नाटकीयता एक हथकंडा है
मालूम पड़ता है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की प्राध्यापिका त्रिपुरारी
शर्मा के पास थिएटर का कोई सॉफ्टवेयर है, जिसमें वे अभिनय, संगीत,
स्थितियां, कास्ट्यूम, आलेख वगैरह डाल देती हैं और प्रस्तुति तैयार हो
जाती है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में उनकी कई प्रस्तुतियां देखने के
बाद नवस्थापित मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय के पहले बैच के छात्रों के लिए
निर्देशित उनकी प्रस्तुति 'तलछट' को देखते हुए कुछ ऐसा ही लगता है। भोपाल
के रवींद्र भवन में बीते सप्ताह इसका मंचन किया गया। यह ऐसी सॉफ्टवेयर
प्रस्तुति है जिसमें दुनियाभर का सबकुछ है पर असल चीज गोर्की का नाटक
'लोअर डेप्थ' कहीं नहीं है। लोअर डेप्थ 1902 के रूसी निम्नवर्ग की दुनिया
है, जिसमें छोटे-मोटे काम करने वाले कई तरह के पात्र अपनी क्षुद्रताओं,
बेमुरव्वती, और झगड़े-टंटों के साथ किसी बड़े से हाल या अहाते जैसी जगह
पर अपने-अपने कोनों में रहते हैं। गोर्की उनकी लाचारियों और घटियापन के
दरम्यान लूका नाम के एक बूढ़े पात्र के जरिए जिंदगी की उदात्तता का एक
पाठ बनाते हैं। नाटक में उसका देशकाल और यथार्थ इतनी ठोस चीज है कि उसका
कोई भी रूपांतरण उतना ही ठोसपन मांगता है। लेकिन यहां तो नजारा ही कुछ और
है। दृश्य के खुलते ही मंच पर नए-नए सिलाए गए रंग-बिरंगे कपड़ों में
पात्र 'चाक्षुष' छवियों में मौजूद दिखाई देते हैं। ऐसा होने का एक तर्क
है कि यह मालवी कार्यशाला की प्रस्तुति है कि यह छात्रों की ट्रेनिंग का
एक उपक्रम है। ये दरअसल थिएटर के डिजाइनवाद का एक तर्क है। राष्ट्रीय
नाट्य विद्यालय की कृपा से डिजाइन एक स्वायत्त वस्तु बन चुकी है, और अब
मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय भी इसकी चपेट में है। प्रस्तुति में न पात्रों
के किरदार स्थापित हो पाते हैं, न उनके संबंध और संबंधों का तनाव, न उसका
देशकाल और यथार्थ। लब्बोलुबाब यह कि दो घंटे तक मंच पर जैसे होने के लिए
कुछ-कुछ होता रहता है। डिजाइनवाद की वजह से नाटकीयता खुद में ही एक
हथकंडा बन गई है। नतीजा यह कि लूका का किरदार मंच पर जोकर की तरह मौजूद
है। वह बूढ़ा है पर जवान दिखता है। वह एक नकली दा़ढ़ी लिए है, जिसे कभी
लगा लेता है कभी उतार देता है। मेकअप की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि
दर्शको समझ जाओ कि यह सारा कुछ एक नाटक है!. पात्रों के आपसी संबंध का
कोई तंतु यहां विकसित नहीं होता। वे अभिनय नाम की एक कवायद किया करते
हैं, जिसमें पात्रों को बता दिया गया है कि तुम्हारा नाम 'अंतरा' है,
तुम्हारा नताशा, तुम्हारा मानस, तुम्हारा कैलाश। ये सारे नाम स्लम जैसी
जगह में रहने वाले गरीब लोगों के हैं। कुछ अरसा पहले त्रिपुरारी शर्मा ने
शेक्सपीयर के 'ओथेलो' की भी ऐसी ही प्रस्तुति 'नौटंकी शैली' में तैयार की
थी, जिसमें इसी किस्म के नामकरण किए गए थे।
बहरहाल इस प्रस्तुति में संजय उपाध्याय का संगीत भी उसका एक पक्ष है।
प्रस्तति में 'ओ मोरी भौजी, जाना नाहीं नैहर' जैसे बोलों पर रह-रहकर
लोकधुनें सुनाई देती हैं, लेकिन अपने तईं उनका सारा माधुर्य तब धरा रह
जाता है, जब याद आता है कि यह सारा कुछ उस नाटक का हिस्सा है जिसके
यथार्थवाद ने स्तानिस्लावस्की को पहली बार एक बड़े निर्देशक की पहचान
दिलाई थी। 'तलछट' नामक यह प्रस्तुति लोअर डेप्थ का कोई संस्करण नहीं,
बल्कि एक समीकरण मालूम देती है, जिसके पात्र दुर्द्धर्ष यथार्थ को
फेस्टिविटी में तब्दील कर देते हैं। यह कुछ उसी तरह की बात है, जैसे 'आधे
अधूरे' को कोई कॉमेडी के तौर पर करने लगे (हालांकि वैसा भी आजकल होने लगा
है)। प्रस्तुति में न यथार्थ है, न मालवा। पूरी प्रस्तुति एक ऐसी फिल्म
की तरह है, जिसमें सिंक्रोनाइजेशन की त्रुटि के कारण होंठ अलग जा रहे
होते हैं और स्वर अलग।
शर्मा के पास थिएटर का कोई सॉफ्टवेयर है, जिसमें वे अभिनय, संगीत,
स्थितियां, कास्ट्यूम, आलेख वगैरह डाल देती हैं और प्रस्तुति तैयार हो
जाती है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में उनकी कई प्रस्तुतियां देखने के
बाद नवस्थापित मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय के पहले बैच के छात्रों के लिए
निर्देशित उनकी प्रस्तुति 'तलछट' को देखते हुए कुछ ऐसा ही लगता है। भोपाल
के रवींद्र भवन में बीते सप्ताह इसका मंचन किया गया। यह ऐसी सॉफ्टवेयर
प्रस्तुति है जिसमें दुनियाभर का सबकुछ है पर असल चीज गोर्की का नाटक
'लोअर डेप्थ' कहीं नहीं है। लोअर डेप्थ 1902 के रूसी निम्नवर्ग की दुनिया
है, जिसमें छोटे-मोटे काम करने वाले कई तरह के पात्र अपनी क्षुद्रताओं,
बेमुरव्वती, और झगड़े-टंटों के साथ किसी बड़े से हाल या अहाते जैसी जगह
पर अपने-अपने कोनों में रहते हैं। गोर्की उनकी लाचारियों और घटियापन के
दरम्यान लूका नाम के एक बूढ़े पात्र के जरिए जिंदगी की उदात्तता का एक
पाठ बनाते हैं। नाटक में उसका देशकाल और यथार्थ इतनी ठोस चीज है कि उसका
कोई भी रूपांतरण उतना ही ठोसपन मांगता है। लेकिन यहां तो नजारा ही कुछ और
है। दृश्य के खुलते ही मंच पर नए-नए सिलाए गए रंग-बिरंगे कपड़ों में
पात्र 'चाक्षुष' छवियों में मौजूद दिखाई देते हैं। ऐसा होने का एक तर्क
है कि यह मालवी कार्यशाला की प्रस्तुति है कि यह छात्रों की ट्रेनिंग का
एक उपक्रम है। ये दरअसल थिएटर के डिजाइनवाद का एक तर्क है। राष्ट्रीय
नाट्य विद्यालय की कृपा से डिजाइन एक स्वायत्त वस्तु बन चुकी है, और अब
मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय भी इसकी चपेट में है। प्रस्तुति में न पात्रों
के किरदार स्थापित हो पाते हैं, न उनके संबंध और संबंधों का तनाव, न उसका
देशकाल और यथार्थ। लब्बोलुबाब यह कि दो घंटे तक मंच पर जैसे होने के लिए
कुछ-कुछ होता रहता है। डिजाइनवाद की वजह से नाटकीयता खुद में ही एक
हथकंडा बन गई है। नतीजा यह कि लूका का किरदार मंच पर जोकर की तरह मौजूद
है। वह बूढ़ा है पर जवान दिखता है। वह एक नकली दा़ढ़ी लिए है, जिसे कभी
लगा लेता है कभी उतार देता है। मेकअप की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि
दर्शको समझ जाओ कि यह सारा कुछ एक नाटक है!. पात्रों के आपसी संबंध का
कोई तंतु यहां विकसित नहीं होता। वे अभिनय नाम की एक कवायद किया करते
हैं, जिसमें पात्रों को बता दिया गया है कि तुम्हारा नाम 'अंतरा' है,
तुम्हारा नताशा, तुम्हारा मानस, तुम्हारा कैलाश। ये सारे नाम स्लम जैसी
जगह में रहने वाले गरीब लोगों के हैं। कुछ अरसा पहले त्रिपुरारी शर्मा ने
शेक्सपीयर के 'ओथेलो' की भी ऐसी ही प्रस्तुति 'नौटंकी शैली' में तैयार की
थी, जिसमें इसी किस्म के नामकरण किए गए थे।
बहरहाल इस प्रस्तुति में संजय उपाध्याय का संगीत भी उसका एक पक्ष है।
प्रस्तति में 'ओ मोरी भौजी, जाना नाहीं नैहर' जैसे बोलों पर रह-रहकर
लोकधुनें सुनाई देती हैं, लेकिन अपने तईं उनका सारा माधुर्य तब धरा रह
जाता है, जब याद आता है कि यह सारा कुछ उस नाटक का हिस्सा है जिसके
यथार्थवाद ने स्तानिस्लावस्की को पहली बार एक बड़े निर्देशक की पहचान
दिलाई थी। 'तलछट' नामक यह प्रस्तुति लोअर डेप्थ का कोई संस्करण नहीं,
बल्कि एक समीकरण मालूम देती है, जिसके पात्र दुर्द्धर्ष यथार्थ को
फेस्टिविटी में तब्दील कर देते हैं। यह कुछ उसी तरह की बात है, जैसे 'आधे
अधूरे' को कोई कॉमेडी के तौर पर करने लगे (हालांकि वैसा भी आजकल होने लगा
है)। प्रस्तुति में न यथार्थ है, न मालवा। पूरी प्रस्तुति एक ऐसी फिल्म
की तरह है, जिसमें सिंक्रोनाइजेशन की त्रुटि के कारण होंठ अलग जा रहे
होते हैं और स्वर अलग।
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