मुस्कुराता हुआ विद्रूप

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के अंतिम वर्ष के छात्रों की प्रस्तुति 'ड्राइव' एक लाइव थिएटर एग्जीबिशन की तरह है। सजीव छवियों की प्रदर्शनी। इसके लिए अभिमंच प्रेक्षागृह के मंच के आयताकार स्पेस में कई केबिन तैयार किए गए हैं। दर्शक इनके सामने से गुजरते हैं। रुककर अभिनीत की जा रही छवि को देखते हैं और फिर अगले केबिन की ओर बढ़ जाते हैं।
प्रस्तुति के निर्देशक स्विटजरलैंड के डेनिस मैल्लेफर ने छात्र-छात्राओं के लिए दो विषय चुने-- ऑटो रिक्शा ड्राइवर और वुमेन ट्रैफिक कांस्टेबल। उन्हें वास्तविक जीवन में जाकर इन पात्रों के संपर्क में आना था। उनके निजी और पेशागत पहलुओं को जानना था और इस तरह उनकी शख्सियत की थाह लेनी थी। निर्देशक ने उनसे कहा कि इस प्रक्रिया में अर्जित की गई छवि को वे हूबहू चित्रित न करें, बल्कि जिंदगी के एक रवैये के तौर पर, एक विवरण की तरह उपयोग करें। फिर इस कच्चे माल से वे एक नए लेकिन विशिष्ट चरित्र की सर्जना करें। 'ऐसा चरित्र जिसका कोई लक्ष्य, कोई इच्छा, कोई राज, कोई कमजोरी हो, कुछ ऐसा कि उसे मंच पर साकार किया जा सके'। प्रस्तुति देखते हुए ऐसा लगता है कि अपने मंतव्य को आत्मसात करवाने में निर्देशक काफी सफल रहे हैं। छात्रों की रचनात्मकता के कई रंग और अभिनय की अंतरदृष्टियां उसमें नजर आती हैं।
एक केबिन में ट्रैफिक पुलिस की वर्दी में खड़ी लड़की के चेहरे की तुर्शी देखते ही बनती है। 'डुट्टी कर री हू...आंख्खे फाड़ के के देख्खे है, पढ़ी-लिखी हूं' दिल्ली देहात के लहजे में वो बोलती है। वर्दी का आत्मविश्वास उसके चेहरे पर हल्की स्मिति के रूप में मौजूद है। केबिन के छोटे से स्पेस में वो मूव करती है। सहारे से थो़ड़ा टेढ़ा खड़ी होती और रिवॉल्वर उठाकर निशाना साधने की मुद्रा बनाती है। एक दूसरे केबिन में एक लड़की साड़ी पहन रही है। उसकी वर्दी दीवार पर खूंटी पर टंगी है। शायद वह धाविका भी है। चार सौ मीटर में दूसरे नंबर पर रही है। कंधे पर साड़ी के पल्लू में वो देर तक पिन लगा रही है। बताती है कि 'मैडम जी ने कहा था, ब्होत आगे जाएगी छोरी'। वहीं एक अन्य केबिन में खड़ा एक पात्र दर्शकों से मुखातिब है। उसके चेहरे पर हर ओर सौजन्यता पसरी हुई है, जो शायद एक हीनतर जीवन के अकाट्य आशावाद का परिणाम है। वो एक सेल्समैन के अंदाज में लगातार बोले जा रहा है- 'मैं गलत नहीं कह रहा हूं.. आप भी अंबानी बन सकते हो। भाई साहब, इच्छाएं हर आदमी में होती हैं, आप में भी हैं, मुझमें भी हैं, आप बताइये!' उसके अलावा एक अन्य केबिन में एक ऑटो वाला काले रंग के कोट-पैंट और लाल रंग की टाई में खड़ा है। यह पोशाक उसने अपनी बेटी-दामाद के इसरार पर किसी शादी के लिए बनवाई थी। वो दर्शकों से आंखें मिलाए बगैर इसी के बारे में बात कर रहा है। 'दामाद की बात नहीं टाल सकते थे, इसलिए बनवा लिए। शादी में हमसे कोई कुछ पूछने को आया तो हमें कुछ समझ में नहीं आया। फिर मालूम हुआ वो खाने के बारे में पूछ रहा था। हम देखे वहां कोका कोला लेकर घूम रहा सब वेटर हमरे जैसा ही कोट-पैंट पहने था। लेकिन टाई अलग था।' वो टाई के रंग को नीचे बिछी दरी के रंग से मिलाने के लिए झुक जाता है। बताता है कि उसका ड्राइवर होना किसी को नहीं बोला जा सकता था। इससे दामाद जी की बेइज्जती होती। और यह कि पहले दिल्ली में ज्यादा पंजाबी लोग टैक्सी चलाते थे। अब तो यूपी-बिहार वाले ज्यादा हैं। एक अन्य केबिन में वर्दी पहने ऑटो वाले की नींद को दिखाया गया है। चारपाई पर लेटा वो नींद में तरह-तरह से कसमसा रहा है। दरअसल वो लेटा नहीं है, बल्कि एक खड़ी चारपाई के समांतर चिपका हुआ खड़ा है। उसकी चप्पलें भी दीवार पर इस तरह चिपकाकर टांगी गई हैं, मानो फर्श पर रखी हों। एक दूसरा ऑटो वाला कल-पुर्जों को साफ करते हुए दुनियादारी की एक अपनी कहानी बांच रहा है। लेकिन एक कहीं ज्यादा दिलचस्प किरदार स्ट्रीट लाइट के नीचे हवाई चप्पल और उसी अनुरूप स्वेटर और पैंट में हाथ की टेक लगाकर पसरा हुआ सा बैठा है। बीड़ी पीते हुए उसकी बेपरवाह दुनियादारी का व्याख्यान सुनने लायक है। अपनी बेमुरव्वती के किस्से भी मजे लेकर सुनाता है और अपने पर आई मुसीबतों के भी।
ऐसा नहीं है कि सभी छवियां यथार्थवादी हों। कुछ सर्रियल ढंग के बिंब भी हैं। एक लड़की मेकअप करते हुए देर तक अपने सिर पर तेल गिराए जा रही है। उसका चेहरा और कपड़े तेल और पाउडर और क्रीम में सने हुए हैं। फिर भी उसके चेहरे पर एक मुस्कान है। वह एक मुस्कुराता हुआ विद्रूप है। एक अन्य पात्र पोर्न पत्रिका खोले बिल्कुल स्थिर ढंग से उसमें ताक रहा है। उसकी नाक बहकर लटकी हुई है और घिन पैदा करती है। एक अन्य पात्र लगातार टब में नहा रहा है। कपड़े उतारता है और फिर पहन लेता है। यह दोहराव अन्य छवियों में भी इसी तरह चल रहा है।
पूरी प्रस्तुति अपनी छवियों में जैसे गोर्की के 'लोअर डेप्थ' का आधुनिक संसार है। बगैर किसी कहानी के उसमें सूक्ष्म ढंग से एक दुनिया आबाद होती है। इंसानी हसरतों, उसके तलछट, उसके इरादों और उसकी जैविकता की दुनिया। सबसे खुशी की बात है कि यह दुनिया थिएटर की बुनियादी चीज अभिनय- मात्र अभिनय- से बनती है। उसपर यह भी कि यह काफी कुछ युवा अभिनेताओं की अपनी ईजाद है।

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