अरसे बाद कैदे हयात


मिर्जा गालिब के जीवन पर आधारित सुरेंद्र वर्मा का नाटक कैदे हयात हिंदी के श्रेष्ठ नाटकों में शुमार होने के बावजूद काफी कम खेला गया है। इसे हिंदी का नहीं बल्कि उर्दू का नाटक कहना चाहिए; और मुमकिन है कि भाषा की यह कठिनाई उसे हिंदी के रंगकर्मियों के लिए थोड़ा मुश्किल भी बनाती है। जो भी हो, इस भाषा में एक गहरी संपृक्ति और अर्थवत्ता की अच्छी लय है। ऐसा इसलिए है कि गालिब की मुफलिसी और मोहब्बत को यहां किसी रूमान में फंसने नहीं दिया गया है। जिंदगी की मजबूरियों में फंसे वे एक आधे-अधूरे गृहस्थ की तरह हालात से उबरने के रास्ते तलाशा करते हैं। यह रास्ता है गवर्नर जनरल की काउंसिल में अपनी विरासत पर हासिल होने वाली पेंशन के मुकदमे के लिए कलकत्ता जाना। इस जाने और लौटने के दौरान हालात और बदतर हुए हैं। पहले महाजनों के तकाजे ही होते थे, अब ये तकाजे घर से निकलते ही उनकी गिरफ्तारी का सबब बन चुके हैं। ऐसे में दुनिया को बाजीचा-ए-अशफाल की तरह देखने वाला शायर घर की चौहद्दी में बेबस इस बेबसी को महसूस किया करता है। कातिबा से उनका संबंध भी दुनियादारी से बेजार अपनी-अपनी बेचैनियों की वजह से है। गालिब बीमार कातिबा को देखने नहीं जा सकते। उसकी मौत नाटक में सतत दिखने वाली उदासी की मानो एक इंतेहा है। नाटक में पात्रों के भीतर और बाहर घट रही गाढ़ी तल्ख हकीकत युवा निर्देशक दानिश इकबाल के निर्देशन में चंद रोज पहले हैबिटाट सेंटर के स्टीन ऑडिटोरियम में हुई प्रस्तुति में लगातार मंच पर महसूस होती रहती है। इस तरह के विषय में जो  एक जुमलेबाजी की गुंजाइश काफी बनी रहती है, वह न नाटक के आलेख में है और न ही इस प्रस्तुति में।
करीब दशक भर पहले राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से स्नातक हुए दानिश इकबाल की पहचान अभी तक प्रायः एक अभिनेता की रही है, पर यह प्रस्तुति एक निर्देशक के रूप में उनकी काबिलियत को भी काफी पुख्ता ढंग से साबित करती है। मुख्य भूमिका में खुद दानिश के अलावा शेष किरदारों में भी पात्र-चयन और अभिनय काफी दुरुस्त है। नाटक की विशेषता यह है कि स्थितियां उसमें काफी डिटेलिंग के साथ पेश होती हैं, और कहीं भी उनका कोई अपव्यय नहीं किया गया है। कातिबा के घर जाने के रास्ते में एक टूटी दीवार पड़ती है, जिससे रास्ता छोटा हो जाता है। पर नौकर बताता है कि दीवार शायद अब बन गई है। इस तरह जल्द से जल्द जाकर कातिबा का हालचाल लाने के मसले में यह दीवार नाटक के यथार्थवाद में अचानक बहुत अहम हो आई है। इसी तरह घर में आने वाला शायर यासीन गालिब से पूछता है कि मिर्जा, लफ्जों का ऐसा इस्तेमाल क्यों करते हो कि मानी खेंच कर निकालना पड़ता है’;और गालिब बताते हैं कि खुद के सही होने का इल्म गजलख्वानी की लंबी जद्दोजहद के बाद आता है. शुरू के दृश्यों में टोपी लगाए आने वाला पड़ोस का शायर परवेज (जिसकी ढाई सौ गजलें सही तखल्लुस न मिलने की वजह से अधूरी पड़ी हैं, क्योंकि तखल्लुस नहीं तो मक्ता नहीं और मक्ता नहीं तो गजल नहीं) बाद के दृश्यों में शायरी छोड़ चुकने की वजह बताता है कि फिक्रे सुखन और फिक्रे रोजगार साथ-साथ नहीं चल सकते।
मंच पर ज्यादा कुछ नहीं है. पीछे एक लंबे परदे के अलावा एक दीवान और चौकी वगैरह मामूली चीजें ही हैं। कास्ट्यूम और इन चीजों की मदद से दानिश एक माहौल बनाते हैं।लेकिन इस माहौल की केंद्रीय चीज एक सुघड़ चरित्रांकन और साफ-सुथरा दृश्यविधान ही है।मंच पर अतीत का यह यथार्थ इतना गहन है कि नाटक को मुस्लिम परिवेश के सजावटी क्लीशे में अटकने से बचाता है। इस यथार्थ में पात्र आ रहे हैं जा रहे हैं, पर एक उदासी है कि टलने का नाम ही नहीं ले रही। कातिबा की भूमिका में निधि मिश्रा और यासीन की भूमिका में सदानंद पाटिल जैसे रानावि के स्नातकों सहित अन्य भूमिकाओं में वसुंधरा बोस, शादां अहमद, आयुषी मिश्रा, आमिर खान, विशाल चौहान का काम भी प्रस्तुति में काफी अच्छा था।  

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