संबंध का दूर और पास


इस महीने की 5 तारीख को 15वें भारत रंग महोत्सव की उदघाटन प्रस्तुति के तौर पर कमानी प्रेक्षागृह में महेश एलकुचवार के नाटक आत्मकथा का मंचन किया गया। विनय शर्मा निर्देशित यह कोलकाता के पदातिक ग्रुप की प्रस्तुति थी। इसमें एक लेखक के उलझे हुए संबंधों की मार्फत संबंधों की प्रकृति को समझने की कोशिश की गई है। एक रिश्ते में चाहत का घनत्व दोनों पक्षों में एक जैसा नहीं होता। पर एक मर्यादा या जिम्मेदारी का भाव होता है जिसमें वे निभते रहते हैं। कई बार टूटकर भी निभते रहते हैं। किसी क्षणिक परिस्थिति में बना रिश्ता कई बार विश्वास की गहरी टूट-फूट पैदा करता है जहां हर कोई बेहद असहाय हो जाता है। ऐसी असहाय परिस्थिति में मनुष्य क्या करे? लेखक अनंतराव कहता है- लोग हर पल बदल जाते हैं, इसलिए संबंध भी। हर क्षण नाता जोड़ते रहना चाहिए,क्योंकि इंसान के संबंध से अनित्य कुछ भी नहीं होता। संबंध में हमें दूसरे से एक प्रकाश मिलता है। हालांकि यह प्रकाश भी अनित्य है, लेकिन यही इस जीवन का दारुण सच है।
यह एक अलग किस्म का मंच है- भीतर की ओर संकरा होता हुआ। उसकी दीवारों पर हर फेड आउट के समय पिछले दृश्यों की नेगेटिव प्रिंट जैसी छायाएं उभरती हैं। बिल्कुल अंतिम छोर पर वहां एक दरवाजा है। यह यथार्थवादी मंच नहीं है, लेकिन प्रस्तुति का बाकी ढांचा वैसा ही है। पहले ही दृश्य में मंच के प्रकाशमान होते ही लेखक अनंतराव नपे-तुले शब्दों में गांधी के उभार और तिलक की मृत्यु के राजनीतिक दौर पर गद्यात्मक पंक्तियां बोलता दिखता है। यह उसकी लिखी जा रही आत्मकथा का एक वर्णन है, जिसे टेपरिकॉर्डर पर रिकॉर्ड किया जा रहा है। एक शोध छात्रा उसकी मदद कर रही है। अनंतराव ने एक उपन्यास लिखा है, जिसके पात्र और घटनाओं का उसके जीवन से गहरा ताल्लुक है। उपन्यास की उर्मिला और वसुधा वास्तविक जीवन की सगी बहनें उत्तरा और वासंती हैं। उत्तरा अनंतराव की प्रेमिका और संगिनी रही है। लेकिन कभी उसकी अनुपस्थिति में उसकी बीस साल छोटी, लगभग बेटी जैसी, बहन वासंती से बना अनंतराव का ताल्लुक तीनों की नैतिकता में अलग-अलग तरह से चुभा हुआ है। नाटक में ये सारी स्थितियां रह-रह कर फ्लैशबैक के रूप में घटित होती हैं। और इसी के समांतर घटित होती हैं उपन्यास की मिलती-जुलती स्थितियां। वास्तविकता से ये स्थितियां थोड़ी फर्क हैं। जाहिर है असलियत को बयान करने में लेखक कहीं कतरा गया है। आलोचकों के मुताबिक गहरे उतरकर जीवन की थाह लेने वाला लेखक अनंतराव दरअसल सच्चाई को गोलमोल करता रहा है। शोधछात्रा इसे महसूस करती है और अनंतराव इसे कबूल करता है। वह कहता है- मैंने उर्मिला और वसुधा की कहानी को कितना झूठा बना रखा है। सत्य पर असत्य का मुलम्मा...झूठ की चादर।
नाटक इतना गठे हुए तरीके से लिखा गया है कि शोध छात्रा खुद भी पल-पल बदलते मनुष्य का उदाहरण है। वह अपने हमउम्र प्रेमी को छोड़कर बुजुर्ग अनंतराव से प्रेम करने लगी है। इस प्रेम की तमाम असंगतियों को जानते हुए भी वह अपनी भावना को लेकर निरुपाय है और खुद के प्रति अनंतराव की उदासीनता को लेकर आहत। नाटक शुरू से अंत तक ऐसी ही बहुत से निरुपाय स्थितियों का सिलसिला है। अपने-अपने सच पर एक-दूसरे से जुड़ी नियतियों वाले पात्रों का नाटक।  
नाटक कुछ ऐसा है कि उसे किसी बाहरी सहायता की बहुत आवश्यकता नहीं है। ऐसे में निर्देशक विनय शर्मा की डिजाइनर-कवायद बेवजह उसकी लय में एक खलल डालती है। बेवजह के फेड इन फेड आउट उसे कम से कम बीस मिनट लंबा खींचते हैं। हर थोड़ी देर बाद एक अंधेरा है, जिसमें मंच की दीवारों पर उभरती डिजिटल छायाओं के बीच पात्रगण वहां रखी बेंचों वगैरह को न जाने क्यों इधर से उधर और उधर से इधर किया करते हैं। हालांकि इस व्यवधान से इतर अभिनय का यथार्थवाद प्रस्तुति में काफी बेहतर है। अनंतराव के किरदार की लय को कुलभूषण खरबंदा इतना सटीक आकार देते हैं कि उसमें कहीं एक खरोंच तक दिखाई नहीं देती। एक किरदार जो एक साथ उद्विग्न और आश्वस्त है और जिसका अनुभव सच्चाई की नियति को जानता है। शोध छात्रा की भूमिका में अनुभा फतेहपुरिया भी ऊंचे दर्जे की अभिनेत्री हैं, जिनका भंगिमाओं और स्पीच पर नियंत्रण सहज ही दिखाई देता है। अन्य दोनों भूमिकाओं में चेतना जालान और संचयिता भट्टाचार्जी भी संतुलित थीं।

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