बरेली में मोहनदास
उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में डॉ. ब्रजेश्वर एक जाने-माने ऑर्थोपीडिक सर्जन हैं। करीब एक-डेढ़ दशक पहले जब वे दिल्ली के मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज में पढ़ते थे उसी दौरान पड़ोस के मंडी हाउस में नाटक देखने के शौक ने कालांतर में उन्हें एक रंग-आयोजक बना दिया। वे पिछले कई साल से हर बरस जनवरी के महीने में शहर में एक नाट्य उत्सव का आयोजन करते हैं, उनकी अपनी रंग विनायक नाम की एक रेपर्टरी है, और अब उन्होंने दो सौ सीट की क्षमता वाला एक प्रेक्षागृह भी बना लिया है। यह सारा कुछ उन्होंने अपने निजी साधनों से किया है। वे एक सरल, खुशमिजाज और खासे ऊर्जावान इंसान हैं। दिन में ओपीडी, शाम को नाटक, और फिर वहां से वे देर रात ऑपरेशन थिएटर में पहुंचते हैं। उन्हें हर रोज चार-पांच ऑपरेशन करने होते हैं। इस तरह वे सुबह करीब पांच बजे सोने जा पाते हैं। रंगमंच से संबंधित उनके पूरे उपक्रम की एक आलोचना यह है कि इसे सिर्फ शहर के अभिजात तबके को ध्यान में रखकर बनाया गया है। वहां आम लोगों के प्रवेश की कोई गुंजाइश नहीं है। प्रकटतः और प्रथमदृष्टया यह आरोप सही भी मालूम देता है। प्रेक्षागृह के परिसर में एक नए जमाने की महंगी कॉफी शॉप है, और प्रेक्षागृह में प्रवेश भी प्रायः कुछ नियमित सदस्य दर्शकों को ही दिया जाता है।
डॉ ब्रजेश्वर अभी युवा हैं और अपनी व्यस्तता और संपन्नता की वजह से थोड़े मासूम भी मालूम पड़ते हैं। थिएटर की दुनिया के दांवपेचों को ज्यादा जानने की शायद उनके पास मोहलत भी नहीं है। किसी नाटक की चर्चा सुनने पर वे टैक्सी से सीधे दिल्ली चले आते हैं और इसी तरह कुछ सुनकर कुछ देखकर वे अपने फेस्टिवल के लिए नाटकों का चयन करते हैं। इस बार फेस्टिवल की दस नाट्य प्रस्तुतियों की लिस्ट में एक उदयप्रकाश की कहानी ‘मोहनदास’ पर आधारित राजेंद्रनाथ निर्देशित श्रीराम सेंटर रंगमंडल की इसी शीर्षक प्रस्तुति भी थी। अपनी कहानी में उदयप्रकाश ने आखिरी बूंद तक भ्रष्ट हो चुकी एक दुर्दांत व्यवस्था की विडंबना को एक चिट्ठे की तरह पेश किया है। इस व्यवस्था में व्यक्ति की नियति को भूमंडलीकरण के पहलुओं से जोड़ने के लिए वे कई बार किसी लेख की तरह के ब्योरे भी कहानी में ले आते हैं। मंचन के लिहाज से प्रस्तुति में कुछ भी अतिरिक्त रूप से उल्लेखनीय नहीं है। थोड़ा-बहुत पात्रों का यथार्थवाद और बाकी दर्शकों को संबोधित इकहरा नैरेशन। लेकिन इसके बावजूद प्रस्तुति का साफ-सुथरापन और उसमें व्यक्त तीखा और सामयिक सच दर्शकों को बांधे रखता है। एक शख्स को मिली नौकरी पर मिलीभगत के जरिए एक दूसरा शख्स कब्जा कर लेता है। इसके लिए उसने अपना नाम भी बदल लिया है। सालों बाद मामला कोर्ट में पहुंचने पर वहां भी ऐसा ही कुछ हाल है। अपनी नौकरी और नाम को हासिल करने की कोशिश में लुटा-पिटा मोहनदास आखिर में यह दारुण बिनती करता है कि उसे इस नाम से न जाना जाए। प्रस्तुति एक पिटे हुए ढंग से बार-बार दर्शकों को कुछ ज्यादा ही संबोधित है। खुद निर्देशक द्वारा तैयार किया गया आलेख इतना सरलीकृत है कि शुरू के दृश्य में चरित्रों का दर्शकों से परिचय कराया जाता है। स्थितियां प्रस्तुति में सिर्फ सहयोगी ढंग से घटित होती हैं। फिर भी एक नाटकीय युक्ति प्रस्तुति में ठीक से थी, जिसमें एक पात्र की पीठ पर कालबेल की तरह अंगूठा दबाया जाता है, और जवाब में बजने वाली घंटी लिए वह खुद ही खड़ा है।
प्रस्तुति के बाद किसी दर्शक को उसमें दर्शाई गई स्थितियां अतिरंजित लगीं और उसने सवाल उठाया कि क्या आज के इतने आधुनिक वक्त में ऐसा संभव है। दिलचस्प ढंग से निर्देशक को इसका जवाब देने की जरूरत नहीं पड़ी, और दर्शकों के बीच से ही इसके प्रतिवाद में कई स्वर उठ खड़े हुए। पता नहीं ये दर्शक कितने उच्चवर्गीय थे, पर उनका प्रतिवाद देशकाल की उनकी जानकारी को तो जता ही रहा था। उनमें से कई आवाजों ने यह माना कि प्रस्तुति में दिखाई गई घटना जैसी घटनाएं देश में कई गुना स्तर पर हो रही हैं।
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