अंजी का मुहावरा
विजय तेंदुलकर के नाटक ‘अंजी’ का मुहावरा खासा दिलचस्प है। इसमें स्वांग या प्रहसन के तौर-तरीकों को एक युक्ति के रूप में इस्तेमाल किया गया है। तेंदुलकर इसमें बैकस्टेज के सारे तामझाम को मंच के औपचारिक स्पेस में ले आए हैं। नाटक का सूत्रधार उसकी पूरी कथावस्तु का संचालक है। वह मंच पर एक ओर को हारमोनियम वाले के बराबर में तबले पर बैठा है। ट्रेन के दृश्य में वह भिखारी, चायवाले, हिजड़े आदि के किरदार निभा कर पुनः अपनी जगह आ बैठता है और यदा-कदा नाटक की मुख्य पात्र अंजी दीदी से उसके हालचाल भी पूछ लेता है। दरवाजे पर दी गई किसी दस्तक को वह तबले की थाप के जरिए मुकम्मल बनाता है। नायिका कोई पता ढूंढ़ रही है। सूत्रधार जल्दी से मंच के एक कोने में रखी दरवाजे वाली चौखट लाकर बीच में रख देता है और उसके दूसरी ओर जाकर घर में रहने वाला दुबेजी बन जाता है। नायिका की खटखट पर उससे दरवाजा नहीं खुल रहा। तब वह नायिका को थोड़ा रुकने को कहता है क्योंकि दरवाजा उसने उल्टा रख दिया है। फिर दरवाजे को सीधा करने पर दुबेजी के रूप में प्रकट होकर बताता है कि तिवारी जी का मकान थोड़ा आगे है। और जल्दी से दरवाजा थोड़ा आगे वाली जगह रख कर दुबेजी से तिवारीजी बन जाता है।
नाटक की नायिका सत्तर के दशक के मध्यवर्ग की नौकरीपेशा है। उसकी कुंडली में कोई ऐसा दुष्ट योग है कि 29 साल की उम्र में भी उसकी शादी नहीं हुई है। इसी क्रम में उसके घर और दफ्तर का माहौल, उसकी मोहब्बत की ख्वाहिश, उसके मध्यवर्गीय डर और आशंकाएं आदि एक परिहासपूर्ण ढंग से सामने आते हैं। नायिका के दफ्तर का छिछोरा प्रभुदयाल उससे ‘किस थ्री’ फिल्म की चर्चा करता है, तब नायिका को याद आता है कि एक बार दद्दा के साथ फिल्म ‘कण कण में भगवान’ देखने के वक्त उसने कैसा महसूस किया था। बहरहाल,प्रभुदयाल के छिछोरेपन को देखते हुए सूत्रधार को कहना पड़ता है- ‘प्रभुदयालजी, आप बाहर जाइए!’ प्रभुदयाल- ‘क्यों जाऊं, एंट्री मेरी थी।‘ सूत्रधार- ‘लेकिन किसी लड़की को आप तंग करें, यह कहां की बात है?’ प्रभुदयाल- ‘मैं नाटक का किरदार हूं।’ सूत्रधार- ‘यह नाटक किसका है?’ प्रभुदयाल- ‘दर्शक का।‘ सूत्रधार- ‘और?’ प्रभुदया ल- ‘क्रिटिक का।’ सूत्रधार- ‘और?’ प्रभुदया ल-‘नाटककार का।‘
स्थितियाँ कुछ ऐसी हैं मानो यथार्थ के दानों को प्रहसन के धागे में पिरो दिया गया हो। आशंकित नायिका का नायक घर आ गया है। उसने एक हाथ पीठ के पीछे छुपाया हुआ है। सतर्क नायिका उसे हाथ आगे करने को कहती है। थोड़ी ना-नुकुर के बाद वह हाथ आगे करता है तो उसमें चाकू है। तब नायक काफी आह्वाननुमा ढंग से कबूल करता है कि वह गलत सोहबत में पड़ गया था, गलत रास्ते पर भटक गया था। फिर दोनों ताली बजा-बजाकर नर्सरी राइम नुमा कुछ गाते हैं।
डेढ़ साल पहले दिवंगत हुए दिनेश ठाकुर निर्देशित यह नाटक उनकी संस्था अंक की एक लोकप्रिय प्रस्तुति रही है। एक बार पहले देहरादून में जब इसे देखा था तो दिनेश ठाकुर खुद सूत्रधार की भूमिका में थे। अब यह भूमिका उनके जैसी ही कद-काठी वाले मुकुल नाग के जिम्मे हैं। मुकुल नाग ने प्रस्तुति के अनौपचारिक मुहावरे में एक मौके पर उसी मिजाज का एक दिलचस्प इंप्रोवाइजेशन भी किया। कुछ दर्शकों के शिकायत करने पर कि हारमोनियम और तबले के स्वरों में उन्हें संवाद नहीं सुनाई दे रहे हैं, उन्होंने तकनीकी पक्ष से जुड़े लोगों से माइक का वाल्यूम कम करने की पुकार लगाई, और फिर अभिनेताओं से दृश्य को ‘रिवाइंड’ करने के लिए कहकर इस कुछ क्षणों के व्यवधान को भी मानो दृश्य का हिस्सा बना दिया।
अंजी में रंग-निर्देशों के चलन को मानो मरोड़ दिया गया है। उसका नाटकीय खिलंदड़ापन तमाम तरह की रिवायतों और रूढ़ियों को तोड़ने के जरिए आकार लेता है। चाहे वे शिल्प की रूढ़ियां हों या यथार्थ और उसके प्रति धारणाओं की। दद्दा अंजी को लिपस्टिक लगाते देखकर तंज करते हैं- आज लिपस्टिक चुपड़ो, कल सिगरेट और शराब पीना। ये जीवन के बंधे-बंधाएपन से निकाली गई बहुत-सी छवियां हैं। नाटक एक मसखरेपन में इन छवियों की ओर ताकता हुआ मालूम देता है। मुख्य भूमिका में प्रीता माथुर ने इन्हें काफी अच्छी तरह आकार दिया है। अन्य भूमिकाओं में अमन गुप्ता, अतुल माथुर, शंकर अय्यर और मधु श्रीवास्तव ने भी।
क्या बात है ! मानो प्रस्तुति देख ही ली हो।
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