मन ना रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा
आवाज पर उनका काबू कमाल का है। अभिनेता-गायक शेखर सेन अपनी एकल प्रस्तुति 'कबीर' में इसी आवाज से कबीर के जीवन का एक वृत्त पेश करते हैं। उनकी गायकी में एक ऊंचे स्तर की शास्त्रीयता है और वाचिक अभिनय में असंख्य छवियों का खजाना। वे कबीर के जीवन के प्रसंगों को उनकी रमैनियों, साखियों और दोहों से जोड़ते हैं। और कई तरह के किरदार इस बीच उनके आसपास उठते-बैठते 'दिखाई' देते हैं। कभी पिता नीरू, कभी दोस्त जगन, कभी अम्मां, जिसे लगता है कि बेटा 'अघोरिन के चंगुल में फंस गया है', ललुआ मिसिर, कबीर को काफिर कहने वाली रंगरेजिन चाची। अवधी और भोजपुरी के मिश्रण से बनी अपनी सधुक्कड़ी भाषा में कबीर कहते हैं- 'बकरा बना दिया हमें दुनिया।...'
होंगे बहुत ऊंचे संत कबीर, पर शेखर सेन के यहां तो उनके जात बाहर कर दिए गए बाप ही उनसे तंग आए हुए हैं कि काहे काफिर को घर ले आए, जो अजान को मुल्ला की बांग कहता है। अपने को काफिर और दलिद्दर कहे जाने से सशंकित कबीर जोगियों से दूर खड़ा है। तब चिलम पीते जोगी हंस पड़ते हैं- अरे तू काफिर नहीं... तू तो अल्लाह मियां के घर की गाय है गाय। धीरे धीरे जीवन के पाठ सीख रहे कबीर कहते हैं- कर्म करो, कर्मकांड मत करो। अरे जिसके आंचल में यह नीला आसमान भी छोटा दीखे, उसे मूरत बनाकर छोटा मत करो।
भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के सौजन्य से और वहीं के आजाद भवन में हुई इस प्रस्तुति के दौरान प्रेक्षागृह पूरी तरह खचाखच भरा था। बार-बार मना करने के बावजूद इन चले आए दर्शकों के कैमरे की रोशनियां, मोबाइल की रिंगटोन और फुसफुसाहटें खत्म होने को नहीं आ रही थीं। शेखर सेन को कई बार प्रस्तुति रोकनी पड़ी। उन्होंने दर्शकों को मृत्युशैया पर पड़े रावण की 'इंप्रोवाइज्ड' कथा सुनाई। रावण के दरबारियों ने उनसे कहा कि आपके बाद हमारा और हमारे आसुरी आनंद का क्या होगा। रावण ने कहा फिक्र मत करो दो युगों के बाद आने वाले कलियुग नामक युग में मोबाइल नाम के एक यंत्र का आविष्कार होगा, जिसके जरिए वह आसुरी आनंद आपको हासिल हो सकेगा। शेखर सेन की यह प्रस्तुति, जैसा कि उन्होंने इन व्यवधानों के दौरान बार-बार दर्शकों को याद दिलाया, छह सौ साल पहले के कालखंड में जाने की कोशिश थी।
यह शेखर सेन के ही वश में था कि लगातार व्यवधान के बावजूद वे अपनी एकाग्रता को बनाए रखते हैं। उनके कबीर घर-बाहर के खटरागों और पचड़ों में उलझे जीवन की समझ हासिल करते हैं। नाराज अम्मा से नाराज होते- 'ऐ रज्जो, बोल दे अम्मां से जा रहे हैं घर छोड़ के।' फिर दर्शकों को बताते हैं, कि जवानी का साहस था और ऊपर वो साहेब था, इसलिए निकल पड़े। बाद में अम्मां की जिद पर कबीर ने शादी तो कर ली। पर पहले ही रोज लोई ने जब उन्हें बताया कि 'हमरे गांव के साहूकार के छोरा से हमारा नेह रहल' तो वे उसे उसके प्रेमी से मिलाने ले चलते हैं। पर लोई का मन इस बीच बदल गया है। उनके कंधे पर बैठी वह रो रही है।
न सिर्फ स्वर और गायन, बल्कि यह एक ऊंचे दर्जे का नाट्यालेख भी है। यह आलेख बहुत सी स्थितियों को ही नहीं बोलीबानी के एक पूरे मिजाज को भी समेटे हुए है। इस आलेख में रैदास हैं, जो 'काम करैं चमड़ा का और बात करैं आत्मा का', सिकंदर शाह लोदी है, जो बादशाही रौब में कबीर से पूछता है- 'ऐ जुलाहा, तू इस्लाम मानत है या नाहीं?' तो कबीर कहते हैं- 'हम तो इस्लाम को मानत हैं, पर तू इस्लाम को जानत है या नाहीं?' बाबा शेख फरीद हैं, जिनसे सारी बात आंखों ही आंखों में हुई, नाववाला डाकू अजीत सिंह है। शेखर सेन निर्गुण ईश्वर में यकीन रखने वाले कबीर की एक यथार्थवादी छवि बनाते हैं। जीवन की बहुतेरी रंगतें इस छवि को अधिक स्वीकार्य बनाती हैं। प्रस्तुति कबीर की कविता में निहित जीवनबोध का एक पाठ बनाती है। मंच पर इसका लालित्य देखते ही बनता है। बूढ़ी होती मां की आवाज कुछ और जर्जर हो गई है। मंच से ऐसे स्वरों को सुनते हुए पूरे चेहरे आंखों के आगे बनते हैं।
शेखर सेन की प्रतिभा के आप कितने भी कायल हों, पर प्रस्तुति के बाद उनका यह कहना थोड़ा हैरानी में डालता है कि प्रभु की कृपा और गुरु के आशीर्वाद के बगैर दो घंटे तक यह प्रस्तुति करना नामुमकिन है। कई साल पहले उनकी एक इसी तरह की और इतने ही पाये की प्रस्तुति- शायद सूरदास पर- देखी थी। वे विवेकानंद और तुलसीदास पर भी अपनी एकल प्रस्तुतियां पेश करते रहे हैं। उनके यहां कोई अनगढ़पन नहीं है। मंच पर मौजूद स्क्रीनों पर कुछ स्थितियों के दौरान आग और तालाब की छवियां उभरती हैं और पानी के स्वर भी। रोशनी का एक सुघड़ इस्तेमाल तो था ही। खास बात यह कि इतने सुघड़ और प्रोफेशनल होते हुए भी स्पष्ट ही वे एक नेचुरल आर्टिस्ट हैं। वे अब तक बारह सौ से ज्यादा ऐसी एकल प्रस्तुतियां कर चुके हैं। वे एक पीछे छूट रही भारतीय परंपरा के समर्थ और सफल प्रस्तुतकर्ता हैं।
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