नाटक एक उत्पाद है

रंग निर्देशक सुरेंद्र शर्मा ने उसी तरह हिंदी के कई क्लासिक उपन्यासों- 'बूंद और समुद्र', 'रंगभूमि', 'मैला आंचल', 'बाणभट्ट की आत्मकथा' आदि- को रंगमंच पर पेश किया है, जिस तरह देवेंद्र राज अंकुर ने अपने 'कहानी का रंगमंच' में कहानियों को। लेकिन अंकुर की तरह उन्होंने कभी किसी शैली में बंधने की कोशिश नहीं की। इसके बजाय वे उपन्यास की संवेदना और उसकी छवियों के रूपाकार पर अधिक केंद्रित रहे हैं। इधर उन्हें क्या सूझी कि उन्होंने विष्णु प्रभाकर जन्म शताब्दी के मौके पर उनकी तीन कहानियों का लगभग अंकुर शैली में मंचन किया। बीते सप्ताह भाई वीर सिंह मार्ग स्थित मुक्तधारा प्रेक्षागृह में हुई रंगसप्तक की इस प्रस्तुति में विष्णु प्रभाकर की तीन कहानियों- 'कितने जेबकतरे', 'डायन' और 'धरती अब भी घूम रही है'- में कहानियों का नाट्य रूपांतरण नहीं किया गया है। उन्हें मंच पर सुनाया जा रहा है और इस सुनाए जाने के बीच वे मानो उदाहरण के लिए घटित भी होती हैं। घटित होने का यह ढंग निहायत अनौपचारिक है। जैसे वाचन में कहानी पूरी स्पष्ट न हो रही हो, इसलिए अभिनय के जरिए भी उसकी एक रूपरेखा बनाई जा रही हो। प्रस्तुति का यह ढंग कहानी के यथार्थ के प्रति दर्शक की तल्लीनता को खंडित करता है। यह एक टकसाली किस्म की कला है, जिसमें किसी भी कहानी का मंचीय उत्पादन बगैर दिल और दिमाग पर ज्यादा जोर डाले किया जा सकता है। अंकुर इसी पद्धति से अब तक सैकड़ों कहानियां मंच पर उतार चुके हैं, पर बेहद लगन से अपना काम करने वाले सुरेंद्र शर्मा से ऐसी उम्मीद नहीं थी, जिन्होंने 'कहां मेरा उजियारा' जैसे अस्तव्यस्त आलेख की सारी कमियों को दृश्य-श्रव्य के सटीक संयोजनों से एक भव्य और रोचक प्रस्तुति में ढंक दिया था।
प्रस्तुति में शामिल 'डायन' एक एकाकी बूढ़ी स्त्री की कहानी है। पुराने दिनों के समाज में लोगों की खुराफाती बुद्धि बैठे-ठाले उसे डायन मान लेती है। किस्से-कहानियों में जीने वाला समाज इसी तरह कुछ भी मान लेता है। और उसे इसके कुछ प्रमाण भी मिल जाते हैं। लेकिन वास्तव में इससे उसकी कई ग्रंथियां संतुष्ट होती हैं। इससे उनकी असुरक्षा को एक मोहरा मिल जाता है। इससे उनके भीतर की क्रूरता को एक विलेन मिल जाता है। संसार की सारी व्याख्याओं का उत्स 'मैं' हूं, इसलिए उस दूसरे की दुनिया की दिक्कतों से हमें क्या लेना-देना। विष्णु प्रभाकर की कहानी जीवन के उस हिस्से को भी दिखाती है, जहां बुढ़िया गफूरन अपने एकाकीपन में किसी मनुष्य के साथ को तरस रही है। वह किसी छोटे बच्चे को दुलारती है तो लोग इसमें अनिष्ट समझते हैं। गफूरन बनी नीलम ने एक हीन जीवन का अच्छा कारुणिक चित्र मंच पर खींचा है, हालांकि बाकी पात्र उस तुलना में काफी लाउट किस्म के नाटकीय थे। कहानी मेलोड्रामा में सुखी रहने वाले समाज की विडंबना का एक दुखांत टुकड़ा है। प्रस्तुति की तीनों कहानियों में यह निश्चित ही सबसे बेहतर थी।
इससे पहले मंचित की गई 'कितने जेबकतरे' में महानगरीय जीवन के उस लालच को दिखाया गया है, जहां हर आदमी अपनी चालाकियों में लगभग जेबकतरों जैसा हो चुका है। तीसरी और विष्णु प्रभाकर की सबसे प्रसिद्ध कहानी 'धरती अब भी घूम रही है' का विषय भी प्रकारांतर से यही है। पिता के जेल जाने पर मौसी के घर में रह रहे दो बच्चे मौसी मौसा द्वारा रोज सताए जाते हैं। वे रोज सुनते हैं कि लड़की और पैसे से हर काम हो जाता है। दोनों नन्हें बच्चे एक रोज जज साहब के घर जा पहुंचते हैं। अपने पास जमा किए हुए फुटकर पैसे जज को देने के बाद दूसरी चीज के तौर पर लड़की खुद को पेश करती है। कहानी तब की है जब भ्रष्ट लोग आज की तरह इम्यून नहीं हुआ करते थे। लिहाजा चल रही पार्टी में दो नादान बच्चों का यह ऑफर जज साहब और सबको अवाक कर देता है। प्रस्तुति अवाक रह जाने का सही क्लाइमेक्स नहीं बना पाती। अत्याचार और दुख दोनों ही उसमें पुराने किस्म के हैं। सुरेंद्र शर्मा ने बगैर किसी मंचीय मंजाव के उन्हें चित्रित किया है, इसलिए वे बहुत अभिव्यक्तिपूर्ण नहीं बन पाए हैं। प्रस्तुति का यह एक बेहतर पक्ष है कि उसमें कथावाचक और पात्र अलग-अलग हैं, लेकिन 'नाटकीय' किस्म के दृश्य और बीच बीच में टपक पड़ता वृत्तांत वाचन स्थितियों को सायास और बोझिल बना देता है।

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