नाटक का पात्र है वातावरण

कुछ नाटक अपनी प्रकृति में ही बहुत नफीस और नाजुक होते हैं। जरा-सा भी बेलिहाज छूने से उनकी त्वचा में पड़ा निशान बिल्कुल साफ दिखने लगता है। जैसे कि नाटक आषाढ़ का एक दिन। चेखव के नाटकों की तरह वह एक वातावरण के साथ दर्शक की चेतना में प्रवेश करता है। फिल्म राशोमन के उत्तरार्ध में जैसे तेज बारिश का धीरे-धीरे थमना कहानी सुन और सुना रहे पात्रों के मानसिक विरेचन की एक व्यंजना जैसी जान पड़ती हैउसी तरह यहां बादलों की गड़गड़ाहट और बारिश का बैकड्रॉप विषयवस्तु के द्वंद्व को थोड़ा तरल बनाता है। एक द्वंद्व जिसे हम वातावरण की स्निग्धता के पार से देख रहे होते हैं। सूप, आंगन, अलगनी, घड़ा, चौकी- ये सब साधारण चीजें इसे बहुत स्वाभाविकता से आकार देती हैं। लेकिन फिर भी इस सारे वातावरण को सक्रिय करने वाला तत्त्व उसके संवाद ही हैं। मोहन राकेश ने कभी कहा था- रंगमंच में बिंब का उदभव शब्दों के बीज से होता है। यह नाटक इसका एक सही उदाहरण है। दृश्यविधान के सीमित अवयव यहां शब्दों के जरिए जीवित होते हैं। भाषा का एक सही और सटीक चयन, जिसमें कोई असंयम या अतिरिक्तता का कोई नुक्स दिखाई नहीं देता। वह धीरे-धीरे बेहद सादगी से लेकिन ठोस ढंग से अपने दर्शकों को घेरती है। ग्राम्य प्रांतर में रहने वाले कालिदास की साहित्यिक ख्याति उज्जयिनी तक फैल चुकी है। उसे वहां से बुलावा आया है। अपने द्वंद्व और बाहरी दबावों में उज्जयिनी जाकर कालिदास से मातृगुप्त हुए कालिदास के व्यक्तित्व परिवर्तन और अपरिवर्तन की कथा है यह नाटक। अपने बाहरी कलेवर में मल्लिका को भूलकर कश्मीर का शासक बनने का प्रलोभन भी उसे कितना बदल पाया! इस प्रलोभन की सच्चाई और अपनी वास्तविकता से जुड़े रहने के उसके द्वंद्व के बरक्स मल्लिका को कोई भी प्रलोभन आकर्षित नहीं करते।
पिछले दिनों दिल्ली के श्रीराम सेंटर में हुए साहित्कय कला परिषद के युवा नाट्य उत्सव में भूपेश जोशी निर्देशित आषाढ़ का एक दिन में बीच-बीच में चूकें दिखाई देती हैं, लेकिन यह नाटक की अपनी ताकत है जो रंगकर्मियों को संभाल लेती है। भूपेश खुद बहुत अच्छे अभिनेता हैं, लेकिन कालिदास के चरित्र के साथ वे ठीक से एकाकार नहीं हो पाए हैं। कालिदास अपने द्वंद्व से अलावा भी कहीं गुम मालूम देता है। हालांकि मल्लिका के किरदार में ज्योति पंत निश्चित ही काफी बेहतर थीं। उनके अभिनय में किरदार की लय अंत तक काफी मुकम्मल थी। एक मौके पर महारानी के आगमन से पूर्व रंगिनी और संगिनी नामक दो परिचारिकाओं का आधुनिक ढंग की साड़ी में मंच पर प्रवेश बेहद खटकने वाला पहनावा था। शुरू के दृश्य में घायल हिरन को ले जाने आया शिकारी भी आवश्यकता से कुछ अधिक सजा-धजा हुआ है। अंतिम दृश्यों में पियक्कड़ हो चुका विलोम भी अधिक लाउड नजर आता है। आशीष शर्मा जैसे प्रतिभाशाली अभिनेता को दर्शकों की तालियों के व्यामोह में नहीं फंसना चाहिए। हालांकि अंततः उनकी स्वाभाविक अभिनय क्षमता ही उन्हें बचा पाती है। संभवतः आषाढ़ का एक दिन के किरदार खुद को आत्मसात किए जाने की उम्मीद रखते हैं। मेथड एक्टिंग का ढंग शायद यहां बहुत कारगर नहीं है। एक संवेदनशील आलेख संवेदना की ज्यादा गहराई की दरकार रखता है। वैसे अन्य भूमिकाओं में पात्रगण प्रायः दुरुस्त थे और प्रस्तुति की एक अच्छी बात यह भी थी कि दृश्य-संयोजनों के कुछ व्यतिक्रमों के बावजूद कथ्य की लय वहां आद्योपांत बनी रहती है। भूपेश जोशी ने नाटक के मूल ढांचे में ज्यादा छेड़छाड़ नहीं की है, और काफी हद तक वे उसकी सादगी बनाए रख पाए हैं।   
वैसे श्रीराम सेंटर में हुआ यह प्रदर्शन दर्शकों की संख्या के लिहाज से पूरी तरह सफल कहा जाएगा। हर मुमकिन जगह पर बैठे-खड़े ये दर्शक ताली बजाने के आसान काम को वजह-बेवजह काफी मुस्तैदी से अंजाम दे रहे थे। मोहन राकेश की आत्मा कहीं होगी तो ताली बजाने की इस आतुरता ने उनकी उदासी को जरूर चकित कर दिया होगा। बावजूद इसके कि उनका नाटक हर शोरशराबे के खिलाफ डटकर खड़ा रहता है।

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