बीएम शाह का त्रिशंकु

बीएम शाह ने सातवें दशक में त्रिशंकु नाम से एक नाटक तैयार किया था,
जिसकी प्रस्तुतियां बाद में अधिक नहीं हुईं। दिल्ली के रंगकर्मी राजेश
दुआ ने बीते दिनों दिल्ली के पूर्वा सांस्कृतिक केंद्र में इसका मंचन किया। यह नाटक
के भीतर नाटक की आभासी संरचना को एक अति की युक्ति में इस्तेमाल करती
प्रस्तुति है। निर्देशक ने दर्शकों के बीच कुछ अपने दर्शक भी बैठाए हैं।
नाटक एक प्रहसननुमा स्थिति से शुरू होता है, जिसमें राजा महंगाई से
त्रस्त जनता पर लाठीचार्ज करने का आदेश दे रहा है। पर तभी ये 'दर्शक'
अभिनेताओं पर टमाटर फेंकने शुरू कर देते हैं। वे घिसा-पिटा नाटक नहीं
देखना चाहते। नतीजतन निर्देशक को मंच पर आना पड़ता है। सवाल है कि बढ़िया
नाटक क्या है। जवाब है कि जिसमें सिनेमा जैसा कुछ हो। लेकिन नहीं,
निर्देशक के मुताबिक अच्छा नाटक समस्या से बनता है। ऐसे में उसे अब अच्छे
नाटक के लिए अपने अंतर्द्वंद्व से जूझता एक किरदार चाहिए। इस तरह कई
किरदार मंच पर एक-एक कर दर्शकों के बीच से आते हैं। ये सत्तर के दशक की
छवियां हैं, जिनमें जोकरनुमा एक नेता है, एब्सर्डिटी बनाम अस्तित्ववाद के
रटंतू समीकरण में उलझा बुद्धिजीवी है, एक नौकरशाह है, जिसने बड़े-बड़े
महकमे चलाए हैं। निर्देशक को लगता है कि बुद्धिजीवी बहुत कड़वी बातें
करता है, पर बुद्धिजीवी का तर्क है कि ज्ञान हमेशा कड़वा ही होता है, और
जिंदगी के इस उलझे सफर में सब अकेले हैं। उधर नौकरशाह निर्देशक से अपने
अंतर्द्वंद्व पर नाटक बनाने का आग्रह कर रहा है, पर निर्देशक के लिए ये
सब आम पात्र हैं, जबकि उसे खास पात्र की तलाश है। यह खास पात्र एमएससी
पास नौकरी की तलाश करता एक युवा है। वह क्रांति लाकर बड़ा आदमी बनना
चाहता है, लेकिन क्रांति कैसे आएगी यह उसे नहीं मालूम। अंततः इसी युवा का
कन्फ्यूज्ड किरदार नाटक के केंद्र में दिखाई देता है। वह कहता है, मेरा
हाल मॉडर्न लिटरेचर की तरह है- समझ में ही नहीं आता। नाटक के एक दिलचस्प
दृश्य में एक लड़की का सामान पटकता हुआ कुली उससे अपने मेहनताने के लिए
झगड़ रहा है। ऐसे में नाटक का नायक 'युवा' लड़की की मदद को आगे आता है।
पर कुली के अपने तेवर हैं। वह कहता है- इन बाबूजी की तरह मां-बाप का नहीं
अपनी मेहनत का खाता हूं। और ये बाबूजी हैं कि छोकड़िया देखे और फिसल गए।
बहरहाल कुली अपने पैसे लेकर जा चुका है। अब लड़की, उसका सामान और
बेरोजगार युवा वहां रह गए हैं है। बेरोजगार युवा को श्रम की गरिमा का
खयाल आता है, और वह स्वयं कुली का काम करने को उद्यत है, पर भारी सामान
उससे उठ ही नहीं पा रहा। दिलचस्प ढंग से मंच पर घट रहा यह सारा कुछ
निर्देशक के निर्देशन में हो रहा है। वह अभिनेताओं को किरदार में कुछ और
जान डालने की सलाह दे रहा है। नेता बने पात्र से उसे शिकायत है कि उसमें नेता के खोखलेपन के बजाय 
पिछले नाटक के कवि वाले किरदार की झलक दिख रही है, और कि आत्महत्या के विचार में मेलोड्रामा का पुट आ रहा
है, वगैरह। बुद्धिजीवी के इस बीच 'समथिंग इस रांग समवेयर' जैसे कुछ अपने
जुमले हैं।
प्रस्तुति में आंतरिक नाटकीयता का एक ऐसा ढांचा है, जिससे संदर्भों के
पुराना पड़ने के बावजूद एक रोचकता बनी रहती है। थिएटर ग्रुप नाट्य कला
मंच के अभिनेता प्रस्तुति में थोड़े अंडरटोन दिखते हैं, पर यह कमी लाउड हो जाने की तुलना में कहीं बेहतर है। वजह है उनकी सहजता, जिससे चरित्र बिखरने नहीं पाए हैं।  वे अपने चरित्र के लिए एक कोशिश करते दिखते हैं। अक्सर एमेच्योर
थिएटर में ऐसी कोशिशें लाउड हो जाती रही हैं, जैसा कि इस प्रस्तुति में
नहीं था। बगैर अतिरंजना में गए नाटक में कई दिलचस्प छवियां मौजूद हैं।
लड़की 'वेटिंग फॉर गोदो' किताब इसलिए पास रखती है कि वरना पढ़े-लिखे लोग
क्या कहेंगे। विषय की दृष्टि से नाटक बहुत सुगठित न होने के बावजूद अपने
समय को व्यक्त करता है। और वह भी नाटकीयता के अपने ही तंतुओं के साथ।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भीष्म साहनी के नाटक

न्यायप्रियता जहाँ ले जाती है

आनंद रघुनंदन