहरवाँ साल था। सन 1999 में संस्कृति मंत्रालय की एक ग्रांट को उसी वित्तीय वर्ष में तुरत-फुरत खर्च करने के अभिप्राय से शुरू हुआ यह महोत्सव अब भारतीय रंगमंच की एक केंद्रीय परिघटना बन चुका है। 1999 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक रामगोपाल बजाज थे। बजाज उन लोगों में थे जो नाट्य विद्यालय में सत्ता की उठापटक के पिछले कई दशकों से गहरे जानकार और भागीदार थे। वे विद्यालय में रंगमंडल प्रमुख इत्यादि पदों से होते हुए निदेशक बने थे और रंगमंच की राष्ट्रव्यापी अन्य लघु-सत्ताएँ भी उनका रुआब मानती थीं। इसी आत्मविश्वास में उन्होंने यह बीड़ा उठाया और सिर्फ दो महीने के भीतर भारंगम का आयोजन कर दिखाया। उस भारंगम में गौतम हाल्दार की एकल प्रस्तुतिमेघनादेर बध काव्य, रतन थियम निर्देशित अज्ञेय का नाटक उत्तरप्रियदर्शी, सतीश आनंद निर्देशित मुद्राराक्षस का नाटक डाकू, खुद रामगोपाल बजाज निर्देशित कृष्ण बलदेव का नाटक भूख आग है की बहुत अच्छी प्रस्तुतियाँ बहुत से दर्शकों को आज तक याद होंगी। ये ज्यादातर प्रस्तुतियाँ तब नवनिर्मित अभिमंच प्रेक्षागृह में ही मंचित की गई थीं, जिसे भी बजाज ने ही बनवाया था। उन्हीं के कार्यकाल में सम्मुख, बहुमुख, विकृष्टमध्यम इत्यादि अन्य छोटे-मुक्ताकाशी मंच भी रानावि परिसर में अस्तित्व में आए। इस लिहाज से रामगोपाल बजाज के कार्यकाल में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय एक निरे शिक्षण संस्थान के केंचुल से बाहर आकर रंगमंच की सार्वजनिकता का और रंगप्रेमियों की उत्सुकता का केंद्र बना। उनके ही दौर में विद्यालय ने अपना प्रकाशन कार्यक्रम और पत्रिका रंग प्रसंग की शुरुआत की। आरंभिक वर्षों में भारत रंग महोत्सव के लिए प्रस्तुतियों के चयन को लेकर बहुत विवाद नहीं उठे। कारण शायद यह था कि ये अभी शक्ल लेने के ही वर्ष थे। फिर प्रायः प्रस्तुतियों का स्तर भी तब तक ठीकठाक ही था। उन वर्षों का एक दस्तूर बाद में खत्म कर दिया गया, वह था महोत्सव के अंतिम रोज सभी आगंतुकों के लिए मुफ्त जलपान का प्रबंध।
शुरुआती वर्षों में भारंगम में देश के श्रेष्ठ रंगकर्म को शामिल करने का एक उत्साह था, जिस कारण बहुत सा यहाँ-वहाँ हो रहे अच्छे नाटक एक जगह देखने को मिले। तब से लेकर आज तक माया राव से लेकर प्रवीण गुंजन तक कई रंगकर्मी हैं जिनकी प्रतिभा को भारंगम के कारण अलग से एक पहचान मिली। बहुमुख जैसे छोटे प्रेक्षागृह को प्रायः एकल प्रस्तुतियों के लिए मुकर्रर किये जाने से एकल प्रस्तुति शुरू से ही भारत रंग महोत्सव का एक खास फीचर रही। चूँकि दर्शकों की कमी इसमें कभी नहीं थी इसलिए तरह-तरह के प्रयोगों को देखने वाले हमेशा ही अच्छी तादाद में उपलब्ध थे। इससे पहले इस तरह के जिस एक बड़े उत्सव को याद किया जाता है वह 1989 में नेहरू जन्मशताब्दी के मौके पर संगीत नाटक अकादेमी द्वारा आयोजित नाट्योत्सव था। लेकिन उस नाट्योत्सव में श्यामानंद जालान और सत्यदेव दुबे से लेकर उत्पल दत्त तक देशभर का श्रेष्ठ रंगकर्म मौजूद होने के बावजूद तरह-तरह के प्रयोगशील कामों को कोई जगह नहीं दी गई थी। भारंगम इस अर्थ में कालांतर में शिवजी की बारात बना। उसमें देशभर में चल रहे तरह-तरह के रंगमंच के नुमाइंदे आगे-पीछे जगह पाते रहे।
शुरुआती वर्षों से लेकर आज तक जो आरोप भारंगम पर सबसे ज्यादा लगाया जाता है वह है अपनों को रेवड़ियाँ बाँटने का। लेकिन सच पूछा जाए तो आधी वास्तविकता और आधे अनुमानों पर टिका यह आरोप जिस मूल दुष्प्रवृत्ति को इंगित करता है वह यह कि भारंगम ने भारतीय रंगमंच में अपना ही एक वर्गभेद बनाया है। यूँ तो सरकारी पैसा योग्यता के टकसाली पैमानों की मनमुताबिक व्याख्याओं के कारण फितरतन कई तरह की ऊँच-नीच पैदा करता है, किंतु भारंगम के संदर्भ में हर रानावि निदेशक का स्वभाव और रंग-ढंग इसमें एक अलहदा लक्षण के रूप में नत्थी रहता रहा है। ऐसी मान्यता है कि अनुराधा कपूर के निदेशकत्व के दौरान भारंगम विशिष्टतावाद की प्रवृत्ति की कुछ ज्यादा ही चपेट में था। उन दिनों प्रेस कान्फ्रेंस से लेकर मुद्रित सामग्री और उद्घाटन वक्तव्य तक अंग्रेजी का कुछ ज्यादा ही बोलबाला था, और यहाँ तक कि भारत रंग महोत्सव का नाम भी बदलकर थिएटर उत्सव कर दिया गया था। हालाँकि बहुत से लोगों का मानना है कि इस विशिष्टतावाद में अनुराधा कपूर से ज्यादा रुचि रानावि की तत्कालीन चेयरपर्सन अमाल अल्लाना की थी। उस दौर की एक प्रमुख प्रवृत्ति उत्सव में प्रयोगों का बढ़ जाना थी। जो भी हो, थिएटर के विशिष्टों को रानावि की सत्ता बदलने से कोई खास फर्क पड़ता हो ऐसा नहीं दिखता। नांदिकार का सेनगुप्ता परिवार, नीलम मानसिंह चौधरी, पाकिस्तान की मदीहा गौहर आदि इस तबके के कुछ चर्चित नाम रहे हैं, जिनकी नाट्य प्रस्तुतियों के अलावा सेमिनारों वगैरह में भी उनकी भागीदारी एक अपेक्षित सा तथ्य रहा है। वक्त के अनुसार नए-नए नाम इन विशिष्टों में जुड़ते रहते हैं।
अगर भारंगम न होता तो दर्शकों के लिए विदेशी नाट्य प्रस्तुतियाँ भी न होतीं। पिछले डेढ़ दशकों में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से आए नाटक भारंगम में मंचित हुए हैं। इनकी मार्फत अलग-अलग व्याकरणों और संवेदना-रूपों को लोगों ने जाना है। यूरोपीय नाटक हमेशा बन गए ढाँचे को तोड़ने की कोशिश में रहते हैं। एशियाई नाटक किसी भी देश का हो भारतीय जैसा ही लगता है। यूरोपीय नाटक को कहानी से सख्त परहेज है, लेकिन एशियाई का काम बगैर कहानी के हो ही नहीं सकता। चीनी नाटक मंच पर किसी भी तरह की अतिरिक्त आलंकारिकता से परहेज करते हैं, और उनका प्रयोग बात को कहने के तरीके को चुस्त बनाने में ही घटित होता है। जापानी नाटक यूरोप की तरह ढर्रे को तोड़ता है, पर नए किस्म के एब्सर्ड ढाँचे ढूँढ़ता है। अमेरिका का ब्रॉडवे भले ही पूरी दुनिया में कमर्शियल थिएटर का शीर्ष हो, लेकिन कमर्शियल से अलहदा वहाँ का थिएटर कभी कोई वैसा बड़ा प्रभाव नहीं छोड़ पाया जैसा कि उदाहरण के लिए सन 2012 में पोलिश प्रस्तुति 'इन द नेम ऑफ जैकुब स्जेला' का याद पड़ता है। प्रस्तुति में कोई कहानी नहीं हैलेकिन कहानी के सारे लक्षण हैं : रोना-बिसूरना, प्यार-झगड़ागुस्साकलहभावुकताआवेगवगैरह। प्रस्तुति बहुत सारी यथार्थ और एब्सर्ड स्थितियों को समेटे हुए है। इसमें आकस्मिकता भी है और ह्यूमर भी। जैकुब स्जेला उन्नीसवीं शताब्दी का किसान विद्रोही थाजिसने पड़ोसी देश आस्ट्रिया की मदद से पोलैंड के ताल्लुकेदारों के खिलाफ रक्तरंजित विद्रोह किया था। लेकिन जैसा कि शीर्षक से भी जाहिर है, प्रस्तुति का उसके किरदार से कोई लेना-देना नहीं है। यह उसके नाम के बहाने इंप्रेशनिज्म का एक प्रयोग थी। पूरे मंच पर 'बर्फफैली हुई है। बिजली या टेलीफोन के खंबे लगे हुए हैं। पीछे की ओर टूटे फर्नीचर वगैरह का कबाड़ पड़ा है। दाहिने सिरे पर एक कमरा है जो नीचे की ओर धंसा हुआ है। पात्र उसमें जाते ही किसी गहरे की ओर फिसलने लगते हैं। मंच के दाहिने हिस्से के फैलाव में पड़ा गाढ़े लाल रंग का परदा हैजो बर्फ की सफेदी में और ज्यादा सुर्ख लगता है। यह घर से ज्यादा घर के पिछवाड़े जैसी जगह है। बर्फ पर एक सोफा रखा हैऔर एक मेज। एक मौके पर एक पात्र बेहद तेजी से कुछ बोल रहा है। वहीं मौजूद लड़की गुस्से में दृश्य के पीछे की ओर जाकर एक मोटा डंडा उठा लाई हैऔर गुस्से में पूरे प्रेक्षागृह में घूम-घूम कर किसी को ढूंढ़ रही है। वह इतने गुस्से में है कि पास बैठे दर्शक थोड़ा सतर्क हो उठते हैं। लड़की के पीछे पीछे पुरुष पात्र भी चला आया है। वह दर्शकों से उनका पैसा मांग रहा है। कुछ दर्शक उसे कुछ नोट देते हैं। फिर वह वहां बैठे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छायाकार त्यागराजन से उनका कैमरा मांगता है। वे कैमरा नहीं देते तो कैमरे का स्टैंड लेकर वह मंच पर चला जाता है। इसके थोड़ी देर बाद गुस्से वाली लड़की आंसुओं से लबालब भरी आंखों के साथ कोई कहानी बता रही है।
पूरी दुनिया किसी तईँ एक सी भी है, और किसी तईँ बहुत अलग-अलग भी। पश्चिम की देहभाषा देह से बरी हो चुके समाज की भाषा है, जबकि पूरब के लिए देह आज भी सौंदर्य और कौतूहल का विषय है। भारंगम यह भी बताता रहा है कि पुराने ग्रीक किरदार और शेक्सपीयर के नाटक पूरी दुनिया में खेले जाते हैं, और यह भी कि भारत जैसे देश में कैसे परंपरा और लय का सतत अनुसंधान चला करता है। अभी दो साल पहले हुएकेएन पणिक्कर निर्देशित भारंगम की उदघाटन छाया शाकुंतल इसी तरह की थी। उसमें छोटी-छोटी स्थितियाँ देर-देर तक मंथर फैलाव में चलती रहती हैं। इस चाक्षुष यज्ञ’ में हाथों का लहराया जाना हैनेत्रों की चतुर-चपल-कारुणिक भंगिमाएँ हैंसखियों की मधुर ठिठोली और नायिका की सलज्ज मुद्राएं हैं;  रौद्र रस वाले दुर्वासा और विशाल दाढ़ी वाले कण्व ऋषि हैं। जिस तरह पश्चिम में पुराने ग्रीक नाटकों को पुनर्संयोजित करके चुस्त बनाया गया है वैसी कोई आवश्यकता अपने यहाँ महसूस नहीं की जाती। परंपरा यहाँ प्राचीनता को अक्षुण्णता में ही देखती है।
भारंगम थिएटर का एक बहुविध ठिकाना है। ऊपर उद्धृत चंद उदाहरणों से उसे पूरा नहीं जाना जा सकता। वह कितनी ही लोक शैलियों, कितने ही रंग प्रयोगों, कितने ही श्रेष्ठ और कितने ही श्रेष्ठ के नाम पर छद्म का एक सालाना जलसा है। उसके आयोजन में कई करोड़ की रकम खर्च होती है। यह रकम बहुतेरे लाभान्वितों और असंतुष्टों को पैदा करती है। साल दर साल यह महोत्सव क्रमशः बड़ा होता गया है। इस बार बीस दिन के फेस्टिवल में 80 नाटकों का मंचन किया गया। मंचित किए जाने वाले नाटकों के चयन की एक लंबी प्रक्रिया है, जो कई महीने चलती है और हमेशा ही पारदर्शिता के दावे और मनमानेपन की शिकायतों का कारण होती है। यह सही है कि निदेशकों की अपनी वरीयताएँ और स्वेच्छाचारिता होती है, लेकिन वहीं यह भी मुमकिन है कि बनाई गई चयन समिति का कोई सदस्य भाई-भतीजावाद करे, और उसका लांछन भी निदेशक को ढोना पड़े।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की अपनी एक नौकरशाही है। इस नौकरशाही के अपने श्रेष्ठता अनुक्रम हैं। फिर मनुष्योचित अहं और उनके टकराव हैं। उपलब्ध श्रेष्ठता से अधिक श्रेष्ठता अर्जित करने की चेष्टाएँ इत्यादि हैं। ये सब चीजें आपस में ही रहें तो गनीमत है, लेकिन भारंगम में ये कई बार दर्शकों पर भी भारी पड़ती रही हैं। शुरुआती वर्षों में नाटकों में दर्शकों के प्रवेश का फार्मूला ज्यादा मानवीय था-- टिकट और पास वाले दर्शकों को प्रवेश देने के बाद बिना टिकट वालों को भी प्रेक्षागृह की क्षमता भर प्रवेश दे दिया जाता था, कि वे जहाँ जगह मिले बैठ जाएँ। इस तरह स्टेज के आगे की जगह, कुर्सियों के बीच के रास्ते में हर जगह बैठे लोगों से खचाखच भरे प्रेक्षागृह उन दिनों आम बात थे। एक बार एक प्रस्तुति में तो निर्देशक ने दर्शकों को स्टेज के अगले हिस्से में भी बैठने की अनुमति दे दी थी। प्रत्यक्षदर्शी याद कर सकते हैं कि उस एकल प्रस्तुति में देर से आए केंद्रीय मंत्री वसंत साठे भी उसी तरह स्टेज के मुहाने पर बैठने को मजबूर हुए थे। दर्शकों को प्रवेश देने के इस तरीके की एक ही खामी थी कि देर से आए सीटधारकों को कई बार अपनी ही सीट नहीं मिल पाती थी। कालांतर में यह तरीका बाबूडम से पैदा हुए तरह-तरह के अनुशासनों की भेंट चढ़ गया। भीतर सीटें खाली पड़ी रहती हैं, बाहर दर्शकों को प्रवेश से रोक दिया जाता है। साहब लोगों के आदेश की तामील में कई बार सुरक्षाकर्मियों का व्यवहार दर्शकों को अपमानजनक भी महसूस होता रहा है। इन सब तौर तरीकों ने बहुत से दर्शकों में एक हिचक पैदा की है कि नाटक देखना इतना भी क्या जरूरी है!
ऐसे दर्शक जिन्हें प्रेक्षागृह में प्रवेश न मिला हो वे तस्वीरों की गैलरी देख सकते हैं या फूड कोर्ट में जाकर समय बिता सकते हैं, या थिएटर बाजार में टहल सकते हैं। औत्सविकता के ये ठीहे इधर के सालों में भारंगम में पैबस्त किए गए हैं। भारंगम धीरे-धीरे भव्य हुआ है। भारंगम ने ही सबसे पहले नाटक के कलाकारों को ट्रेन के एयरकंडीशन क्लास में सफर की इज्जत दी है। यहाँ के लिए नाटक चुने जाने का अर्थ सिर्फ मंचन ही नहीं होता, अगले रोज निर्देशक से मिलिए कार्यक्रम में दर्शकों के बीच नाटक पर चर्चा भी की जाती है। पिछले सत्रह साल में इस महोत्सव ने कितने ही दूरदराज के रंगकर्मियों को देश की राजधानी में अपनी कला के प्रदर्शन का मौका दिया है। ये महोत्सव न होता तो यह मौका उन्हें कहाँ मिलता!

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