सम्मोहन के विस्तार में

रवींद्र भारती का नाटक 'अगिन तिरिया' दो हजार साल पुराने भारतीय भाववाद की एक अनुपम रचना है। भाववाद को किसी साक्ष्य, तथ्य या परीक्षण की आवश्यकता नहीं होती। ऐसी जीवन दृष्टि वृहत्तर यथार्थ की सच्चाई को अलक्षित करते हुए व्यक्तिगत एकांगी उदभावना को अभिव्यक्त करती है। यहीं से अपनी लक्षणाओं में प्रसन्न रहने वाले रेटॉरिक का जन्म होता है। इसी फितरत में भारतीयों ने इतिहास और लोकजीवन की घटनाओं को अपने मनोनुकूल कहानियों में तब्दील कर लिया। अल बिरूनी ने लिखा भी है कि भारतीयों से इतिहास की किसी घटना के बारे में पूछो तो वे कोई कहानी सुनाने लगते हैं। रवींद्र भारती का पूरा नाटक ऐसी ही कहानियों का एक मनोहारी रेटॉरिक है। ये जीवन के किसी अलौकिक आभास से नत्थी बहुत सी कहानियां हैं। एक ऐसी काल्पनिक दुनिया जिसके पात्र किंवदंतियों और लोककथाओं से उठाए गए मालूम देते हैं। इस तरह रवीद्र भारती अपनी ही एक दंतकथा गढ़ते हैं। लेकिन यह काफी निपुणता से रची गई दंतकथा है। जो यहां-वहां बहुत से उपप्रसंगों में देर तक उलझी आगे बढ़ती है। कई कथालीकों, बहुत सारे पात्रों और उपकथाओं से विन्यस्त यह कोई कथानक नहीं बल्कि एक राग है। किसी सुदूर वक्त और परिवेश में बजता हुआ। यथार्थ के खटरागों से परे एक सम्मोहन की दुनिया, जो 'जंगली रास्तों', 'पहाड़ी नदी के तट', 'गुफा जैसे घर', 'मृगछाल के आसन' और 'जुगनू पकड़ने के खेल' में घटित होती है।
नाटक का कथानक एक ढीला-ढाला मायालोक है, जिससे रह-रहकर बहुत सी स्थितियां निकलती हैं। एक स्थिति संन्यासी पुरोहितों की है जो क्रूर, हिंसक, कर्मकांडी और शुद्धतावादी हैं। एक दूसरी स्थिति में कुलांगार उनसे भी दो हाथ आगे जंगली किस्म के हैं। इसी तरह कुलांगारों का धूर्त एजेंट अनंग तामू नाम के पात्र को फुसलाकर उनकी गुलामी के लिए लाता है। उसे बार-बार लोमड़ कहा गया है। फिर प्रकृति के सान्निध्य में हिंसा से दूर वन में रहने वाली वनदेवियां हैं। उनकी रागात्मकता काफी विस्तार से सामने आई है। वन में बाघमारा की पूजा के प्रसंग पर भी एक पूरा दृश्य खर्च किया गया है। बाघ को मारने वाली औरत ही अगिन तिरिया है। नाटक के ये पात्र भी कथ्य जितने ही आभासी हैं। उनके नाम शायद आदिवासी कथा परंपराओं से लिए गए हैं- मात्या, सुआ, बेली, चेची, धृत्य, साखा आदि। उनमें ऐतिहासिक होने की आभासिता और लोकजीवन की मुग्धता है। रवींद्र भारती उनके साथ किसी भी रूढ़ कलेवर से परे एक दुनिया आबाद करते हैं। इससे गुजरते हुए टैगोर के कुछ नाटक याद आते हैं। लेकिन रवींद्र भारती के यहां अर्थ की कोई व्यवस्थित दिशा नहीं है। उनके ऊबड़खाबड़ कथानक में बहुत सी लक्षणाएं एक रूमानी व्यामोह के साथ आबद्ध है। इसमें एक स्वप्नवत मोहकता है और बहुत से मनोगत उदभासों की कहानियों का संयोजन है। एक चमकदार भाषा में प्रस्तुत होती इन कहानियों में जीवन की भीषणता, धूर्तता, निस्सहायता, उसके सहज विश्वास, उसकी कोमलता और प्रकृति से उसके रिश्ते की भावदशाओं को संकलित किया गया है। ये एक कल्पित दुनिया की लोककथाएं हैं, जिनके जरिए पूरा पाठ मानो एक व्यंजना में आगे बढ़ता है और उसी में खत्म हो जाता है। यह लोकजीवन में पलती रहने वाली अयथार्थ आकांक्षा की व्यंजना है, जिसे किसी संकल्पना की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वह अपनी भावविह्वलता में ही खुश है। इसकी पहचान के लिए यह लंबा संवाद देखा जा सकता है- 'बड़ी वनदेवियां बताती हैं कि तमसा के तट पर उनचास पवन का जन्म हुआ था। एक-एक पवन यहीं बड़े हुए। कुछ नाविक के बच्चे उनके सखा थे। उनसे ऐसी मिताई हुई कि जब अपनी मां के साथ उनचासों पवन जाने लगे तो वे भी उनके साथ हो गए। जब सांझ हुई बच्चे अपने घर नहीं पहुंचे तब नाविक अपनी पत्नी के साथ उन्हें खोजने लगे। दूर-दूर तक खोजा। जंगल, पहाड़, नदी, समुद्र सब जगह खोजा। कहीं पता नहीं चला। रोते-बिलखते रहे। एक दिन यह सोचकर सबुर कर लिया कि कहीं मर-खप गए होंगे। उन्हें क्या पता कि उनके बच्चे उनचासों पवन के साथ हैं। वनदेवियां बताती हैं कि बैसाख के महीने में उनचासों पवन तमसा तट पर अपना जन्मउत्सव मनाने आते हैं। नाविक के बच्चे भी आते हैं। वे अपने घर जाते हैं। परिवार के साथ रहते हैं परंतु परिवार उन्हें देख नहीं पाता। सुन नहीं पाता। जबकि बच्चे देखते और सुनते हैं। जानती हो नाविक क्यों नहीं अपने बच्चों को देख पाते? क्योंकि बच्चों का कोई स्वरूप नहीं है। वे श्रव्य हैं। उन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है।'
रवींद्र भारती मानो बहुत से भावोच्छवासों का एक कथ्य तैयार करते हैं। अक्सर स्थितियों में यहां कर्म-कारण संबंध का कोई ठोस सिलसिला नहीं है। कारण यहां बेहद निरीह दशा में है। जहां कारण की जटिलता में जाने का मौका आता है वहीं एक कहानी पेश है। भाववाद अ-ठोस ढंग से बातों को 'मान लेने की' जीवनदशा है। लोकजीवन इसके लिए एक आधार मुहैया कराता है। किसी भी कल्पना को सच मान लेने का आधार। यहीं से परंपरा की बहुत सी रस्में और आख्यान तैयार होते हैं। यह नाटक ऐसे ही बहुत से आख्यान अंशों और कल्पना के मेल से तैयार हुआ है। रवींद्र भारती एक अविश्वसनीय दुनिया को विश्वसनीय भाषा में पेश करते हैं। यह बनावट से सर्वथा दूर और अपने में रमी हुई भाववाद के मुहावरे की भाषा है। उसे किसी बिंब विधान की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वह जिस दुनिया को व्यक्त कर रही हैं, वह अपने में ही एक बहुत बडा बिंब है। रवींद्र भारती इस भाषा के जरिए एक वातावरण बनाते हैं, और एक लोकरंगी बहुविध नाट्यविधान को विन्यस्त करते हैं। बाघमारा उत्सव के दृश्य का संकेत कुछ यों है- 'होम सज-संवर रहा है। सुआ उसे सजा रही है। उसका मुंह लाल रंग से रंगा हुआ है। जहां-तहां सफेद रंग की बुनकियां रची हुई हैं। आंखों में काजल की मोटी रेखाएं हैं। सुआ उसके सिर पर फूलों की माला लपेटती है। होम उसे नोच देता है और घर के अंदर चला जाता है। क्षण भर बाद महुए के पत्ते का मुकुट धारण किए प्रसन्न मुद्रा में आता है।' यह नाटक असपष्ट सी भाववस्तु के विस्तार का एक समीकरण है जहां प्रयोजन किसी मरीचिका की भांति है। और यही अंततः उसकी नाटकीयता की सबसे बड़ी बाधा बनती है। प्रत्यक्षतः आलेख में मंचीय नाटकीयता की पर्याप्त सामग्री उपलब्ध दिखाई देती है। इसमें घटनाओं की पर्याप्त विविधता, कई तरह के परिवेश और परिधानों का समायोजन और नाटकीय देहगतियों का विपुल समावेश है और साथ ही संवादों में एक मुग्धकारी भाषिक लय भी। लेकिन उसमें उत्सुकता और आशय का कोई निश्चित प्रयोजन नहीं है। ऐसे में इस रंग आयोजन से उत्पन्न प्रभाव थोड़ी-थोड़ी देर में मंच पर गुम होते रह सकते हैं।
रवींद्र भारती बिंबों से खेलने वाले नाटककार हैं। लेकिन इन बिंबों में 'परिलक्षित' होने वाला वास्तविक संसार बहुत धुंधला है। यह धुंधलापन उनके सुघड़ नाट्य विधान, स्फूर्त-सहज भाषा सब पर भारी पड़ता है। यह प्रवृत्ति उनके पिछले नाटक 'जनवासा' की तुलना में इस बार 'अगिन तिरिया' में कहीं ज्यादा दिखाई पड़ रही है और ऐसे में यह नाटक जीवन की विभिन्न भावदशाओं का एक आलंकारिक पाठ होकर रह जाता है।

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