सरोकार का रंगकर्म
बापी बोस निर्देशित प्रस्तुति ‘सैवंटीथ जुलाई’ का प्रदर्शन पिछले दिनों श्रीराम सेंटर में किया गया। बापी बोस दिल्ली के उन गिने-चने रंगकर्मियों में हैं, जिनके काम में सामाजिक सरोकार,विचार और प्रतिबद्धता को बिल्कुल प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। पिछली प्रस्तुति में उन्होंने सुकरात की मार्फत सत्ता की निरंकुशता का एक रूपक पेश किया था। इस बार उन्होंने गुजरात के उत्तर-गोधरा परिदृश्य को पेश किया है। प्रस्तुति के शुरू में ही मंच पर सांप्रदायिक घृणा का अजगर लहराता हुआ दिखता है। प्रेक्षागृह के अंधेरे में चमकते हरे रंग के इस अजगर की डरावनी आकृति दर्शकों के बीच से गुजर रही है। फिर रोशनी होते ही मंच पर थाने का दृश्य दिखाई देता है, जहां कुछ पुलिसवाले बातचीत में मशगूल हैं। एक पुलिसवाले की सेकुलर राय उसके दो साथियों को पसंद नहीं आ रही। उनमें से एक की बीवी मुस्लिम दंगाइयों के हाथों मार डाली गई थी। इसी बीच कुछ लोगों की आवाजें सुनाई देती हैं। यह एक भीड़ है, जो कुछ मुस्लिम लड़कों की पिटाई पर उतारू है, कि उन्होंने एक हिंदू लड़की से दुष्कर्म किया है। पुलिसवाले भीड़ में से लड़कों को छुड़ा लाए हैं। पता चलता है कि लड़कों ने कुछ भी नहीं किया, उन्हें हिंदूवादी मानसिकता के लोग झूठमूठ फंसाने पर उतारू हैं। दृश्य की खास बात यह है कि कुछ देर पहले मुस्लिम-विरोधी राय व्यक्त कर रहा और अपनी बीवी को सांप्रदायिक हिंसा में खो चुका पुलिसवाला इन हिंदूवादी कट्टरपंथियों से पूरे जुझारूपन से भिड़ रहा है। बहरहाल, इस वाकये के बाद दर्शक थाना-इंचार्ज से पैन-इस्लामाइजेशन के आरोप को बकवास ठहराने वाला एक छोटा-मोटा व्याख्यान सुनते हैं, कि पैन इस्लामाइजेशन जैसी चीज वास्तव में होती तो शिया-सुन्नी झगड़े न होते, ईरान-इराक युद्ध न होता, वगैरह।
इस दृश्य के बाद की पूरी प्रस्तुति युवक आसिफ मिर्जा पर चलाए जाने वाले मुकदमे को दिखाती है। प्रस्तुति के सभी किरदार बहुत जाहिर किस्म के हैं। हिंदूवादी वकील, वैसा ही जज,मौकापरस्त गवाह और प्रमाणों के आधार पर मुकदमा लड़ने वाला सेकुलर सरकारी वकील, जो प्रतिभाशाली है पर इन हालात में बेबस है। मुकदमे की इस पूरी कवायद में हिंदू कट्टरपंथ का माहौल बिल्कुल साफ-साफ दिखता है। वकील, जज, गवाह सब मिलकर युवक को गुनहगार ठहराने की पूर्वयोजना बनाए हुए मालूम देते हैं। सवाल है कि एक प्रत्यक्ष यथार्थ के उतने ही प्रत्यक्ष इस पाठ के जरिए आखिर नया क्या कहने की कोशिश की गई है। बापी बोस के मुताबिक यह प्रस्तुति सहिष्णुता, सांप्रदायिक सदभाव, सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता आदि के मंतव्य से तैयार की गई है। उसमें नरेंद्र मोदी की राजनीति आदि पर भी किरदारों की टिप्पणियां बीच-बीच में सुनाई देती हैं। बापी एक जानी-बूझी लेकिन आज की तारीख में बहुत टेढ़ी हो चुकी सच्चाई का एक सरल पाठ पेश करते हैं। वे इसमें मौकापरस्त पात्रों के समांतर भलेमानस पात्रों और किंचित अविश्वसनीय हृदय परिवर्तन को भी दिखाते हैं। बलात्कार का आरोप लगाने वाली दो औरतों में से एक अपना बयान बदल लेती है, और सारे पात्र सन्न रह जाते हैं, जब पता चलता है कि उसे इस हृदय परिवर्तन के लिए प्रेरित एक स्वामीजी महाराज ने किया है। संक्षेप यह कि बापी हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता की बेहद जटिल हो चुकी स्थिति का मुकाबला उन्हीं जंग खाए औजारों के जरिए करते हैं जिनका उपयोग गांधीवादीनुमा सेकुलरवादी अरसे से करते आ रहे हैं। लेकिन प्रस्तुति इस घोषित मंतव्य के बहाने एक ज्यादा महत्त्वपूर्ण काम यह करती है कि मुकदमे की कार्रवाई में सरेआम सच्चाई और कानून की धज्जियां उड़ाई जाती दिखाकर काफी सफल तरह से हमारी व्यवस्था के केऑस को दिखाती है। बापी अपने पात्रों की पूरी एनर्जी का इस्तेमाल करते हैं। इस तरह प्रायः चीजें जानी-बूझी होने के बावजूद इस केऑस की नाटकीयता दर्शकों को बांधे रखती है। कुछ किरदार इस क्रम में ठीकठाक नाटकीय रंग-ढंग में दिखाई देते हैं। दुष्कर्म का आरोप लगाने वाली औरत के तौर तरीकों का छिछोरापन एक रंजक दृश्य बनाता है। इसी तरह से गवाही देने आया बस ड्राइवर के हावभाव में इस तरह के चरित्रों वाली एक दिलचस्प स्वाभाविकता है।
नाटक का आलेख बृत्य बसु ने तैयार किया है, जो दो नाटकों से प्रेरित है। ये नाटक हैं अमेरिकी नाटककार आर्थर वैक्स्ले का ‘दे शैल नॉट डाई’ और उत्पल दत्त का ‘मानुषेर अधिकारे’। सर्किल थिएटर की यह एक भव्य प्रस्तुति थी, जो लगातार दोनों वकीलों की नोक-झोंक और मुकदमे में होने वाले खुलासों से अपने स्तर की उत्सुकता पैदा करती है। उसकी एनर्जी एक विचार के प्रति निष्ठा से पैदा होती है। विचारहीनता के दौर में बापी बोस इस निष्ठा की अलख जगाए हुए हैं, यह बड़ी बात है।
बेहतर लेखनी, बधाई !!
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