गफलत के माहौल में
सोहैला कपूर हाल तक अंग्रेजी थिएटर करती रही हैं। इधर कुछ अरसे से वे हिंदी में दाखिल हुई हैं। कॉमेडी उनका प्रिय क्षेत्र है। बीते सप्ताहांत रमेश मेहता की स्मृति में श्रीराम सेंटर में हुए समारोह में उन्होंने उनका नाटक 'उलझन' पेश किया। ड्राइंगरूम की सेंटिंग में एक युवा नायक और उसका दोस्तनुमा नौकर। कई तरह की उधारियों के जरिए सुख से जीने वाले नायक से उगाही के लिए दर्जी और दुकानदार आते हैं। दक्षिण भारतीय मकान मालकिन, जिसका किराया कई महीने से नहीं चुकाया गया है, भी रह-रह कर कुछ खरीखोटी सुनाकर जाती है। यानी कई तरह के किरदार रह-रह कर दृश्य में दिखाई देते रहते हैं। नायक को शाम तक घर खाली न करने पर सामान फेंक देने की धमकी मिल चुकी है। लेकिन इन तमाम परेशानियों से जूझ रहा वह सहसा गदगद हो उठता है जब एक खूबसूरत लड़की दृश्य में नमूदार होती है। प्रस्तुति सार्वकालिक सिटकॉम का एक अच्छा उदाहरण है। ऐसी प्रस्तुतियों में टाइमिंग की चुस्ती काफी महत्त्वपूर्ण होती है, जो कि इस प्रस्तुति में ठीक से है। सोहैला कपूर अपने पात्रों को एक अच्छी कॉमिक रंगत देती हैं। कभी यह चीज किरदार की बदहवासी से बनती है, कभी मेकअप से, कभी अभिनय याकि खास भंगिमा या अदा से। उगाही करने आए पात्रों में एक ऊंचे डीलडौल वाला पठान है। वह हिंदी के पॉपुलर कल्चर के पठान की छवि की एक दिलचस्प पैरोडी मालूम देता है। लेकिन प्रस्तुति का सबसे नायाब किरदार दक्षिण भारतीय मकान मालकिन का है। इस भूमिका में वाणी व्यास बोलने के लहजे से लेकर स्थिति की कुछ बारीक रंगतों को भी बखूबी संभाले रहती हैं। ऐसा ही एक दूसरा दिलचस्प किरदार बाप का है। वह हरियाणवी है और बेटे की शादी पक्की करने आया है। उसके हाथ में बुजुर्गों वाली लाठी है, जिसे वह रह-रह कर हास्यजनक ढंग से बेटे और उसके दोस्तनुमा नौकर पर आजमाता रहता है। हिंदी थिएटर में ऐसे कॉमिक किरदार अक्सर बहुत जल्द आपे से बाहर लाउड नजर आने लगते हैं। लेकिन सोहैला कपूर के यहां ऐसा नहीं है। वे प्रचलित छवियों में से नई छवियां निकालती हैं। हरियाणवी बाप की बोली, लहजा और वेशभूषा बिल्कुल दुरुस्त है, पर उसकी देहभाषा उतनी खांटी नहीं है। वह काफी शराफत से अपनी बात रख रहा है। इस तरह सोहैला हरियाणवी किरदार के स्टीरियोटाइप को तोड़कर उसकी एक ज्यादा रंजक छवि पेश करती हैं। खास बात यह है कि चरित्रांकन में कहीं कोई झोल नहीं हैं। ऐसे में शर्म से निहाल हो रही दक्षिण भारतीय मकान मालकिन पर हरियाणवी बाप का लट्टू हो जाना अपने में ही एक दिलचस्प दृश्य बन जाता है।
सोहैला कपूर के यहां हड़बड़ी की भी एक निश्चित व्यवस्था है। मंच पर गफलतों के माहौल में हास्य के असल ठिकानों को वे जानती हैं। जैसे कि दोस्तनुमा नौकर यूं तो मंच पर अपने काम पूरी संजीदगी से निबटाया करता है, पर अपनी हैसियत को लेकर उसे हमेशा शंका बनी रहती है। वह हर आगंतुक को बताना नहीं भूलता कि 'इस घर में नौकर कोई नहीं है शाब जी'। किराएदार नायक से अपनी बेटी को ब्याहने की फिराक में रहने वाली मकान मालकिन को घर में एक स्त्री के होने के सुराग मिलना एक कोहराम बरपा कर देता है। उसका किरदार दक्षिण भारतीय लहजे की प्रचलित पैरोडी न होकर काफी नई रंगतें लिए है। वह एक चुस्त-चौकन्नी औरत है। स्टेज पर उसकी हर एंट्री अपने साथ एक रोचकता लिए आती है।
कथ्य में कोई विशेष नवीनता न होने के बावजूद कई तरह के किरदार और कथानक की गति निर्देशक को पूरा मौका देते हैं। अभिनय के लिहाज से निधिकांत और अरुण प्रकाश भी प्रस्तुति में प्रभावित करते हैं।
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