युद्ध के विरोध में ब्रह्मचर्य

वरिष्ठ नाट्य निर्देशक वामन केंद्रे लिखित और निर्देशित प्रस्तुति नो सेक्स प्लीज एक काल्पनिक कथावस्तु पर आधारित प्रहसन है। एक राजा है जो युद्ध का प्रणेता है। दर्शक शुरू के दृश्यों में उसके द्वारा लड़े गए युद्धों पर उसका हास्यजनक संभाषण सुनते हैं, जिसमें वह हर चौराहे पर युद्ध देवता के पुतले खड़े कर देने का आह्वान करता है और अपने सैनिकों से कहता है- घाव तुम झेलोगे, वेदना हम झेलेंगे; खून तुम्हारा निकलेगा, आँसू हमारे। लेकिन चूँकि युद्ध हमेशा ही विभीषिका को जन्म देता है, जिसकी शिकार बनती हैं स्त्रियाँ. नगर की स्त्रियाँ तय करती हैं कि अब वे ऐसा नहीं होने देंगी; और संगठित गृहणियाँ और गणिकाएँ मिलकर पुरुषों से कह देती हैं- नो सेक्स प्लीज।
नाटक का कथासूत्र एरिस्टोफेनस के लिखे एक प्राचीन ग्रीक प्रहसन से लिया गया है; ऐसा छोटा  प्रहसन जिसे प्रसिद्ध ग्रीक त्रासदियों के मध्य कॉमिक रिलीफ के तौर पर पेश किया जाता था। इसे पूरी लंबाई के नाटक में तब्दील करते हुए वामन केंद्रे ने दृश्यात्मकता के एक पारंपरिक मुहावरे में आबद्ध किया है. उनके पात्र मंच पर चटक रंग वाले कास्ट्यूम में नजर आते हैं। उनकी देहगतियों में एक लय और लास्य है। इस तरह यह ऐसा शैलीबद्ध दृश्य बनता है जिसे आप एक जैसेपन के बावजूद देर तक देखते रहते हैं। इस दृश्य को अरसे बाद किसी नाटक में दिखाई दिए लाइवसंगीत का ठोस समर्थन प्राप्त है। सीधे-सीधे संवादों को खुद वामन केंद्रे द्वारा ही तैयार इस संगीत के जरिए ऐसी गीतात्मक रंगत दी गई है कि बहना अब तू न आंसू बहाना जैसे पंक्ति एक छोटे-मोटे कोरस में तब्दील हुई रहती है.
बावजूद इसके कि नाटक के कथ्य में कोई ठोस उत्सुकता या वास्तविक द्वंद्व नहीं है, प्रस्तुति दर्शकों को कई तरह की दृश्य योजनाओं के जरिए बाँधे रखती है. निर्देशक कथ्य के एक सीधे-सरल अदना से सिरे को एक झंझावाती आयोजन में बदल देते हैं. शरीर की ख्वाहिश सिर्फ हास्य का विषय नहीं है। हास्य की दो-चार स्थितियों के बाद पुरुष इसे लेकर दबंग हो उठा है- पत्नी को उसकी औकात बता देने पर आमादा। ऐसे में स्त्रियाँ थाली को बेलन से पीट रही हैं; उनकी घंटियों की सामूहिक ध्वनियों ने मंच को घेर लिया है। यह एक समुदाय के गुस्से की रंगमंचीय व्यंजना है; एक हल्की-फुल्की कहानी का ठोस दृश्यात्मक संस्कार है। ठेठ वामन केंद्रे शैली का दृश्य, जहाँ मंच पर हर चीज एक शास्त्रीय अनुशासन में बरती जाती दिखाई देती है। वे लंबे संवाद, जिनमें नैरेटिव का झोल साफ दिखाई देता है, भी पात्रगण पूरे इतमीनान और साफ-सुथरे ढंग से अंजाम दे रहे हैं। पात्रों की यह संलग्नता एक कमजोर दृश्य में ग्लूकोज की तरह का काम करती है।
हालाँकि नाटक के आलेख की कुछ खामियाँ भी प्रस्तुति में साफ दिखाई देती हैं। एक अच्छे प्रहसन के लिहाज से बात के सिरों को ठीक से जोड़ने की कोशिश नहीं की गई है। कई मौकों पर उसमें ऐसा स्वच्छंदतावाद है कि राजा के आदेश देते ही एक आधुनिक यंत्र पर बीसवीं सदी की युद्ध-विभीषिकाएँ दिखाई जाने लगती हैं, वहीं ऐसा सायासपन भी कि उसकी पात्र हम जननी हैं, निर्मिति हमारा धर्म है, भविष्य को उजाड़ होते हम नहीं देख सकतीं जैसा संवाद बोलती हैं। वैसे इस लिहाज से कुछ अच्छी स्थितियाँ भी प्रस्तुति में हैं। एक मौके पर पति को झाँसा देने के लिए सास और बहू मिल गई हैं। पति के अंतरंग होने की हर कोशिश के वक्त दाएँ सिरे पर लेटी सास टेर लगाती है-अरे बेटा, खाना खा लिया क्या या अरे बहू, पानी तो पी ले, आदि। सास के स्वर में नाटकीयता का एक अच्छा लहजा है।
अपनी शैली में यह प्रस्तुति किसी ऑपेरा की तरह है। ऑपेरा में कथानक एक सांगीतिक भावबोध के रूप में व्यक्त होता है। यहाँ भी प्रस्तुति पात्रों की अलग से कोई पहचान नहीं बनाती, बल्कि वे सब एक समूह दृश्य का हिस्सा हैं, जिसे कई विधियों से पर्याप्त चाक्षुष और गीतिमय बनाया गया है। कुछ वर्ष पहले अपनी प्रस्तुति जानेमन से हिंदी रंग-समाज में कीर्ति अर्जित करने वाले वामन केंद्रे की इस प्रस्तुति में भी मंच पर चूक या झोल या दृश्य के अंतराल कम ही दिखते हैं। इस तरह अपनी निरंतरता में वे एक लंबा-सा दृश्य मंच पर खींचते हैं, जिससे बाहर आने के मौके दर्शक के लिए ज्यादा नहीं होते। कुछ मौकों पर लंबे उत्सुकताविहीन संवादों की एकरसता या ढीलेढाले नाटकीय मनोरथ वाली दृश्य संरचना जैसी खामियाँ इस लंबे दृश्य में आसानी से खप जाती हैं।
मुंबई की नाट्य संस्था रंगपीठ की इस बिल्कुल नई हिंदी प्रस्तुति का यह पहला प्रदर्शन था, जिसे संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार समारोह के तहत श्रीराम सेंटर में आयोजित किया गया। रंगमंच के क्षेत्र में इस साल वामन केंद्रे और त्रिपुरारी शर्मा को संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।  

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