अपने जैसे अजनबियों में

युवा रंगकर्मी हैप्पी रंजीत के लिखे और निर्देशित किए नाटक फैमिलियर स्ट्रेंजर का पुरुष अपनी लिवइन पार्टनर से संबंध को प्यार के बजाय ग्रेट फ्रेंडशिप’ कहता है। फिर एक रोज वह अपनी फिल्म में काम कर रही हीरोइन यानी एक अन्य स्त्री से पूछता है- तुम मेरे होने वाले बच्चे की मां बनोगी? उसके मुताबिक हर इंसान, जानवर, पेड़-पौधे की लाइफ का एक ही मकसद होता है- प्रोक्रिएशन। वह कहता है- मेरे लिए कुछ भी सही और गलत नहीं....एक रिश्ते के होते हुए अगर मेरे मन में तुम्हारे लिए अट्रैक्शन आ गया है तो यह भी गलत है, पर यह तो हो गया है। इस पुरुष को हर आदर्श चीज से नफरत होती है, क्योंकि वो झूठ है और मुझे सच्चाई से प्यार है। उसका मानना है कि कोई रिश्ता जब तक काम कर रहा है तब तक ठीक, वरना उससे अलग हो जाना चाहिए। इसमें अच्छे-बुरे का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि जो मेरे लिए अच्छा है वह शायद दूसरे के नजरिए से बुरा हो। वह एक मुकम्मल आजादी का कायल है, जो तभी मिलती है जब आप किसी से जुड़े नहीं होते। ऐसी आजादी होगी तभी आप समाज के लिए कुछ कर पाएँगे. उसे एक अपने जैसी स्त्री नूरा मिलती है जो एक प्रसिद्ध लेखक है। वह उससे कहता है कि कोई स्त्री पुरुष को इसलिए रेप नहीं कर सकतीक्योंकि उसकी ऐसी कोई भी कोशिश पुरुष का सुख बन जाएगी क्योंकि पुरुष की स्त्री को लेकर कोई च्वाइस नहीं होती। इस पुरुष को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह जिसे अपने बच्चे की माँ बनाना चाह रहा है उसका अपना एक ब्वायफ्रेंड भी है। उसके मुताबिक उसे दूसरों की बीवियां अच्छी लगती हैं- यह उसका रावण सिन्ड्रॉम है, और मर्द रावण ही होता है। औरत चाहे तो वो कृष्ण बन जाता है। वरना ये सोसाइटी उसका गला घोंट देगी, जहां हर कोई राम कहलाना पसंद करता है- अंदर एक रावण को छिपाए। उसका यह भी कहना है कि चूंकि खुशी स्थायी नहीं हो सकती, इसलिए जब जो खुशी मिले उसे झपट लेना चाहिए।
पिछले सप्ताह एलटीजी प्रेक्षागृह में हुई यह प्रस्तुति देखते हुए सहज ही अनुमान होता है कि यह अपने यहां के संवेदनात्मक ढांचे से परे या आगे की कोई बात कर रही है। एशियाई ढंग की कोई भावुकता इसमें रत्ती भर दिखाई नहीं देती। यह पिछले एक-डेढ़ दशक में उभरी महानगरीय पीढ़ी की सोच और उत्तरआधुनिक समस्याओं का एक हिंगलिश बयान है। समूहों को लेकर बनाए गए सिद्धांतों के बरक्स व्यक्ति के सापेक्षिक सच की समस्या। यहां स्वतंत्रता की आकांक्षा भावनात्मक निर्भरता को नहीं जानती, और न ही सामाजिकता का कोई ढकोसला यहां चल सकता है। नाटक में न सिर्फ उसका विषय, बल्कि उसका मंचीय ढांचा भी खासा मौलिक है। वह बात पर इतना केंद्रित है कि बाहरी रूपरेखा की उसे आवश्यकता नहीं। होने को नाटक के आलेख में जंगल, होटल का कमरा, रेस्त्रां, फिल्म का सेट, फ्लैट का कमरा, बंगले का टैरेस गार्डन आदि बहुत कुछ है, पर वास्तव में मंच पर इन जगहों का कोई संकेत तक नहीं है। वहां सिर्फ एक सोफा कम बेड है और परदों के जरिए बनाया गया एक कमरे जैसा कुछ। इस ढांचे में यह चार पात्रों की एक काफी चुस्त प्रस्तुति है। इसमें किरदारों के नाम पर कुछ मूड दिखाई देते हैं, क्योंकि ये किसी ठेठ दुनियावी यथार्थ में नहीं बल्कि अपने भीतर के यथार्थों से घिरे हैं। मुख्य भूमिका में तुषार पांडेय के कमउम्र चेहरे-मोहरे का कच्चापन हालांकि थोड़ा अखरता है, पर उन्होंने एक ऐसे किरदार का काम ठीक से किया है जो अलग-अलग किस्म के मनुष्यों से बनी दुनिया में अपने निजत्व को भोगने की बेचैनी से घिरा है। लेकिन उनसे भी ज्यादा प्रभाव लेखिका बनीं नलिनी जोशी छोड़ती हैं। एक परिपक्व किरदार का ठोस आत्मविश्वास उनके पात्र को ज्यादा प्रभावी बनाता है। मंच प्रायः खाली है, पर एकाध दृश्यों की बहुत अच्छी योजना की गई है। एक ऐसे ही दृश्य में मुख्य पात्र एक जालीदार परदे में लिपटा हुआ है। प्रत्यक्षतः मंच पर एक लापरवाही-सी दिखने के बावजूद यह एक पर्याप्त गठी हुई प्रस्तुति है, जिसके संवादों में एक तार्किक वक्रोक्ति है। इसकी एक ही खामी है कि इसमें अपना समाज और परिवेश बहुत मामूली रूप से ही नजर आता है। हो सकता है कि इसके आलेख पर कुछ विदेशी नाटकों का प्रभाव रहा हो, पर अपने कुल विधान में प्रत्यक्षतः यह काफी ठोस प्रस्तुति है।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

न्यायप्रियता जहाँ ले जाती है

भीष्म साहनी के नाटक

आनंद रघुनंदन