रायपुर फिल्म फेस्टिवल में पाँच दिन
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पिछले दो साल से कथाकार-अभिनेता सुभाष मिश्रा निजी साधनों से इस फिल्म फेस्टिवल का आयोजन कर रहे हैं। इस बार उनके निमंत्रण पर 9 से 14 फरवरी तक पाँच दिन के लिए मैं भी वहाँ था। इस दौरान की कुछ बातें।
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'चोखेर पानी'
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बंगाल के नंदीग्राम में सन 2007-8 में जो कुछ हुआ था उसपर सन 2011 में एक फिल्म ‘चोखेर पानी’ बनाई गई थी। रायपुर फिल्म फेस्टिवल में इस फिल्म को देखना उस पूरे वाकये को मैग्नीफाइंग ग्लास से देखने की तरह था। राज्य सरकार नंदीग्राम में केमिकल हब बनाने के लिए जमीन अधिग्रहण करना चाहती थी। ग्रामीण इसके विरुद्ध थे। अमूमन ऐसी योजनाओं में मोटे मुआवजे का लालच विरोधों को तोड़ देता है, लेकिन नंदीग्राम में ऐसा नहीं हुआ। वहाँ एक योजनाबद्ध प्रतिरोध था, जिसने हर ईंट का जवाब पत्थर से दिया। एक ओर सीपीएम कार्यकर्ता और पुलिस, दूसरी ओर ‘भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति’। फिल्म इस प्रतिरोध में शामिल छोटे-छोटे बच्चों, घरेलू औरतों के जज्बे को दिखाती है, जिसे बहुतेरी मर्मांतक स्थितियों से होकर गुजरना था। स्थितियाँ कई बार इतनी तनावपूर्ण हैं कि किसी कोने में छिपा पति घर में बीवी के साथ हो रहे रेप को भी चुपचाप बर्दाश्त कर रहा है; फिर स्थिति पक्ष में आते ही वह भी एक आततायी को मार देता है। फिल्म एक पूरे माहौल को दिखाती है, जिसमें गाँव का एक फक्कड़ प्रतिरोध का गीत गाता फिरता है, और ‘तोमार नाम आमार नाम-- नंदीग्राम’ दोहराया है। विरोधी पक्ष के लोगों के गाँव में आने की सूचना मोबाइल पर मिलते ही पेड़ों से लटके बम किसी कोने से खींचे जाते हैं और एक धमाका बरपा होता है। सत्ता-पक्ष से हो रही लड़ाई की इस डिटेलिंग में जूझने के माद्दा और कौशल को बहुत अच्छी तरह दिखाया गया है। नंदीग्राम कह रहा है—हमें हमारी तरह जीने दो; और दूसरी ओर सरकार जो चाह रही है उसके मॉडल देश भर में बिखरे हैं और विकास के इस मॉडल ने देश को क्या दिया है यह उसे लागू करने ढाई दशक बाद यूँ भी काफी साफ दिखाई दे रहा है। फिल्म में गाँव और खेतों का लैंडस्केप जीवन जीने के एक ढंग को दिखाता है, जिसे केमिकल हब नष्ट कर देगा। फिल्म देखते हुए अनायास ही ‘सेवन समुराई’ की याद आती है।
फिल्म के निर्देशक सरफराज आलम रायपुर फेस्टिवल में आए हुए थे। वे मास्को में रहते हैं और अभी बिल्कुल युवा हैं। इतनी कसी हुई और यथार्थपूर्ण फिल्म के निर्देशक के रूप में उन्हें देखना एक क्षण को बेयकीनी और फिर खुशी देता है। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि फिल्म के अधिकांश अभिनेता नंदीग्राम के संघर्ष में जूझने वाले वास्तविक लोग ही हैं। इसकी पटकथा भी पूरे घटनाक्रम को बहुत नजदीक से देखने वाले माणिक मंडल ने लिखी है। अजीब बात है कि इस फिल्म को अब तक बहुत चर्चा हासिल नहीं हुई है।
फिल्म के निर्देशक सरफराज आलम रायपुर फेस्टिवल में आए हुए थे। वे मास्को में रहते हैं और अभी बिल्कुल युवा हैं। इतनी कसी हुई और यथार्थपूर्ण फिल्म के निर्देशक के रूप में उन्हें देखना एक क्षण को बेयकीनी और फिर खुशी देता है। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि फिल्म के अधिकांश अभिनेता नंदीग्राम के संघर्ष में जूझने वाले वास्तविक लोग ही हैं। इसकी पटकथा भी पूरे घटनाक्रम को बहुत नजदीक से देखने वाले माणिक मंडल ने लिखी है। अजीब बात है कि इस फिल्म को अब तक बहुत चर्चा हासिल नहीं हुई है।
'दास कैपिटल' की दुनिया
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रायपुर फेस्टिवल में दिखाई गई फिल्म ‘दास कैपिटल’ नाटक ‘उबू रोय’ जैसी दुनिया और पात्रों की कहानी है। इसमें एक किरदार है जो मुसीबतजदा लोगों को सस्ती शराब पिला-पिलाकर कंकाल बना देता है, और उनके मरने पर उनके कंकाल से कमाई कर लेता है। एक नेता का बिगड़ा बेटा बेमतलब ही किसी को गोली मार देता है, और केस को अपने पक्ष में करने के लिए खुद के हाथ पर भी गोली मार लेता है। दो बंदे सरकारी दफ्तर में पूरा का पूरा कमीशन खुद ही खा जाने की लड़ाई में भिड़े हुए हैं, फिर उनमें से एक दूसरे को इन्कम टैक्स वालों के झमेले में फँसाकर हथकड़ी डलवा देता है। फिल्म के दलित नायक की बीवी को अल्सर हुआ है, पर अस्पताल में बिस्तर नहीं है। सोर्स सिफारिश से बिस्तर मिलता है तो इलाज के लिए आई नर्स को एक गुंडा उठाकर ले जाता है। मर गई बीवी को फूँकने के पैसे भी न होने से यह गरीब उसकी लाश को बेचकर घर का काम चलाता है। उधर कंकाल से कमाई करने वाले को कंकाल का बेटा घर में बंद करके आग लगा देता है। शैवाल की कहानी पर यह फिल्म सिनेमेटोग्राफर राजन कोठारी ने 2011 में बनाई थी, लेकिन अगले ही साल उनका असामयिक निधन हो गया। ‘चोखेर पानी’ की तरह इस फिल्म को भी अभी तक सिनेमा की स्क्रीन मयस्सर नहीं हुई है। फिल्म में मुख्य भूमिका में यशपाल शर्मा हैं, जो रायपुर आए हुए थे। उन्होंने बताया कि यह बहुत सालों से राजन कोठारी के दिमाग में थी और वे कोशिशों में लगे हैं कि रिलीज हो पाए। फिल्म की अच्छी बात है कि इसमें इधर के अरसे में एक ट्रेंड की तरह पनप आए वैसे म्यूजिकल क्लीशे नहीं हैं जो किसी भी अच्छी-बुरी स्थिति को सूफियाना रंगत देने के बचकानेपन में ले जाते हैं। उसका यथार्थवाद काफी ठोस है। फेस्टिवल में इसके दो शो हुए। मैंने इसे भिलाई में देखा। बाद में रायपुर में ज्यादा लोगों के बीच इसे देखा गया।
सिनेमा हॉल के हालचाल
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रायपुर के श्याम टाकीज में एक हजार सीटें हैं। यहाँ हर रोज फेस्टिवल की फिल्में सिर्फ दस और बीस रुपए के रेट में चार शो में दिखाई जा रही थीं। सामान्य दिनों में टिकट का रेट 40 और 50 रुपए होता है। इस तरह के सिनेमाघर राज्य सरकार द्वारा दी गई छूटों के कारण ही बचे हुए हैं। 50 रुपए तक की टिकटों पर कोई टैक्स नहीं लिया जाता। और अगर फिल्म छत्तीसगढ़ी में हो तब तो हर तरह के रेट पर पूरी छूट है। इसीलिए यह सिनेमा अच्छे से फल-फूल रहा है। छत्तीसगढ़ी फिल्मों के सुपरस्टार सुनील तिवारी फेस्टिवल में मौजूद थे। उनकी एक फिल्म, जिसका नाम नोट नहीं कर पाया, मैंने यहीं टाकीज में देखी। फिल्म रोमांस, एक्शन, कॉमेडी, ट्रैजडी आदि रसों का खजाना थी। इंटरवल तक उजबक की तरह देखने के बाद मैंने बाहर आकर गन्ने का रस पिया। सिनेमा हॉल के मैनेजर ने बताया कि उनके यहाँ हाल के वर्षों में सबसे हिट फिल्म ‘किक’ रही, जो सौ दिन तक चली थी, और उसने एक सप्ताह में रिकॉर्ड साढ़े ग्यारह लाख की कमाई की थी, जबकि सामान्य तौर पर कमाई साढ़े चार-पाँच लाख के दरम्यान ही रहती है। फेस्टिवल के खत्म होने के अगले रोज यहाँ सुनील तिवारी की नई फिल्म ‘आटो वाले भाँटो’ की रिलीज थी। भाँटो यहाँ की भाषा में जीजा को कहते हैं।
विनोद कुमार शुक्ल के घर
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रायपुर में होने का लाभ उठाकर विनोद कुमार शुक्ल से मिलने गए। उनसे 'नौकर की कमीज' फिल्म पर बात होने लगी। उन्होंने बताया कि मणि कौल को हमेशा ऐसा लगता था कि उपन्यास का संतू बाबू मैं ही हूँ, इसीलिए उन्होंने संतू बाबू की पत्नी बनी अभिनेत्री को सप्ताह भर हमारे घर में मेरी पत्नी कैसे काम करती है वगैरह देखने के लिए रखा। उन्होंने बताया कि फिल्म के लिए तय की गई लोकेशन पर और सब तो ठीक था पर उपन्यास में वर्णित कटहल का पेड़ नहीं था, आम का पेड़ अलबत्ता जरूर था। लेकिन मणि कौल को लगता था कि उपन्यास के यथार्थ में कटहल के पेड़ को बदला नहीं जा सकता। विनोद जी मणि कौल की फिल्म और फिल्म मेकिंग के प्रशंसक मालूम दिए। मैंने जब फिल्म की आलोचना में कुछ कहा तो उन्होंने थोड़ा ऊबते हुए कहा कि वे अब नहीं हैं इसलिए उन्हें माफ कर दिया जाना चाहिए। उन्होंने बताया कि मणि कौल ‘दीवार में खिड़की..’ पर भी फिल्म बनाने वाले थे, पटकथा पर काम हो चुका था, लेकिन उससे पहले ही वो चले गए। ‘दीवार में खिड़की’ पर मोहन महर्षि के नाटक पर उन्होंने बड़ी मासूम सी राय जाहिर की कि ‘नाटक में कॉमेडी ज्यादा हो गई थी’--- जबकि वो यह भी कह सकते थे कि ‘उपन्यास का मिजाज ही वहाँ गायब था’। इस तरह हम चाय पीते हुए घंटे भर तक उनके यहाँ बैठे रहे। मुझे लगा कि विनोद जी चीजों को जिज्ञासा से उतना नहीं देखते जितना कि कौतूहल से देखते हैं। इसीलिए एक अदना सी स्थिति में भी इतना कुछ देखने को रहता है कि इस स्थिति पर वे एक पूरा उपन्यास लिख सकते हैं। उनका नया उपन्यास प्रकाशक के यहाँ छपने के इंतजार में है। उन्होंने बताया कि यह स्वतंत्र कहानियों से बना उपन्यास है। इस मुलाकात में मुलाकात के सूत्रधार राजेश गनोदवाले और प्रेरक शिवकेश मिश्र भी उपस्थित थे। उनके सवालों से उपरोक्त सहित कई पते की बातें हुईं।
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रायपुर फेस्टिवल में दिखाई गई फिल्म ‘दास कैपिटल’ नाटक ‘उबू रोय’ जैसी दुनिया और पात्रों की कहानी है। इसमें एक किरदार है जो मुसीबतजदा लोगों को सस्ती शराब पिला-पिलाकर कंकाल बना देता है, और उनके मरने पर उनके कंकाल से कमाई कर लेता है। एक नेता का बिगड़ा बेटा बेमतलब ही किसी को गोली मार देता है, और केस को अपने पक्ष में करने के लिए खुद के हाथ पर भी गोली मार लेता है। दो बंदे सरकारी दफ्तर में पूरा का पूरा कमीशन खुद ही खा जाने की लड़ाई में भिड़े हुए हैं, फिर उनमें से एक दूसरे को इन्कम टैक्स वालों के झमेले में फँसाकर हथकड़ी डलवा देता है। फिल्म के दलित नायक की बीवी को अल्सर हुआ है, पर अस्पताल में बिस्तर नहीं है। सोर्स सिफारिश से बिस्तर मिलता है तो इलाज के लिए आई नर्स को एक गुंडा उठाकर ले जाता है। मर गई बीवी को फूँकने के पैसे भी न होने से यह गरीब उसकी लाश को बेचकर घर का काम चलाता है। उधर कंकाल से कमाई करने वाले को कंकाल का बेटा घर में बंद करके आग लगा देता है। शैवाल की कहानी पर यह फिल्म सिनेमेटोग्राफर राजन कोठारी ने 2011 में बनाई थी, लेकिन अगले ही साल उनका असामयिक निधन हो गया। ‘चोखेर पानी’ की तरह इस फिल्म को भी अभी तक सिनेमा की स्क्रीन मयस्सर नहीं हुई है। फिल्म में मुख्य भूमिका में यशपाल शर्मा हैं, जो रायपुर आए हुए थे। उन्होंने बताया कि यह बहुत सालों से राजन कोठारी के दिमाग में थी और वे कोशिशों में लगे हैं कि रिलीज हो पाए। फिल्म की अच्छी बात है कि इसमें इधर के अरसे में एक ट्रेंड की तरह पनप आए वैसे म्यूजिकल क्लीशे नहीं हैं जो किसी भी अच्छी-बुरी स्थिति को सूफियाना रंगत देने के बचकानेपन में ले जाते हैं। उसका यथार्थवाद काफी ठोस है। फेस्टिवल में इसके दो शो हुए। मैंने इसे भिलाई में देखा। बाद में रायपुर में ज्यादा लोगों के बीच इसे देखा गया।
सिनेमा हॉल के हालचाल
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रायपुर के श्याम टाकीज में एक हजार सीटें हैं। यहाँ हर रोज फेस्टिवल की फिल्में सिर्फ दस और बीस रुपए के रेट में चार शो में दिखाई जा रही थीं। सामान्य दिनों में टिकट का रेट 40 और 50 रुपए होता है। इस तरह के सिनेमाघर राज्य सरकार द्वारा दी गई छूटों के कारण ही बचे हुए हैं। 50 रुपए तक की टिकटों पर कोई टैक्स नहीं लिया जाता। और अगर फिल्म छत्तीसगढ़ी में हो तब तो हर तरह के रेट पर पूरी छूट है। इसीलिए यह सिनेमा अच्छे से फल-फूल रहा है। छत्तीसगढ़ी फिल्मों के सुपरस्टार सुनील तिवारी फेस्टिवल में मौजूद थे। उनकी एक फिल्म, जिसका नाम नोट नहीं कर पाया, मैंने यहीं टाकीज में देखी। फिल्म रोमांस, एक्शन, कॉमेडी, ट्रैजडी आदि रसों का खजाना थी। इंटरवल तक उजबक की तरह देखने के बाद मैंने बाहर आकर गन्ने का रस पिया। सिनेमा हॉल के मैनेजर ने बताया कि उनके यहाँ हाल के वर्षों में सबसे हिट फिल्म ‘किक’ रही, जो सौ दिन तक चली थी, और उसने एक सप्ताह में रिकॉर्ड साढ़े ग्यारह लाख की कमाई की थी, जबकि सामान्य तौर पर कमाई साढ़े चार-पाँच लाख के दरम्यान ही रहती है। फेस्टिवल के खत्म होने के अगले रोज यहाँ सुनील तिवारी की नई फिल्म ‘आटो वाले भाँटो’ की रिलीज थी। भाँटो यहाँ की भाषा में जीजा को कहते हैं।
विनोद कुमार शुक्ल के घर
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रायपुर में होने का लाभ उठाकर विनोद कुमार शुक्ल से मिलने गए। उनसे 'नौकर की कमीज' फिल्म पर बात होने लगी। उन्होंने बताया कि मणि कौल को हमेशा ऐसा लगता था कि उपन्यास का संतू बाबू मैं ही हूँ, इसीलिए उन्होंने संतू बाबू की पत्नी बनी अभिनेत्री को सप्ताह भर हमारे घर में मेरी पत्नी कैसे काम करती है वगैरह देखने के लिए रखा। उन्होंने बताया कि फिल्म के लिए तय की गई लोकेशन पर और सब तो ठीक था पर उपन्यास में वर्णित कटहल का पेड़ नहीं था, आम का पेड़ अलबत्ता जरूर था। लेकिन मणि कौल को लगता था कि उपन्यास के यथार्थ में कटहल के पेड़ को बदला नहीं जा सकता। विनोद जी मणि कौल की फिल्म और फिल्म मेकिंग के प्रशंसक मालूम दिए। मैंने जब फिल्म की आलोचना में कुछ कहा तो उन्होंने थोड़ा ऊबते हुए कहा कि वे अब नहीं हैं इसलिए उन्हें माफ कर दिया जाना चाहिए। उन्होंने बताया कि मणि कौल ‘दीवार में खिड़की..’ पर भी फिल्म बनाने वाले थे, पटकथा पर काम हो चुका था, लेकिन उससे पहले ही वो चले गए। ‘दीवार में खिड़की’ पर मोहन महर्षि के नाटक पर उन्होंने बड़ी मासूम सी राय जाहिर की कि ‘नाटक में कॉमेडी ज्यादा हो गई थी’--- जबकि वो यह भी कह सकते थे कि ‘उपन्यास का मिजाज ही वहाँ गायब था’। इस तरह हम चाय पीते हुए घंटे भर तक उनके यहाँ बैठे रहे। मुझे लगा कि विनोद जी चीजों को जिज्ञासा से उतना नहीं देखते जितना कि कौतूहल से देखते हैं। इसीलिए एक अदना सी स्थिति में भी इतना कुछ देखने को रहता है कि इस स्थिति पर वे एक पूरा उपन्यास लिख सकते हैं। उनका नया उपन्यास प्रकाशक के यहाँ छपने के इंतजार में है। उन्होंने बताया कि यह स्वतंत्र कहानियों से बना उपन्यास है। इस मुलाकात में मुलाकात के सूत्रधार राजेश गनोदवाले और प्रेरक शिवकेश मिश्र भी उपस्थित थे। उनके सवालों से उपरोक्त सहित कई पते की बातें हुईं।
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