खो चुके रास्ते का एक सफर


टेनिसी विलियम्स ने नाटक 'कैमिनो रियल' 1953 में लिखा था. अमेरिका के जैफरी सीशेल के निर्देशन में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के तीसरे वर्ष के छात्रों ने इसकी एक प्रस्तुति तैयार की, जिसके प्रदर्शन अभिमंच प्रेक्षागृह में इसी सप्ताह किए गए। नाटक में घटनाओं का कोई सिलसिला नहीं है, यथार्थवाद का कोई ढांचा नहीं है, पात्रों से कोई निश्चित तादात्म्य भी नहीं बन पाता। फिर यह नाटक क्या है? सीशेल के मुताबिक 'यह नाटक किसी अनिश्चित समय में बहुत सी अवास्तविक घटनाओं की एक महाकाव्यात्मक यात्रा है.' खुद टेनिसी विलियम्स ने इसके बारे में लिखा कि 'यह नाटक मेरे लिए किसी अन्य दुनिया, किसी भिन्न अस्तित्व की रचना जैसा प्रतीत होता है'. कैसी दुनिया? इसके लिए उन्होंने महाकाव्य 'डिवाइन कॉमेडी' लिखने वाले चौदहवीं सदी के इतालवी कवि दांते को उद्धृत किया। दांते के मुताबिक 'हमारे जीवन की यात्रा के बीचोबीच मैंने खुद को एक अंधेरे जंगल में पाया जहां सीधा रास्ता खो गया था.' निर्देशक जैफरी सीशेल के अनुसार, यदि यह नाटक डिवाइन कॉमेडी के प्रथम भाग 'इनफर्नो' (नरक) का प्रतिरूप है, तो इसमें दिखने वाला आम आदमी का किरदार उस शुरुआती अमेरिकी या रेड इंडियन जैसा है जो जिंदगी के असल रास्ते (कैमिनो रियल) पर जटिल सामाजिक बंजर (वेस्टलैंड) से मुठभेड़ करता है। प्रसंगवश यहां यह उल्लेख कर देना उचित होगा कि टीएस इलियट की रचना 'वेस्टलैंड', जिसमें खुद दांते से लेकर शेक्सपीयर, मिल्टन और प्राचीन संस्कृत मंत्रों की पंक्तियों तक को शामिल किया गया है, भी इस नाटक के जैसी ही ऊबड़खाबड़ संरचना वाली है। 
प्रस्तुति में सबसे महत्त्वपूर्ण उसका मंच ही है। यह आगे की ओर ढलवां लकड़ी का एक विशाल प्लेटफॉर्म है. ढलवां होने की वजह से काफी पीछे खड़ा पात्र भी इसपर स्पष्ट दिखाई देता है। इस ऊंचे प्लेटफॉर्म के किनारों पर कोई विंग्स नहीं हैं, लिहाजा दृश्य का विस्तार दोनों सिरों की नीचाई में भी पसरा हुआ है। दृश्य के कुछ आनुषंगिक विवरण यहां दिखाई देते हैं- नृत्यमुद्रा में कोई स्त्री, कोई गुजरता हुआ पात्र, आदि। नाटक का मंच किसी स्पेनिश शहर का ऐसा छोर है, जिसके चारों ओर निर्जन है और जहां छिटपुट कुछ आवागमन होता है। टेनिसी विलियम्स के मुताबिक यह मंच 'उस संसार और समय, जिसमें मैं रहता हूं, की मेरी धारणा से न रत्ती भर कम है न ज्यादा'
जो भी हो, इस सारे वृत्तांत के बावजूद प्रस्तुति दर्शकों के लिए अबूझ ही बनी रहती है। रह-रहकर स्थितियों के कुछ 'ब्लॉक्स' घटित हो रहे हैं, पर सब कुछ इतना यांत्रिक है कि घट रहे का कोई प्रभाव नहीं बन पाता।  हालांकि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की परंपरा के अनुसार स्टेज का बीच में खुलकर एक बड़ा सा गड्ढा बन जाना, ऊपर से एक मचान का लटकना जैसी कवायदें इस प्रस्तुति में भी भरपूर हैं। प्रस्तुति में कुछ स्थितियां दिखाई देती हैं- एक पात्र दूसरे पात्र को गोली मार देता है। दो अन्य पात्र कूड़ा ढोने वाली गाड़ी में मरे हुए पात्र को डालकर मंच से नीचे की ओर उड़ेल आते हैं। मचान नीचे आती है, उससे एक सीढ़ी जुड़ जाती है। वगैरह। उसमें एक पात्र दोन किहोते है, उसका नौकरनुमा सहयात्री सैंचो (जिसे हम हिंदी वाले सांको पांजा पढ़ते आए) है, बायरन है; लेकिन हिंदी के संसार के लिए ये पात्र अपनी छवियों में प्रायः अनजान ही हैं। ये बगैर भूमिका के अनुवाद कर दिए गए पात्र हैं। हालांकि इसके लिए रंगकर्मी विवेक मिश्र के अनुवाद को दोष देना गलत होगा। यह मूलतः प्रस्तुति की अवधारणा का दोष है, जो भाववस्तु के बजाय स्थितियों के चित्रण में उलझी है। इस तरह के अपरिचित परिवेश और परंपरा लेकिन इससे किंचित कम अमूर्त कथानक पर एक सफल प्रस्तुति की याद आती है- वीके निर्देशित इब्सन का 'पीयर जाइंट', जिसमें पूरी प्रस्तुति के दौरान एक अक्षुण्ण लय दर्शक को बांधे रखती है। नाटक देखते हुए यह तो समझ आता है कि यह यथार्थवाद की सीध का नाटक नहीं है। कि यह जीवन के बहुत से इंप्रेशंस की एक उतनी ही 'एब्सर्ड' व्यंजना है। लेकिन सिर्फ इतना समझ आना ही क्या पर्याप्त है! देखने वाला उसके साथ कुछ तादात्म्य बना पाए, इसका भी बंदोबस्त होना अच्छा रहता। 

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