सारा : एक आत्महंता विद्रोह
मेरे जज्बे अपाहिज कर दिए गए हैं
मैं मुकम्मल गुफ्तगू नहीं कर सकती
मैं मुकम्मल उधार हूं
मेरी कब्र के चिरागों से हाथ तापने वालो
ठिठुरे वक्त पर एक दिन मैं भी कांपी थी
अपनी नज्म ‘आंखें सांस ले रही हैं’ में एक मुकम्मल बेचैनी का बयान करने वाली ये सतरें हैं पाकिस्तानी शायरा सारा शगुफ्ता की। सारा ने 4 जून 1984 को साढ़े 29 साल की उम्र में खुदकुशी कर ली थी। इससे पहले वह ऐसी चार कोशिशें और कर चुकी थी। आखिर वो कैसी जिंदगी थी जिसकी शिद्दत को बार-बार इस नतीजे तक पहुंचने के लिए मजबूर होना पड़ा। नाटककार शाहिद अनवर ने इसी के ब्योरे अपने एकल नाट्य ‘सारा’ में समेटे हैं, जिसकी प्रस्तुति पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कन्वेंशन सेंटर में की गई। लगभग खाली मंच पर अभिनेत्री सीमा आजमी इस पाठ को बताती और चित्रित करती हैं। उनके बयान में नाटकीयता खास नहीं है, पर इतना साफ-सुथरा वह जरूर है कि देखने वाले को पूरा सिलसिला समझ आ जाए। अव्वल तो सारा शगुफ्ता की छोटी-सी जिंदगी खुद में ही खासी नाटकीयता से भरी रही है, फिर शाहिद अनवर ने भी अपनी तरतीब में अपनी प्रोटागोनिस्ट की बेबाकी को एक रोमांटिक मुहावरे में एक नज्म की मानिंद पिरोया है। यह उर्दू का खालिस अपना रोमांटिसिज्म है, जहां किरदार अपनी बेबसी को सामने खड़ा करके उसी से गुफ्तगू करता दिखाई देता है। आप बेमुरव्वत जिंदगी का कुछ बिगाड़ नहीं सकते, पर उसकी हर इंतेहा के मुकाबले अपने जज्बे को थोड़ा-सा और इकट्ठा करते हैं। कोई कहता सारा शायरी तो अच्छी करती है पर उसे दुपट्टे की सूझ नहीं है; कोई कहता सारा मुझसे इश्क करती है, वह तो एक आसान शिकार है, मेरे साथ सो चुकी है। पर सारा ऐसे छिछोरे मर्दों की औकात जानती है। वह कहती है- इन आला नस्ली कुत्तों को कोई तो समझाता कि अरे भई, अगर सारा के साथ सोए भी हो तो तुमने कौन-सा तीर मार लिया... ‘मैदान मेरा हौसला है/अंगारा मेरी ख्वाहिश/ हम सर पे कफन बांध कर पैदा हुए हैं/ कोई अंगूठी पहनकर नहीं/ जिसे तुम चोरी कर लोगे’
वह अपनी ग्यारह बच्चे पैदा करने वाली मां के बारे में सोचती है कि क्या मेरी मां की कोख महज एक आदत थी, क्या तिनके भर भी मोहब्बत उसमें शामिल न थी। अपने बारे में वो बताती है- चार बार मेरी शादी हुई। चार बार मैं पागल बनी। चार बार खुदकुशी की कोशिश की, और चार किताबें इस लफ्जमारी के हाथ लगीं। पहले शौहर ने उसे बदचलन करार देकर तलाक दे दिया। लेकिन सारा को बदचलन ठहराए जाने का नहीं, गम था तो बच्चों से दूर होने का। ‘तीन इंसान जनने के बाद भी अकेली’ सारा ने तब अदालत में गुहार लगाई और कहा, जज साहब, मेरा शौहर रहा यह आदमी सही कह रहा है कि मैं बदचलन, बदकिरदार, आवारा हूं. इसलिए मैं इकबाल करती हूं कि ये बच्चे इसके नहीं हैं. अदालत मुझे इजाजत दे कि मैं इन बच्चों को उनके बाप तक पहुंचा सकूं।
सीमा आजमी की इस एकल प्रस्तुति का निर्देशन महेश दात्तानी ने किया है। उसकी एक जाहिर खामी यह है कि एक मिजाज की कमी उसमें बिल्कुल साफ दिखती है। सारा के तंज और उसकी जज्बाती शख्सियत को जज्ब करने के बजाय सीमा मानो खुद को एक नैरेटर की सरहद में रखकर ही मुतमइन हैं। कुछ मौकों पर तीखी लाल रोशनी या बुरका या गोगल्स आदि छिटपुट थिएट्रिकल औजार उन्होंने जरूर इस्तेमाल किए हैं, पर असली चीज किरदार की शिद्दत उनके अभिनय में थोड़ी छिटकी हुई है। प्रस्तुति इस अर्थ में निहायत सादा है। आलेख के स्तर पर भी शुरू के हिस्सों में ‘मैं’ और ‘मेरा’ की शैली को कुछ कम किया जाना चाहिए। चीजें इससे एक सायास शक्ल लेती हैं।
यहां इस तथ्य का जिक्र भी शायद जरूरी है कि दो-ढाई साल पहले इस प्रस्तुति का मंचन जब मुंबई में किया गया था तो इसपर शिवसेना वालों ने बखेड़ा कर दिया था। जाहिर है कि उन्हें नाटक की विषयवस्तु वगैरह का कुछ ठोस शायद पता नहीं था, और सारी बौखलाहट कहीं से सिर्फ ‘पाकिस्तानी शायरा’ सुन लेने की ही होगी।
भावनात्मक सराहनीय अभिव्यक्ति . एकदम सही बात कही है आपने संवैधानिक मर्यादाओं का पालन करें कैग आप भी जाने अफ़रोज़ ,कसाब-कॉंग्रेस के गले की फांस
जवाब देंहटाएंआपके ब्लॉग पर पहली बार आया और बहुत सुंदर और सार्थक पोस्ट पढ़ने को मिली आभार
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