परिसर में बिखरी रंगभाषा
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के चोंचलों का अंत
नहीं। थिएटर के नाम पर वहां ऐसे-ऐसे प्रयोग हुआ करते हैं कि पश्चिम में आजमाए जाने
वाले सर्रियल या प्रभाववादी मुहावरे भी पानी भरते नजर आएं। निदेशिका अनुराधा कपूर
की हमेशा ही ‘कुछ नया करने’ और ‘एक
नई रंगभाषा तलाश करने’ की कोशिशों ने इधर के अरसे में विद्यालय की
प्रस्तुतियों को एक अजूबा बना डाला है। उनकी अपनी रंगभाषा का सिलसिला भी कुछ इस
किस्म का है जो थिएटर की ‘हैपनिंग’ को ‘इंस्टालेशन’
(संस्थापन)
में तब्दील करता है। हालांकि कोई गहरा मनोयोग उनकी प्रस्तुतियों में कम ही दिखाई
देता है। उसके बजाय ‘अलग दिखने’ का एक सायास
उपक्रम नजर आता है। पिछले
सप्ताह संपन्न हुई विद्यालय के अंतिम वर्ष
के छात्रों के लिए निर्देशित उनकी नई प्रस्तुति ‘डॉक्टर जैकिल
एंड हाइड’ भी इसी क्रम में देखी जा सकती है।
आरएल स्टीवेंसन के सवा सौ साल पहले लिखे गए
उपन्यास पर उनकी इस प्रस्तुति में दर्शकों के बैठने की कोई व्यवस्था नहीं है। इसके
बजाय वे विद्यालय परिसर के अलग-अलग ठियों पर फैले प्रस्तुति के टुकड़ों को
घूम-घूमकर देखा करते हैं। शुरू में बीच के लॉन में जमा हुए दर्शक स्पीकर पर एक
कमेंट्री सुनते हैं, जो दरअसल प्रस्तुति से संबंधित पूर्वसूचना जैसा
एक गद्य है। फिर मुंह से निकाली जा रहे कुछ अजीबोगरीब स्वर, फिर कुछ ‘अभिनेताओं’ का दौड़कर गलियारे की छत पर चढ़ जाना,
फिर
कुछ देर में किनारे की रेलिंग पर मूर्तिवत हाथ उठाए हुए स्थिर लेट जाना। अगले चरण
में दर्शक रंगमंडल के दफ्तर की बगल में स्थित एक कमरे में जमा होते हैं। यहां एक
रसायनशालानुमा सेटिंग है- एक मेज, टेढ़ी-मेढ़ी नलियों से ऊपर जुड़ा एक
पारदर्शी सिलेंडर, थोड़ी-थोड़ी देर में एक सीटी की आवाज के साथ
उससे निकलता धुआं। कमरे में कोने के ताखे पर एक लड़की अजीब तरह से लेटी है,
और
दो वैज्ञानिक या सहायक नुमा पात्रों के संक्षिप्त और दर्शकों के लिए प्रायः
संदर्भहीन संवादों के उपरांत यह दृश्य भी बर्खास्त हो जाता है। कमरे के चारों
सिरों पर बिछी बेंचों पर बैठे दर्शकों को अब पुनः लॉन के एक अलग हिस्से की ओर
प्रस्थान करना है। यहां एक दोमंजिला सेट लगाया हुआ है, जिसमें कुछ
पात्र भी हैं, और उनमें कुछ चर्चा भी हो रही है। पर जैसा कि
पिछली स्थिति में था उसी तरह यह सारी बातचीत देखने वाले के लिए एक अनजाने संदर्भ
की तरह है। नीचे दो औरतें हैं, ऊपर के पात्रों में भी कुछ कशमकश है।
ऊपर बर्तन से कुछ गिरता है। एक पात्र कूदकर नीचे आ जाती है, वगैरह। इस दृश्य
के बाद दर्शकों की अगली मंजिल पुनः लॉन की पहले वाली जगह है, जहां
शीशे की सतह वाली मालूम पड़ती एक चौकी को घेरकर चंद पात्र बैठे हैं। यहां दर्शकों
को चाय परोसी जाती है। चाय पीते हुए वे इन पात्रों की कारगुजारियां देख रहे हैं।
वे चौकी पर फैली राख में कुछ आकृतियां या नक्शे जैसा कुछ उकेर रहे हैं, या
कुछ ऐसा बारीक काम कर रहे हैं जो दर्शकों के पल्ले नहीं पड़ रहा। बहरहाल, इससे
अगले दृश्य के लिए दर्शकों को कहीं जाना नहीं है। उन्हें बस अपना रुख बदलकर पीछे
की ओर बनाए गए एक लंबे प्लेटफॉर्म पर चढ़ जाना है। एक टैंपो आकर इस प्लेटफॉर्म के
किनारे रुकता है, जिसके पीछे शीशे का एक कमरा बना हुआ है। कमरे
में हाइड चढ़ आया है। दो लोग गुत्थमगुत्था हो रहे हैं। देखने वाले ज्यादा हैं,
इसलिए
उचक-उचक कर देखने के बावजूद कुछ दर्शकों को कुछ भी दिख नहीं रहा। इससे अगला दृश्य
थोड़ा आगे एक कमरे का दरवाजा है। यहां भी दर्शक भीड़ लगाकर खड़े हैं। ‘दृश्य’ में से किसी
कसमसाहट और तड़पने आदि की आवाज आ रही हैं। बाद में और आगे गुजरते हुए वहां एक शख्स
‘मरा हुआ पड़ा’ दिखाई देता है। प्रस्तुति का अंतिम
ठिकाना बहुमुख प्रेक्षागृह है, जिसमें अलग-अलग कोनों पर अलग-अलग पात्र
एकल छवियों में दिखाई देते हैं। अपने बाल नोचती एक लड़की, बुरी तरह कांपता
मुंह पर कोई लेप लगाए एक पात्र, वगैरह। इन छवियों को देखते हुए पिछले
साल विद्यालय के ही तीसरे वर्ष के छात्रों के लिए स्विटजरलैंड के डेनिस मैल्लेफर
निर्देशित प्रस्तुति ‘ड्राइव’ की याद आती है,
जिसमें
ऑटोरिक्शा ड्राइवर और महिला ट्रैफिक कांस्टेबल विषय को विभिन्न छवियों में दर्शाया
गया था।... अंततः बाहर निकलते वक्त गलियारे में किसी प्रयोगशाला की तरह पारदर्शी
पॉलिथिनों में भरे द्रव में कई तरह की चीजें एक प्रदर्शनी की तरह सजाकर रखी हुई
हैं। यह प्रस्तुति का अंतिम चरण था।
स्टीवेंसन का उपन्यास ‘स्ट्रेंज केस ऑफ
डॉ. जैकिल एंड मि. हाइड’ एक ही शरीर में अच्छी और बुरी दो जुदा
शख्सियतों के होने की सबसे पुरानी आधुनिक कहानी है। जिसे बाद में अलफ्रेड हिचकॉक
की ‘साइको’ से लेकर हाल की तमिल फिल्म ‘अन्नियन’
(अपरिचित)
और हिंदी की ‘भूलभुलैया’ तक अलग-अलग तरह
से दोहराया गया। उपन्यास में डॉक्टर जैकिल अपने भीतर के बुरे पक्ष को अलग रखने के
लिए एक सिरम ईजाद करता है. जिसके जरिये वह अच्छे जैकिल और बुरे हाइड की दो
शख्सियतों को जीता है। पर आखिर में सिरम के लिए आवश्यक अवयवों की कमी से वह जान
लेता है कि उसका बुरा पक्ष यानी हाइड ही उसका एकमात्र पक्ष रह जाएगा।
अनुराधा कपूर की प्रस्तुति साधनों की प्रचुरता
से तैयार किए गए एक विस्तृत इंस्टालेशन की तरह पेश होती है। एक ऐसी प्रस्तुति
जिसमें अर्थ का न तो कोई प्रभाव बन पाता है, न प्रवाह। उसमें
बहुत कुछ खोंस देने का प्रलोभन स्पष्ट दिखाई देता है। इससे यूं ही बिखरी प्रस्तुति
कुछ और बिखर गई है। जरूर उसमें कुछेक ठीकठाक छवियां भी हैं, पर प्रस्तुति का
कोई गाढ़ा समेकित प्रभाव नहीं बन पाता।
बेहतर लेखन !!
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