मैकबेथ का मुहावरा
पारंपरिक शैलियां कलाकारों से कहती हैं हमें आत्मसात करो। लेकिन बहुत से निर्देशकगण उन्हें ढांचा-मात्र मानने की गलती करते हैं। आधुनिक थिएटर में ऐसी ही एक पारंपरिक शैली के परिष्कार का अच्छा उदाहरण राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के दूसरे वर्ष के छात्रों की प्रस्तुति ‘मैकबेथ’ में देखने को मिला। रघुवीर सहाय के अनुवाद को निर्देशक केएस राजेंद्रन ने तमिलनाडु की थेरुक्कुटु नाट्य शैली में अस्थायी बनाई गई दर्शकदीर्घा से युक्त अभिमंच प्रेक्षागृह में प्रस्तुत किया। ‘थेरुक्कुटु महज एक नाट्य शैली नहीं है। यह लोगों की भावनाओं,मूल्यों, जीवनगत रवैयों से बंधी है, जो इस कला में संगत करने वाली बहुतेरी रस्मों में प्रतिबिंबित होते हैं। कुटु में आए रस्मोरिवाज समुदाय को कला से इस तरह से जोड़ते हैं कि यह शैली लोगों द्वारा महसूस और अनुभूत किए गए यथार्थ की अभिव्यक्ति बन जाती है। थेरुक्कुटु में कथानक पुराकथाओं- विशेषकर महाभारत- से लिए जाते हैं और इसके प्रदर्शन द्रौपदीयम्मन मंदिर में प्रायः मार्च से जुलाई के दरम्यान रात भर होते हैं।’
लेकिन केएस राजेंद्रन की प्रस्तुति किसी पुराकथा या लोकआख्यान पर आधारित नहीं, बल्कि‘मैकबेथ’ है। ऐसे में वे आधुनिक शहरी मंच के टाइम और स्पेस के अनुरूप पारंपरिकता के भदेस की छंटाई करते हैं। भदेस सामंजस्य की ज्यादा परवाह नहीं करता, और उसका रस उसकी स्फूर्त स्वाभाविकता से पैदा होता है। पर राजेंद्रन अपनी प्रस्तुति को ध्वनियों और गतियों के एक चुस्त-तीखे सामंजस्य में निबद्ध करते हैं। पात्रों के कास्ट्यूम, रंगभूषा और अतींद्रिय भावभंगिमाएं अपने में एक ही दृश्य बनाते हैं। सिर पर बेंत के रेशों से बना ताज, आंखों के आसपास की जगह रंगी हुई, चोगे जैसे वस्त्र, एक साथ पड़ती पैरों की थापें और पीछे बैठा संगीत पक्ष। युद्ध के दृश्य में एक पक्ष घोड़े के चेहरे के बड़े से मुखौटे को हाथ में पहने है, दूसरा पक्ष ढाल लिए है। उनकी कोरियोग्राफी देखने लायक है। इसी तरह तीनों‘चुड़ैलें’ दृश्य में नीला दुपट्टा कलाई पर बांधे हुए हैं। दो पात्रों द्वारा पकड़े परदे के पीछे वे दूसरी ओर मुंह किए खड़ी हैं। परदे के आगे उनके खुले बाल अजीब सी वस्तु की तरह दिख हुए हैं। इन दृश्यों में संगीत और गति के समवेत से आकर्षण बनता है। राजेंद्रन दृश्य दर दृश्य इसमें वैविध्य पैदा करते हैं। ‘राजा मैं हूं राजा/ महाबली डंकन’ गाते हुए तीन कलाकार अपनी एकरूप गतियों से एक दिलचस्प स्थिति बनाते हैं। तुरही या शहनाई जैसा वाद्य, ढोलक, हारमोनियम, मंजीरा इन गतियों के आरोह-अवरोह में अपने तईं एक इजाफा करते हैं। शेक्सपीयर का नाटक इस आयोजन में एक निमित्त की तरह है। कहानी की लीक यहां उतनी स्पष्टता से नहीं खुलती लेकिन उसका तनाव पात्रों के चेहरों और पूरी संरचना में बिल्कुल साफ हैं। दर्शक देख रहे हैं कि पात्र किसी गहरे द्वंद्व से गुजर रहे हैं। मैकबेथ की मानसिक उठापटक बिल्कुल जाहिर है। स्थिति का छल उसकी विडंबना यहां अभिव्यक्ति के एक बिल्कुल नए मुहावरे में सामने हैं। मानो यह कथावस्तु नहीं उसकी अंतर्वस्तु का विन्यास है। ऐसे में कुछ संवाद अनायास कुछ ज्यादा आशयपूर्ण मालूम देते हैं। ‘राजपुत्र, तेरा चेहरा एक कागज की तरह है, जिसपर लिखे समय के रहस्य पढ़े जा सकते हैं।’ या ‘मैकबेथ, निर्दयी बन, निर्भय बन, अविचल रह!’ बैंको मारा जा चुका है, पर उसका प्रेत नहीं मारा जा सकता। पीली रोशनी में परदे के पीछे से उसका झक्क सफेद चेहरा धीरे से उभरता है और फिर छिप जाता है। और मैकबेथ की दहशत थोड़ी सी बहकर मानो दर्शकों के भीतर तक चली आई है। एक अन्य दृश्य में चादर पर रोशनी इस तरह पड़ रही है कि उसके पीछे मौजूद लोग अजीब से रहस्यात्मक आकारों में तब्दील हो गए हैं।
प्रस्तुति में चीजें एक सही अनुपात में नजर आती हैं। दृश्यों का सौंदर्य इसी संयोजन से बनता है। राजेंद्रन रोशनियों, संगीत, भंगिमाओं, नृत्यगतियों आदि के वैविध्य और उनकी सूक्ष्मता को दृश्य और श्रव्य के एक संजीदा संयोजन में पेश करते हैं। एक निर्देशक के बतौर अभिनय-पक्ष पर उनका नियंत्रण हमेशा ही रहा है। उनकी यह प्रस्तुति आधुनिक थिएटर की चुस्ती और पारंपरिकता के लास्य को एक साथ पेश करती है, और इस तरह नाटक मैकबेथ का एक नया संस्कार करती है।
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