अनिश्चित और अनायास की लय
लय को अगर क्षणों में तोड़ा जाए तो पेश आने वाले व्यतिक्रमों से भी एक लय बनाई जा सकती है। किसी जमाने में अतियथार्थवाद ने जब यथार्थवाद को उसकी सीमा बताई थी तो शायद उसने यही किया था। पूरी पश्चिमी कला मानो इसी क्षण की दूरबीन से संसार की कैफियत जानने की कोशिश में लगी है। जैसे समय के अनंत भंडार में यह क्षण मौजूद है वैसे ही लोगों के हुजूम में व्यक्ति। सभ्यता के ऊबड़खाबड़ विस्तार में व्यक्ति की हर गति समय से उसके संबंध का सबूत है। बीते दिनों अभिमंच प्रेक्षागृह में हुई पोलिश प्रस्तुति ‘ आफ्टर द बर्ड्स ’ एक कथानक को ऐसी ही बहुत सी गतियों में तब्दील करती है। इस क्रम में शरीर एक स्वयंभू उपकरण हो गया है। इस तरह वह क्षण की वास्तविकता को परखता है। एक लड़की फर्श पर पेट में पैर दिए पड़ी है, दूसरी आकर उसे सीधा करती है। पर पड़ी हुई लड़की किसी रबड़ के बड़े टुकड़े की तरह फिर से वैसे ही मुड़ गई है। प्रस्तुति में पात्रगण बहुत से एकाकी लोगों का समूह नजर आते हैं। वे सहज भाव से शरीर के मुश्किल करतब करते हैं। वे एक कोरस में गाते हुए इधर से उधर जाते हैं। रास्ते में पड़े एक पात्र से बेपरवाह वे चले जा रहे हैं। ए