रंगकर्मी प्रसन्ना के विचार
सुपरिचित नाट्य निर्देशक प्रसन्ना अपने वैचारिक आग्रहों को लेकर अक्सर चर्चा में रहे हैं। वे एक कलाकार को किसान की तुलना में कहीं भी विशेष नहीं मानते हैं। वे मातृ भाषाओं में और जीवन की प्रकृत योग्यताओं के आधार पर रंगकर्म के हिमायती रहे हैं। नटरंग प्रतिष्ठान के आयोजन‘रंग संवाद’ में उन्होंने अपनी वैचारिकता के विभिन्न पक्षों की सिलसिलेवार चर्चा की। उन्होंने बताया कि 24 साल पहले मैं दिल्ली छोड़कर गांव चला गया था। मैं दिल्ली से परेशान था, यहां के थिएटर से परेशान था। कर्नाटक के अपने गांव हेग्गोडू में जाकर धीरे-धीरे मुझमें शांति और स्थिरता आई। गांव जाकर प्रसन्ना ने एक सहकारी संस्था चरखा की स्थापना की और दो पुस्तकें लिखीं। पहली पुस्तक थी ‘देसी जीवन पद्धति’ और दूसरी के नाम का अर्थ था- आओ मशीन को विखंडित करें। उनकी संस्था ने हथकरघा के क्षेत्र में काम शुरू किया और आज 600 लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में इससे जुड़े हैं। उनका कहना था कि मैं थिएटर को मशीन निर्मित मनोरंजन के विरोध के उपक्रम के रूप में देखता हूं। यह ऐसा माध्यम है जिसमें संप्रेषण मानवीय विधियों से होता है। लेकिन हमने ‘करने वाले नाटक’ को ‘देखने वाला मनोरंजन’ बना दिया है। वीडियो छवियों और भारीभरकम प्रापर्टी का इस्तेमाल किया जाता है। इस तरह थिएटर दिल्ली केंद्रित हुआ है और उसे कमानी जैसी जगहों से परे नहीं ले जाया गया।
प्रसन्ना के मुताबिक किसी रंगकर्मी से यह पूछने के बजाय कि ‘वह अभिनय क्यों करता है’ यह पूछना चाहिए कि वह थिएटर में कृत्रिम आधार क्यों रचता है; क्योंकि अभिनेता खुद अपना अभिनय नहीं करता। पर उसके द्वारा रचा गया झूठ सच तक पहुंचने की एक कोशिश होता है। उन्होंने कहा कि थिएटर तीन चीजों - अभिनेता, दर्शक और चरित्र- से बनता है। इनमें अभिनेता और दर्शक वास्तविक हैं, पर चरित्र अवास्तविक, इसलिए रचनात्मकता उसी के जरिए सामने आती है। उन्होंने कहा कि सिनेमा और टीवी अपने मौजूदा स्वरूप में भले ही लोगों को जाहिल बना रहे हैं, पर बंबइया सिनेमा अपने नैरेटिव के दम पर फल-फूल रहा है। प्रसन्ना ने चुस्त गठन वाले नाटक को बुरा नाटक करार दिया। उन्होंने कहा कि पश्चिम को नहीं मालूम था कि नाटक खेल है। पर हमें इसे नहीं भूलना चाहिए। बजाय कथकली के किसी अंश को नाटक में डालकर परंपरा से जुड़ने के हमें लोगों के पास जाना चाहिए। वे हमें बताएंगे कि नाटक कैसे करें। उन्होंने कहा कि यथार्थ और सच्चाई के गैप को समझे बगैर कोई कला संभव नहीं है।
उन्होंने कहा कि भारत के आधे गांव आज युवा लोगों से खाली हो चुके हैं। एक ओर प्रसन्ना ने मंत्रियों को इसलिए कोसा कि वे पूरी बेशर्मी के साथ दावा कर रहे हैं कि 2030 तक देश की 75 फीसदी आबादी शहरों में होगी, वहीं उनका यह भी मानना है कि शहरों की ओर पलायन की असल वजह गरीबी से भी ज्यादा जाति व्यवस्था है। उनके मुताबिक लोग जाति से मुक्त होने के लिए अपनी जगह से दूर जाते हैं। उन्होंने कहा कि हमने आरक्षण के जरिए निचली जातियों को ऊंची जातियों वाले काम दिए। इस तरह कानून के जरिए सामाजिक क्रांति लाने की कोशिश की गई। पर साथ-साथ दूसरी कोशिशें नहीं की गईं। यह काम हमें यानी थिएटर को करना है। प्रसन्ना ने कहा कि दलितों द्वारा किए जाने वाले कामों का विकल्प मशीन हो सकती है यह सोचना गलत है। इसके लिए उन्होंने टॉलस्टाय के विचार को सबसे बेहतर बताया जो कठिन श्रम को उत्कृष्ट जीवन के लिए आवश्यक मानता है।प्रसन्ना ने बताया कि उन्होंने अपने गांव में एक श्रमजीवी आश्रम बनाया और लोगों को इसके लिए तैयार किया कि वे कठिन श्रम में गरिमा का अनुभव करें। उन्होंने कहा कि इस परिप्रेक्ष्य के बगैर किसी कला का कोई महत्त्व नहीं है। अपने वक्तव्य में प्रसन्ना ने भाषा को सिर्फ अर्थ न मानकर भाव के रूप में देखने पर और परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व को सुलझाए जाने की आवश्यकता पर जोर दिया। उनकी राय में सरकारी पैसे को थिएटर के आधारभूत ढांचे के विकास पर खर्च किया जाना चाहिए।
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