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जनवरी, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अनिश्चित और अनायास की लय

लय को अगर क्षणों में तोड़ा जाए तो पेश आने वाले व्यतिक्रमों से भी एक लय बनाई जा सकती है। किसी जमाने में अतियथार्थवाद ने जब यथार्थवाद को उसकी सीमा बताई थी तो शायद उसने यही किया था। पूरी पश्चिमी कला मानो इसी क्षण की दूरबीन से संसार की कैफियत जानने की कोशिश में लगी है। जैसे समय के अनंत भंडार में यह क्षण मौजूद है वैसे ही लोगों के हुजूम में व्यक्ति। सभ्यता के ऊबड़खाबड़ विस्तार में व्यक्ति की हर गति समय से उसके संबंध का सबूत है। बीते दिनों अभिमंच प्रेक्षागृह में हुई पोलिश प्रस्तुति ‘ आफ्टर द बर्ड्स ’  एक कथानक को ऐसी ही बहुत सी गतियों में तब्दील करती है। इस क्रम में शरीर एक स्वयंभू उपकरण हो गया है। इस तरह वह क्षण की वास्तविकता को परखता है। एक लड़की फर्श पर पेट में पैर दिए पड़ी है, दूसरी आकर उसे सीधा करती है। पर पड़ी हुई लड़की किसी रबड़ के बड़े टुकड़े की तरह फिर से वैसे ही मुड़ गई है। प्रस्तुति में पात्रगण बहुत से एकाकी लोगों का समूह नजर आते हैं। वे सहज भाव से शरीर के मुश्किल करतब करते हैं। वे एक कोरस में गाते हुए इधर से उधर जाते हैं। रास्ते में पड़े एक पात्र से बेपरवाह वे चले जा रहे हैं। ए

क्लासरूम में कश्मीर

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की डिप्लोमा प्रस्तुतियों में छात्रगण मंच पर काफी कुछ ठूंस देने की आदत के शिकार हैं। इधर के अरसे में इन प्रस्तुतियों में कोई अवधारणात्मक चमक विरले ही दिखाई देती है , अलबत्ता किसी ऊंचे खयाल की एक भंगिमा जरूर होती है। भारत रंग महोत्सव में हुई प्रस्तुति  ‘ द कंट्री विदाउट ए पोस्ट आफिस ’  भी इसी श्रेणी का एक भावुक उच्छवास है। आगा शाहिद अली की कविता पर आधारित कश्मीर समस्या का एक रंगमंचीय रेटॉरिक। मालूम पड़ता है निर्देशक मुजम्मिल हयात भवानी ने रंगमंचीय डिजाइन का हर देखा-सुना अवयव इसमें पैबस्त कर दिया है। प्रवेश करते ही पूरे प्रेक्षागृह में अंतर्देशीय लिफाफे यहां-वहां बिखरे पड़े हैं। दाएं सिरे पर पोस्ट आफिस में बैठा पोस्टमास्टर दिखाई देता है। फिर बीच के गलियारे से पात्रगण यहां प्रवेश करते हैं। वे प्रायः बुरके और पठानी सूट में हैं और गाते हैं-  ‘ मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको/ नेक जो राह हो उस राह पे चलाना मुझको. ’  फिर वे राष्ट्रगान गाते हैं। दिलचस्प ढंग से सारे दर्शक भी राष्ट्रगान सुनकर खड़े हो गए हैं। फिर क्लासरूम का दृश्य ,  जहां बिंदी-साड़ी वाली अध्यापिका गाय

फेलिनी के किरदार और बकरी

भारत रंग महोत्सव में नवयथार्थवादी दौर के इतालवी फिल्मकार फेदेरिको फेलिनी की फिल्मों के किरदारों और स्थितियों से प्रेरित प्रस्तुति  ‘ फेलिनी ’ स ड्रीम ’  का प्रदर्शन किया गया। विश्व सिनेमा में फेलिनी एक बिल्कुल अलग शैली और विषयों की रेंज के लिए जाने जाते हैं। फेलिनी का सिनेमा अपने में ही एक पूरा संसार है। इन फिल्मों के दर्शक रहे दर्शकों के लिए निश्चित ही यह प्रस्तुति ज्यादा रुचिकर रही होगी, लेकिन अनभिज्ञ दर्शकों के लिए भी उसमें काफी कुछ था। यह प्रस्तुति क्या है, निर्देशक पिनो दि बुदुओ का यह बयान इसे ज्यादा ठीक से बता पाता है-  “ यह प्रस्तुति अभिनेता की भूमिका और स्टेज पर उसकी उपस्थिति को आधुनिकतम डिजिटल और प्रकाश तकनीक के साथ संयुक्त करती है। ”  मंच के बीचोबीच लटकते धागों से बना एक विशाल परदा है। इसी पर बहुरंगी रोशनियों के आकार विशाल वीडियो प्रोजेक्शन की मदद से फेलिनी की फिल्मों की आभासी भावयोजना बनाते हैं। थोड़ी-थोड़ी देर में अलग-अलग पात्र तरह-तरह के परिधानों में आते हैं। कभी कोई पात्र चेहरे पर रंग पोते है, कभी कोई मुखौटा लगाए हैं। परदे पर कभी इमारतें, कभी विशाल प्रेक्षागृह, कभी झूम

संबंध का दूर और पास

इस महीने की 5 तारीख को 15 वें भारत रंग महोत्सव की उदघाटन प्रस्तुति के तौर पर कमानी प्रेक्षागृह में महेश एलकुचवार के नाटक  ‘ आत्मकथा ’  का मंचन किया गया। विनय शर्मा निर्देशित यह कोलकाता के पदातिक ग्रुप की प्रस्तुति थी। इसमें एक लेखक के उलझे हुए संबंधों की मार्फत संबंधों की प्रकृति को समझने की कोशिश की गई है। एक रिश्ते में चाहत का घनत्व दोनों पक्षों में एक जैसा नहीं होता। पर एक मर्यादा या जिम्मेदारी का भाव होता है जिसमें वे निभते रहते हैं। कई बार टूटकर भी निभते रहते हैं। किसी क्षणिक परिस्थिति में बना रिश्ता कई बार विश्वास की गहरी टूट-फूट पैदा करता है जहां हर कोई बेहद असहाय हो जाता है। ऐसी असहाय परिस्थिति में मनुष्य क्या करे ?  लेखक अनंतराव कहता है- लोग हर पल बदल जाते हैं, इसलिए संबंध भी। हर क्षण नाता जोड़ते रहना चाहिए , क्योंकि इंसान के संबंध से अनित्य कुछ भी नहीं होता। संबंध में हमें दूसरे से एक प्रकाश मिलता है। हालांकि यह प्रकाश भी अनित्य है ,   लेकिन यही इस जीवन का दारुण सच है। यह एक अलग किस्म का मंच है- भीतर की ओर संकरा होता हुआ। उसकी दीवारों पर हर फेड आउट के समय पिछले दृश्यों क

मैकबेथ का मुहावरा

पारंपरिक शैलियां कलाकारों से कहती हैं हमें आत्मसात करो। लेकिन बहुत से निर्देशकगण उन्हें ढांचा-मात्र मानने की गलती करते हैं। आधुनिक थिएटर में ऐसी ही एक पारंपरिक शैली के परिष्कार का अच्छा उदाहरण राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के दूसरे वर्ष के छात्रों की प्रस्तुति   ‘ मैकबेथ ’   में देखने को मिला।     रघुवीर सहाय के अनुवाद को   निर्देशक केएस राजेंद्रन ने तमिलनाडु की थेरुक्कुटु नाट्य शैली में अस्थायी बनाई गई दर्शकदीर्घा से युक्त अभिमंच प्रेक्षागृह में प्रस्तुत किया।   ‘ थेरुक्कुटु महज एक नाट्य शैली नहीं है। यह लोगों की भावनाओं , मूल्यों ,  जीवनगत रवैयों से बंधी है ,  जो इस कला में संगत करने वाली बहुतेरी रस्मों में प्रतिबिंबित होते हैं। कुटु में आए रस्मोरिवाज समुदाय को कला से इस तरह से जोड़ते हैं कि यह शैली लोगों द्वारा महसूस और अनुभूत किए गए यथार्थ की अभिव्यक्ति बन जाती है।   थेरुक्कुटु में कथानक पुराकथाओं- विशेषकर महाभारत- से लिए जाते हैं और इसके प्रदर्शन द्रौपदीयम्मन मंदिर में प्रायः मार्च से जुलाई के दरम्यान रात भर होते हैं। ’    लेकिन केएस राजेंद्रन की प्रस्तुति किसी पुराकथा या लोकआख्

आओ मिलकर झूठ बोलें

दिल्ली में हुई रेप की घटना पर एक बड़े फिल्म स्टार ने, जिसने कभी पूरी दबंगई से कबूल किया था कि हां मैं शादियों में नाचकर पैसा कमाता हूं, भी शोक प्रकट किया। एक मशहूर हो गए शायर-कवि ने, जिसे एक आप्रवासी पूंजीपति की बेटी की शादी का विवाह-गीत लिखकर पैसा कमाने में गुरेज न हुआ, ने भी अपनी सुघड़ राय प्रकट की। देश के गृहमंत्री ने भी बताया कि मैं तीन बेटियों का बाप हूं और बहुत चिंतित हूं। इस तरह इस घटना के बहाने बहुत से लोगों के मानवीय या नागरिक पक्ष सामने आए। मैं उस प्रसिद्ध खिलाड़ी का बयान भी इस बारे में ढूढ़ता रहा, जिसके रिटायर न होने के अद्वितीय लालच में भी एक महानता निहित बताई जा रही है। पर उसका बयान दिखा नहीं। दुख प्रकट करना एक ऐसा काम है जिसमें किसी का कुछ भी घिसता नहीं है। दुख प्रकट करो और इसके बाद आराम से जैसा चाहो वैसा जीवन जियो। सब जानते हैं कि बलात्कार की न यह पहली खबर है न आखिरी। सब जानते हैं कि मंत्रियों और धनी लोगों की बहू-बेटियों से बलात्कार नहीं हुआ करता। इसलिए उनकी दुख की भंगिमा या तो शालीनता हो सकती है या छद्म। किसी चैनल ने गृहमंत्री या प्रधानमंत्री से यह नहीं पूछा कि भाईसा

कव्वाली के इतिहास पर नाटक

पिछले सप्ताह दिल्ली के इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर में नाट्य प्रस्तुतित लश्कर-ए-कव्वाली देखने को मिली। युवा रंगकर्मी दानिश इकबाल के निर्देशन में यह कव्वाली के इतिहास पर एक डाकुड्रामा थी। मंच पर कव्वाली स्वयं एक नायिका के रूप में बीच-बीच में आकर अपने बारे में बताती है। इसके अलावा और बहुत कुछ बताने के लिए एक बुजुर्ग फकीर है। कुछ कव्वालों और कव्वाली की तारीख के सादिया देहलवी जैसे जानकारों के इंटरव्यू की रिकॉर्डिंग के टुकड़े भी हैं। और इस सबको एक नाटकीय रोचकता से जोड़े रखने के लिए मंच पर एक जमाल और कमाल हैं। प्रस्तुति के आलेखकार विजय सिंह ने इस पूरे सिलसिले का एक अच्छी तरतीब में संयोजन किया है। कव्वाली कहती है- मेरा जन्म हुआ उस अस्ल सच्चाई को जानने के लिए। सबसे बड़ी सच्चाई अनहद का दीदार करना है। इसके लिए तालिबे इल्म होने से पहले तालिबे इश्क हो जाओ। बुजुर्ग फकीर कहता है- कव्वाली की तारीख में जाते हुए बहस में मत पड़ना बेटे !  पर बहसबाज जमाल और कमाल अपनी खुर्दबीनी से कहां बाज आने वाले। दाढ़ी सहलाते हुए कमाल सवाल करता है- ये सूफी को सूफी क्यों कहते हैं। इस तरह तारीख की बाकायदगी के बी

टोबा टेकसिंह का पूरा सच

रंगकर्मी राजेश बब्बर के पिता का जन्म बंटवारे से पहले लायलपुर जिले के टोबा टोकसिंह में हुआ था। वही टोबा टेकसिंह जो मंटो की कहानी के सरदार बिशनसिंह का घर था। राजेश बब्बर ने इसी शीर्षक अपनी प्रस्तुति में मंटो की कहानी में अपना एक पूर्वार्ध जोड़ा है, जिसमें बिशनसिंह देश के बंटवारे से पहले घर और खेत का बंटवारा भोगता है, और दरअसल इसी बंटवारे के क्रम में वह पागल हुआ। बंटवारा अपनी जिंदगी में खोए बिशनसिंह के लिए एक व्यवधान की तरह पेश आता है। उसने इसके बारे में कभी सोचा नहीं था। इस तरह यह पूर्वार्ध मूल कहानी को ज्यादा आसान और युक्तिपूर्ण बनाता है। मंटो की कहानी प्रकटतः जितनी नाटकीय जान पड़ती है, मंच पर  वह  उतनी नाटकीय बन नहीं पाती है। ज्यादातर प्रस्तुतियों में देखा है कि बंटवारे की विडंबना बिशनसिंह के किरदार में एक अतिनाटकीय उपक्रम बनकर रह जाती है। स्टेज के दृश्यात्मक नैरेटिव में  बिशनसिंह का पागलपन  उस वृहत्तर ट्रैजडी को सामने नहीं ला पाता, जिसका वह खुद एक रूपक है। इस लिहाज से राजेश बब्बर का पूर्वार्ध किरदार की एक लय बनाता है। मंच पर बिशन सिंह पुरानी रौ के एक खांटी चरित्र के तौर पर नजर आता

एकालापों से बनता संवाद

वरिष्ठ रंग निर्देशक सुरेश भारद्वाज की प्रस्तुतियां प्रायः एक सादगी लिए होती हैं। उनमें कम पात्र होते हैं ,  लिहाजा अभिनय का स्पेस ज्यादा बन पाता है। वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में लाइट डिजाइन के प्रोफेसर हैं ,  ऐसे में जाहिर ही प्रकाश योजना दूसरा ऐसा तत्त्व है जिसका गहरा असर उनकी प्रस्तुतियों में महसूस किया जा सकता है। प्रायः वे   अपने दृश्य   शांत रोशनियों से ही तैयार करते हैं। कहीं कोई शोर शराबा नहीं। मंच पर बोला जा रहा एक-एक शब्द अपनी गहराई और विस्तार में दर्शकों तक संप्रेषित है। अपने ग्रुप आकार कला संगम के जरिए वे अरसे से इसी शैली में काम करते आए हैं। लेकिन इधर के अरसे में उनकी इस शैली  में कुछ  क्लीशे काफी साफ दिखने लगे हैं। साहित्य कला परिषद के मॉडर्न थिएटर फेस्टिवल में उनकी प्रस्तुति   ‘ मठ के रास्ते में एक दिन ’   में भी ये दिखते हैं। एक बड़ा क्लीशे यह है कि  उनके यहां दृश्य जैसे एक दोहराव में आगे बढ़ता है। वही वही पात्र मानो प्रस्तुति जितने लंबे दृश्य का हिस्सा हों। हो सकता है यह आलेख का दोष हो, पर आखिर उसका चुनाव तो निर्देशक ने ही किया है। सतीश आलेकर का यह तीन पात्रीय न