कूड़ा एक शाप है

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के दूसरे वर्ष के छात्रों की प्रस्तुति 'सोचो जब सब उल्टा हो' बच्चों का नाटक है। निर्देशक प्रसन्ना ने इसमें बढ़ते कचरे के सवाल को उठाया है। स्वीडिश लेखिका ऑस्ट्रिड लिंडग्रन की प्रसिद्ध बाल चरित्र पिप्पी लांगस्टॉकिंग्स इसकी केंद्रीय पात्र है। पिप्पी की मरहूम मां एक फरिश्ता बन चुकी है और पिता चंबल का बागी गब्बर सिंह था। अब पिप्पी शहर के ठाकुर विला में अपने तीन साथियों- एक भूत, एक बंदर और एक गधे के साथ रहती है। फिर पड़ोस में रहने वाले दो बच्चे भी उसके साथी बन जाते हैं। पिप्पी कचरा बीनने का काम करती है। नाटक में वेदव्यास और गणेश जी भी हैं। असल में गणेश जी ही पिप्पी के रूप में आकर मंच पर पूरा किस्सा बनाते हैं। एक दिन अपने ऊपर कूड़ा डाल दिए जाने से नाराज व्यास जी पिप्पी को शाप दे देते हैं कि वो जिंदगी भर कूड़ा ही बीनती रहेगी। शापमुक्ति का तरीका है कि सब लोग कूड़ा फेंकना बंद कर दें। नाटक में बहुत सारे पात्र और स्थितियां हैं। पिप्पी का सामना स्कूल मास्टर और उसे सुधार गृह भेजने पर उतारू पुलिस वालों से होता है। पर उसके और उसके साथियों के आगे किसी की एक नहीं चलती।
प्रस्तुति कचरे के अर्थशास्त्र की कोई कहानी नहीं बनाती, लेकिन उसका एक पात्र एक मौके पर सिर्फ जैविक कूड़े को मंजूरी की बात कहता है। ऐसा लगता है जैसे खेल खेल में तैयार प्रस्तुति में एक विषय को खोंस दिया गया है। इस खेल खेल में कभी भूत कमेंट्री करने लगता है, कभी पिप्पी आमलेट बनाती है। इसी तरह कभी भोंपू लिए सब्जपरी तो कभी पंजाबी बोलने वाली मैना मंच पर नमूदार होती है। पिप्पी के गधे और बंदर दोस्तों के नामों- घोड़ेश्वरप्रसाद छलांग और हनुमंत पिल्लै- में भी एक खेल है। प्रस्तुति के शुरू में सुतलियों वाली लंबी दाढ़ी लगाए वेदव्यास पिप्पी की कहानी बोलना शुरू करते हैं, जिसे गणेश जी लैपटॉप पर लिख रहे हैं। फिर मुखौटा उतारकर गणेश जी पिप्पी बन जाते हैं। प्रस्तुति में भले ही बात का सिलसिला बहुत चुस्त न हो, लेकिन कुछ स्थितियां अपनी छवि में काफी दिलचस्प हैं। पिप्पी स्कूल पढ़ने गई है, जहां बच्चे घेरा लगाकर बैठे हैं और मास्टर किसी अजीब भाषा में घूमघूम कर उन्हें पढ़ा रहा है। उसके हाथ में बेंत है जिससे वो थोड़े थोड़े समय बाद बच्चों की हथेली पर मारता है। स्कूल के दृश्य का यह एक अच्छा रेखांकन है। ऐसे ही पिप्पी को ले जाने आए पुलिसवाले भी काफी दिलचस्प किरदार हैं। कार्टून चरित्रों की तरह उनमें अपनी ही एक खींचतान चलती रहती है। वे अपने पुलिसिया किरदार को कवित्त में बयान करते हैं। इसी तरह पिप्पी के दोस्त बंदर के सिर पर जूड़ी की तरह एक सेबनुमा कुछ लगा हुआ है। वो वक्त जरूरत गिटार भी बजाता है। पिप्पी के पड़ोसी दोस्तों के अफसर बाप की छाती पर एक तख्ती डेस्क की तरह बंधी हुई है जिसपर वो जल्दी जल्दी कागजों पर साइन कर रहा है। कागज बढ़ाने वाले उसके असिस्टेंट की व्यस्त मुद्रा देखने लायक है। प्रसन्ना इस तरह स्थितियों के कैरिकेचर बनाते हैं। ऐसा ही एक कैरिकेचर स्कूल मास्टर का भी है। बच्चों के गायब हो जाने को लेकर उसके संदेह और आत्मग्लानि का इजहार अपनी अति में हास्य पैदा करता है। बच्चों की मां का भी कुछ ऐसा ही हाल है। प्रसन्ना इस तरह मानो स्थितियों के एक अपने अंतर्भूत हास्य को सामने लाते हैं।
प्रस्तुति में कथानक का कुछ और चुस्त होना बेहतर होता। मध्यांतर के बाद का हिस्सा इस लिहाज से कहीं अच्छा है। पूर्वार्ध में स्थितियां ज्यादा बिखरी हुई हैं और उनका कोई समेकित प्रभाव नहीं बन पाता। 'इंसान क्या जाने जूं का स्वाद' नुमा चुटकुलेबाजी को संपादित करने से इसमें थोड़ा कसापन आ सकता था। अभिनय की दृष्टि से मुख्य भूमिका में कल्याणी अपनी ऊर्जा से प्रभावित करती हैं, जबकि मास्टर बने वी उतो चिशी अपने हाव भाव से।

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