थोड़ा कथ्य ज्यादा शिल्प

निसार अल्लाना की ड्रामेटिक आर्ट एंड डिजाइन एकेडमी के दिल्ली में हुए इब्सन फेस्टिवल में पिछले रविवार को केरल के ग्रुप थिएटर रूट्स एंड विंग्सने नाटक 'व्हेन वी डेड अवेकन' का मंचन किया। इब्सन ने यह नाटक 1899 में लिखा था। एक प्राकृतिक स्वास्थ्य केंद्र में छुट्टियां बिता रहे मूर्तिकार आर्नल्ड रूबेक और उसकी पत्नी माइया अपनी जिंदगियों में खिन्न हैं। आर्नल्ड ने कभी माइया से वादा किया था कि वह उसे पहाड़ की चोटी पर ले जाएगा, जहां से वह दुनिया को देख सकेगी, पर उसने यह कभी नहीं किया। ऐसे में उन्हें वहां दो लोग मिलते हैं। एक शख्स जो पहाड़ पर भालुओं के शिकार के लिए जा रहा है, और सफेद कपड़ों में एक रहस्यमय स्त्री। रूबेक पहचान जाता है कि यह स्त्री कभी उसकी मॉडल रही इरेना है। इरेना खुद को मरा हुआ बताती है। इसकी वजह है कि रूबेक ने उसकी आत्मा पर कब्जा करके उसे अपनी 'पुनरुत्थान' शीर्षक मास्टरपीस मूर्ति में डाल दिया। रूबेक उसे बताता है कि उस मूर्ति के बाद से मृत होने की यह मनःस्थिति खुद उसकी भी है। इरेना के पास एक चाकू है। उसके अनुसार आत्माहीन होने के बाद से उसने इसी चाकू से अपने हर प्रेमी, और यहां तक की बच्चों को भी कोख में ही मार डाला है। अब मिलने पर वे पहाड़ पर जाते हैं, जहां रास्ते में उनकी मुलाकात माइया और उसके साथी से होती है।
मंच के दाएं छोर पर उतरता एक ढलवां मचाननुमा रास्ता बना है। आगे बजरी के ढूह से सटी एक (डाइनिंग) टेबल रखी है। मंच के अंधेरे में से माइया और रूबेक स्लो मोशन में प्रगट होते हैं। रूबेक देर तक कोट पहन रहा है, कमीज को पैंट में खोंस रहा है, अखबार पढ़ रहा है। माइया गिलासों को तरतीब से रख रही है, चाय बना रही है। स्लो मोशन में हर चीज बहुत धीमे-धीमे घटित हो रही है। फिर यह दृश्य इसी तरह दो बार और दोहराया जाता है। केरल के 33 वर्षीय रंगकर्मी शंकर वेंकटेश्वरन निर्देशित इस प्रस्तुति में शैली का एक व्यामोह दिखता है। पूरी प्रस्तुति मानो शिल्प का एक टुकड़ा है। इब्सन के महीन कथ्य के सूक्ष्म इस्तेमाल से बनता एक गाढ़ा शिल्प। स्थितियां आड़ी-टेढ़ी प्रभावात्मक तरह से इसमें मौजूद हैं। जहां मेज है वहीं ऊपर छत से एक बेलचा लटका दिखाई दे रहा है। अचानक वह धड़ाम की आवाज के साथ उस मेज पर गिरता है जहां थोड़ी देर पहले दो पात्र बैठे थे। एक पात्र टूटी मेज के टुकड़ों को जमा करके उसे बजरी से ढक रहा है। फिर इसे बंदूक से पीट रहा है। दूसरा पात्र इसी बजरी में अपना सिर घुसाए है। अपनी धूल धूसरित देह में यह रूबेक इरेना के चाकू से खुद को बचा रहा है। इस सारी कवायद के समांतर बाकी के दोनों पात्र स्लो मोशन में पहाड़ की यात्रा पर रवाना हो गए हैं, फिर ये दोनों पात्र भी उसी दिशा में बढ़ते हैं। मंच पर गूंज रहे धीमे वाद्य स्वरों की जगह तूफान के भीषण स्वरों ने ले ली है। रूबेक ऊपर की ओर जाते रास्ते के सिरे तक जा पहुंचा है। पीछे से इरेना उसे संभाले है। थोड़ी देर में मंच के पीछे मौजूद एक विशाल सफेद वस्त्र को दो पात्र पूरे मंच पर फैला देते हैं। वस्त्र के नीचे से पात्र एक आकार की तरह ऊपर उठता है।
प्रस्तुति का यह ढंग बहुत-सी पश्चिमी देशों के नाटकों की याद दिलाता है, जहां कथ्य हमेशा ही एक प्रभावात्मकता में गुम हुआ मालूम देता है, और प्रस्तुति दृश्य की अपनी ही एक स्वायत्तता बुनती है। यहां भी निर्देशक शंकर वेंकटेश्वरन कथ्य को मानो एक ऊबड़खाबड़ दृश्य में तब्दील करते है। प्रस्तुति में संवाद नाममात्र के और शैली के हिस्से की तरह हैं। इसकी वजह निर्देशक की यह धारणा भी है कि थिएटर को भाषा और साहित्य की सीमा से बाहर आना चाहिए। हालांकि वे मानते हैं कि इब्सन की अपनी भाषा के मुतल्लिक यह एक मुश्किल काम था। लिहाजा उन्होंने स्टेज-भाषा के तौर पर मानव व्यवहार के बजाय मानव स्वभाव को आधार बनाया। निश्चित ही यह प्रस्तुति अपनी प्रभावात्मकता में दृश्यों का एक मुश्किल विन्यास पेश करती है। लेकिन उसकी सीमा शायद यही है कि उसका यह मुश्किल विन्यास बहुत भारतीय नहीं लगता

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