कोई बात चले उर्फ मोहब्बत की वर्तनी
नायक की दिक्कत है कि वो काफी देसी इंसान है। पसंद की लड़की से मोहब्बत
के इजहार में उसके तोते उड़े रहते हैं। अपने देसीपन में जब वह खालिस हिंदीनिष्ठ
संवाद बोलता है तो एक अच्छी नाटकीयता बनती है। लेकिन अच्छी बात यह है कि वह कोई
वैसा गँवारू देसी नहीं है जैसे सायास किरदार आजकल कॉमेडी के मकसद से काफी रचे जाते
हैं। इस किरदार की अपनी पसंद-नापसंद काफी स्पष्ट है। प्रस्तुति देखते हुए मालूम
देता है कि अभिनेता यशपाल शर्मा से ज्यादा फिट इस रोल के लिए कोई नहीं हो सकता। मात्र
चेहरे-मोहरे में ही नहीं, अपने कुल व्यक्तित्व में भी। मैं उनसे एक-दो मौकों पर
मिला हूँ। हर बार वे इतने ओरिजिनल व्यक्ति मालूम दिए कि लगा किसी भी तरह की
ढोंगपूर्ण स्थिति उनके लिए मुसीबत खड़ी कर देती होगी। बहरहाल इन्हीं सब हालात के
बीच नाटक में सिचुएशन के मुताबिक ‘ओ मेरी हंसिनी’, ‘भीगी-भीगी रातों में’ और ‘किसी शायर की
गजल...ड्रीम गर्ल’ वगैरह गाने भी सुनाई देते हैं और एक प्रवाह बना रहता है।
लेखक के तौर पर रामजी बाली ने भाषा की लच्छेदारी में अच्छी महारत
हासिल कर ली है; और खास बात यह कि ऐसा करते हुए वे जुमलेबाजी में प्रायः नहीं फँसे
हैं। पिछले सालों के दौरान उन्होंने कुछ साहित्यिक शख्सियतों पर भी नाटक तैयार किए
हैं, जिनमें वे कई बार ‘पाठ की भाषा’ के चंगुल में फँसे दिखाई दिए थे। साहित्यिकता की
वैसी त्रुटि से यह प्रस्तुति प्रायः बरी है। अलबत्ता मंच पर खुद प्यारेलाल शर्मा
की भूमिका में वे पूरा खुल नहीं पाए हैं। वे थोड़ा मुखर होते तो यह किरदार कुछ
ज्यादा दिलचस्प हो सकता था। वरना वेशभूषा और पंजाबी लहजे में यह एक ठीकठाक रोचक
किरदार है। इनके अलावा एक-दूसरे से पूरी तरह जुदा स्त्री भूमिकाओं में ऋतु शर्मा भी
प्रस्तुति में अच्छी एनर्जी के साथ थीं।
यह प्रस्तुति करीब साल भर पहले भी एक बार देखी थी। लेकिन
इस बार यह ज्यादा बाँधने वाली लगी।
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