क्यों बेशर्म हैं पात्र ?
पिछले दिनों हुए साहित्य कला परिषद के युवा नाट्य उत्सव में रोहित त्रिपाठी निर्देशित प्रस्तुति 'खामोश अदालत जारी है' का मंचन किया गया। विजय तेंदुलकर के इस नाटक की सीमा उसके परिवेश की पुरानी नैतिकताएं हैं, जिनमें वह अपने जमाने का स्त्री-विमर्श खड़ा करता है। उसकी दूसरी सीमा उसकी कृत्रिम मंचीय संरचना है। रिहर्सल के लिए जमा हुए पात्र असली के बजाय खेल खेल में एक नाटक खेलते हैं, जिसमें एक वास्तविक पात्र मिस बेणारे पर मुकदमा चलाया जाता है। उसका बुनियादी ढांचा इतना बनावटी है कि कथ्य की सारी उत्तेजना याकि उदघाटन वास्तविक शिद्दत के साथ खप पाने में एक दिक्कत महसूस करते हैं। हर पात्र उसमें अपने दुनियादार कलेवर से बाहर आया हुआ है. क्यों?आखिर क्यों वह मिस बेणारे की फजीहत के लिए खुलेआम बेशर्म हो गया है? विजय तेंदुलकर अपने एक जबरिया मुहावरे के लिए पात्रों के अंदरूनी किरदार को बाहरी के तौर पर पेश करते हैं, जो कि कभी भी बहुत सहज मालूम नहीं देता। इसीलिए आज तक देखी ‘खामोश अदालत…’ की तमाम प्रस्तुतियां कभी भी बहुत आश्वस्तकारी महसूस नहीं हुईं। लेकिन युवा निर्देशक रोहित त्रिपाठी की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने अपनी काट-छांट और अच्छे चरित्रांकन के जरिए अपनी प्रस्तुति को पर्याप्त चुस्त बनाया है। आजादखयाल बेणारे के प्रोफेसर दामले से संबंध को लेकर नाटक के मध्यवर्गीय पात्रों की छिछोरी उत्सुकता को उन्होंने इस चरित्रांकन में बहुत खूबी के साथ बांधा है। नाटक शुरू से अंत तक प्रायः एक ही दृश्य-स्थिति में घटित होता है। ऐसे में पात्र अगर ठीक से अलग-अलग न दिखें तो सारा कुछ बहुत जल्दी अ-रोचक हो उठता है। रोहित मिस बेणारे के एक संवाद ‘ये बीसवीं शताब्दी के बचे हुए मानव अवशेष हैं, इनके अंदर अतृप्त वासनाएं भरी हैं’ की ही अपने पात्रों में अलग-अलग किस्म की व्यंजना करते हैं। उसमें टांग हिलाता, कान खोदता जज बना काशीकर और धोती को ऊपर तक चढ़ाए उसकी बीवी है, बार-बार अपने बालों पर हाथ फेरता वकील सुखात्मे है; नहीं-नहीं और हां-हां के असमंजस में फंसा और आधी सच्ची आधी झूठी कहानी बताता सकपकाया हुआ चपड़ासी रोकड़े उर्फ बालू है। सीधा-सादा सामंत है। मिस बेणारे की भूमिका में चंद्रकांता एन त्रिपाठी भी किरदार की बेबसी की बहुत अच्छी रंगतें अपने अभिनय में लाई हैं। एक किरदार जिसकी शख्सियत की सारी आजादी और खुशी एक हुजूम के आगे बेहद लाचार और बेवजूद है। सिवाय सामंत के कोई नहीं है जो उसकी पीड़ा से थोड़ी-बहुत ही सही सहानुभूति रखता हो।
यह प्रस्तुति थिएटर में अभिनय की ताकत की भी तस्दीक करती है। पात्रों का संजीदा अभिनय बेवजह तालियां पीटने वाले दर्शकों को भी तनाव के उस साधारणीकरण तक ले जाता है कि वे तालियां पीटने से बाज आते हैं। ऐसा नहीं कि इसमें आलेख का अपना योगदान नहीं रहा हो। परिवेश और संरचनागत सीमाओं के बावजूद नाटक में ऐसे प्रखर संवाद हैं जो उसके तंज को सार्वभौम मुहावरे में तब्दील करते हैं। ‘स्त्री क्षणकाल की पत्नी और अनंतकाल की माता है’। दरअसल यह नाटक कृत्रिम स्थितियों में एक भीषण यथार्थ पेश करता है। रोहित त्रिपाठी इस यथार्थ के तनाव को बगैर लड़खड़ाए मंच पर पेश करते हैं। वे संजीदा अभिनय, अच्छी प्रकाश योजना आदि के चुस्त संयोजन से देखने वालों को पाठ की गिरफ्त में लेते हैं। अपनी-अपनी ग्रंथियों में परपीड़ा का सुख लेते पात्रों के बरक्स एक विपरीत यथार्थ में अपने सुख को बटोरने की कोशिश करती बेणारे का निर्जीव सा कटघरे में पसर जाना इसी क्रम में धीरे धीरे देखने वालों को घेरता है। कलंक के डर में जीने वाली नायिका का यह चेहरा चाहे आज थोड़ा पुराना लगे, पर रोहित उसके पुराने दुख की मंच पर एक सच्ची शक्ल बनाते हैं।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें