एक तू और एक मैं

इस मूलतः दो पात्रीय नाटक का मंचन 30 मार्च को मुक्तधारा प्रेक्षागृह में किया गया। पहला पात्र अपनी बीवी की हत्या का मुल्ज़िम है और दूसरा उसका वकील। वकील साहब की जिंदगी का यह पहला मुकदमा है, जो उन्हें अदालत के क्लर्क की एक तकनीकी गलती की वजह से मिल गया है। क्लर्क ने पी के बजाय बी टाइप न कर दिया होता तो अभियुक्त के हिस्से की कानूनी सहायता इन वकील बेनी प्रसाद के जिम्मे न आई होती। बेनीप्रसाद एक असफल लेकिन कल्पनाशील इंसान हैं। वे अपने मुवक्किल की बेगुनाही के कई कोण प्रस्तावित करते हैं। उन्हें पूरा यकीन है कि उसकी बीवी बदचलन रही होगी। वे जज के सामने पुरजोर तरीके से साबित करने की रिहर्सल करते हैं कि मुवक्किल की बीवी ने सटकर या लदकर किराएदार चौधरी के मोबाइल पर वाट्सएप का मैसेज देखा था। दिलचस्प यह है कि इस रिहर्सल में खुद मुवक्किल ही वकील की मदद कर रहा है। कभी वह गवाह बना हुआ है, कभी जज, और कभी वास्तविक अपराधी। यह मुवक्किल थोड़ा सुस्त, निरीह और थका-ऊबा प्राणी है। उसकी नीरस जिंदगी में वकील की रिहर्सलों ने रस पैदा कर दिया है। वह बराबर नए-नए पार्ट की अदायगी के लिए तत्पर है। स्क्रिप्ट काफी ढंग से लिखी गई है। नरेंद्र गुप्ता और सुनील सिन्हा ने इसे जितने अच्छे तरह से लिखा है उतने ही अच्छे तरह से मंच पर राजेश बब्बर और आशीष शर्मा ने पेश किया है। जैसा कि हिंदी में अक्सर होता है, कॉमेडी किरदारों की हाइप में फँसी नजर जाती है-- वैसा इस प्रस्तुति में नहीं था। दोनों ही किरदार अपने आपे में हैं और कुछ न कुछ किया करते हैं।  

नाटक में लगातार नए-नए प्रकरण निकलकर आते रहते हैं। अपराधी को खूँखार सजाएँ देने वाले जज माँगीलाल का वर्णन। उस वकील का किस्सा जो उम्रदराज जजों की मानसिकता के मुतल्लिक मेडिकल एविडेंस पर खेल जाता था, आदि-आदि। नाटक में सिर्फ दो दृश्य हैं और हवलदार के आनुषंगिक पात्र को मिलाकर कुल तीन पात्र; लेकिन उसमें एक रवानी है जो देखने वाले को पूरे समय बाँधे रखती है। प्रतिबिंब कला दर्पण की राजेश बब्बर निर्देशित इस प्रस्तुति का नाम था- एक तू और एक मैं।

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