बात पाँचवें वेद की
रंगकर्मी दंपती वीके
और किरण की रंग शैली का प्रवाह देखने ही बनता है। अपनी नई प्रस्तुति ‘रहस्य पंचम वेद का’ में उन्होंने नाटक
के इतिहास और सिद्धांत को मंच पर पेश किया है, और वो भी बच्चो के एक खासे बड़े दल
के साथ। रामजस स्कूल, पूसा रोड के छात्रों की इस प्रस्तुति में मंच पर
जमा बच्चे नाटक खेलने के बारे में बात कर रहे हैं। उनका टीचर एक चीनी कहावत के
बारे में बताता है कि सुनी
हुई बातें भूल जाती हैं, देखी हुई याद रहती हैं, और
की हुई समझ आती हैं। एक बच्चा बताता है कि उसके पुराने स्कूल के प्रिंसिपल नाटक के खिलाफ थे कि
इससे पढ़ाई का हर्जा होता है। नाटक बनाम पढ़ाई के इस झगड़े में मूँछ लगाए बाप बेटे
को डाँट रहा है, पर बेटा भी गुस्सैल तेवरों वाला है। उसके गुस्से में कहे ‘...पापा!’ के साथ सीन कट हो
जाता है, और पात्रों का हुजूम एक कोरस के लिए प्रस्तुत हो जाता है : ‘रंगमंच है दुनिया
सारी/ हम सब केवल अभिनेता’। पीछे स्क्रीन पर शेक्सपीयर की तस्वीर उभरी हुई
है। शेक्सपीयर ने ही दुनिया को एक स्टेज बताया था, जहां बच्चा पैदा होते ही
तरह-तरह के ड्रामे देखने लगता है। एक सास-बहू गोद में एक नवजात को लिए मंच पर नुमायाँ
हुई हैं। सास कह रही है- बहू, इसके नैन-नक्श तो इतने अच्छे हैं, पर रंग तुमपर चला
गया है। इसपर बहू भी कोई तानाकशी करती है. मां की गोद में अनुपस्थित नवजात
टुकुर-टुकर अपनी मां और दादी के इस प्रपंच को देख रहा है- ऐसा दृश्यबोध बनता है।
इसके बाद स्कूल न जाने का बहाना करती बच्ची, टीनेजर प्रेमी-प्रेमिका, ‘नौकरी छोड़ दूंगा’ की
विद्रोही भंगिमा वाला युवा, शेयर बेचें या न बेचें- की चर्चा करते दुनियादार
दंपती, और फिर दुनिया से रुखसत होने को तैयार बूढ़ी मां की संभाल करता बेटा.
इस शुरुआती भूमिका
के बाद सवाल आता है कि ड्रामा क्यों और कब शुरू हुआ। तरह-तरह के कयास निकल कर आ
रहे हैं। चूंकि शेक्सपीयर ने कहा है कि पूरी जिंदगी ही नाटक है, इसलिए नाटक भी तब
शुरू हुआ होगा जब जिंदगी शुरू हुई। लिहाजा मंच पर जाने-पहचाने आदिवासी लिबास में
कुछ पात्र आकर अजीबोगरीब गतिविधियां करते हैं। एक पात्र अपना लैपटॉप खोले नाटक के
इतिहास की तफ्तीश कर रहा है। बताता है कि ग्रीक नाटक सबसे पुराना है, पर उससे भी
नौ सौ साल पहले ऋग्वेद में भी नाटक की चर्चा की गई है. और आखिर में बात असल
मुद्दे- यानी भरतमुनि के नाट्यशास्त्र- पर आती है। पात्र बताता है- चौथे वर्ण यानी
शूद्रों के लिए वेद-पाठ प्रतिबंधित होने से ब्रह्मा जी ने इस पांचवें वेद की रचना
की। इस तरह मंच पर पहले गेरुए पहनावे वाले ऋषि-मुनि और फिर कमल के फूल पर बैठे
ब्रह्मा जी, चमकदार मुकुट लगाए इंद्रदेव और बड़ी-बड़ी मूंछों और काले कपड़ों वाले
असुर दिखाई देते हैं। संक्षेप यह कि बगैर किसी निश्चित कहानी वाला वृत्तांत शैली
का यह नाटक कई तरह के मानवीय व्यवहारों और इतिहास प्रसंगों आदि की मार्फत एक चुस्त
दृश्य विधान में विन्यस्त है। मंच पर हर वक्त पात्रों की एक भारी-भरकम भीड़ नजर
आती है। पर विषयवस्तु का फोकस इससे कहीं भी गड़बड़ाया हुआ नहीं लगता। डेढ़ घंटे
में यह थिएटर का एक विहंगम इतिहास है, जिसमें तस्वीरों में यूनान का एंफी थिएटर
है, और भाषा के विविध प्रयोग हैं। भरत मुनि बताते हैं- हे ब्राह्मणो, यह तब की बात
है जब वैवस्त मनु के साथ त्रेता युग का आरंभ हुआ। बाद के दृश्यों में ब्रह्मा के
बराबर में खड़े शिव इससे पहले तबले की रौद्र थापों पर नृत्य करते दिखाई दिए थे।
इसी तरह नाट्यशास्त्र की गंभीर चर्चा के बीच हल्की-फुल्की किस्सागोई भी है। अपने
ऊपर बैठे इंद्र को बौराया हाथी उठाकर पटक देता है; और
ब्रह्मा जी इंद्र से कहते हैं- जाइए, सारे देवताओं को बोर्नविटा पिलाइए।
विषय खासा अकादमिक
होने के बावजूद निर्देशकद्वय ने उसे बोझिल नहीं होने दिया है। प्रस्तुति में यथार्थ
की सादगी और सहजता है, और कल्पना का चटकपन और सांगीतिकता भी। वीके और किरण का
थिएटर विविधता के अवयवों से एक प्रवाह बनाता है। उनकी ऐसी प्रस्तुतियां वर्कशाप
थिएटर का एक मॉडल कही जा सकती हैं, जहां अभिनेताओं के कच्चेपन को भी एक रंग-उपादान
की तरह इस्तेमाल किया जाता है। और जहां झोल मुश्किल से ही दिखते हैं। बार-बार
स्थितियों को ब्रेक किया जाता है, पर फिर भी कोई लड़खड़ाहट वहां नहीं होती।
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