रात के दस बजे

उस लड़के की उम्र बारह-तेरह साल रही होगी। रात के दस बजे वह बस में कोटला के स्टैंड से चढ़ा था। वह एक आदमी के साथ था जिसकी दाढ़ी हल्की बढ़ी हुई थी। दोनों आकर मेरे बराबर की सीट पर बैठ गए। बैठते ही उस मैकेनिकनुमा आदमी ने लड़के से पूछा- 'फिर तूने उससे क्या कही?'
'उस...वाले को तो मैं सबक सिखाऊंगा', लड़के की कच्ची आवाज में निकली एक पक्की गाली सुनकर मैकेनिक हंसने लगा और आगे की सीट पर बैठे एक आदमी ने मुड़ कर दोनों को देखा।
लड़के ने काले रंग की जैकेट और दस्ताने पहने हुए थे जिनकी उंगलियों की पोरें एकाध जगह उधड़ी हुई थीं। माथे पर उसने ऋतिक रोशन की तरह एक पट्टी बांधी हुई थी। उसकी कुल वेशभूषा उसके आत्मविश्वास और उम्मीदों की तस्दीक कर रही थी। कंडक्टर आया तो मजाक में उसने उसकी पट्टी उतार दी। लड़के को इस तरह की छेड़खानियों का अभ्यास था। जैसा कि उस आदमी और लड़के की बातचीत से जल्द ही जाहिर हो गया, बस के ज्यादातर यात्रियों की तरह लड़का भी नौकरी से घर लौट रहा था। पर वह औरों की तरह लस्त नहीं था। उसे चाहे जैसी भी जिंदगी मिली हो उसे लेकर उम्र का एक विश्वास उसके मन में अभी बाकी था। बड़े लोगों की दुनिया में उसे असमय प्रवेश जरूर करना पड़ा था, पर एक नाबालिग कोमलता उसकी सांवली त्वचा में से झांक रही थी।
'कहां काम करते हो ?' अचानक मैंने उससे पूछा।
मैकेनिक किस्म का आदमी शायद लड़के की ही बस्ती में रहता था। लड़का उससे जिस सहजता से बात कर रहा था, मेरे इस सवाल से बातचीत में एक अवरोध पैदा हुआ। वह एक क्षण को चुप रह गया, पर मैकेनिक ने बताया कि वह एक पंखे-कूलर की दुकान में काम करता है और 'इसका मालिक इसे पांच सौ महीना देता है' और 'उसे गाली गलौज करने की ब्होत आदत है'। रात के दस बजे लौट रहा है तो काम पर पहुंचता कितने बजे होगा? पूछा तो लड़का जैसे कुछ सकपका-सा गया। आदमी ने कहा- 'बता कितने बजे पहुंचता है...' फिर खुद ही बोला- 'वही सुबह नौ-दस बजे पहुंचता होगा।' लड़के ने जवाब में हां में सिर हिला दिया।
'दुकान तो सात-आठ बजे बंद हो जाती होगी, फिर इतनी देर से घर क्यों जा रहे हो?'
'साला आने ही नहीं देता। सारा सामान अंदर रखवाता है, नौ तो बज ही जाते हैं', इस बार लड़के की आवाज फूटी। 'पैसा तुम्हें ही देता है कि घरवालों को?'
इस बार फिर जवाब आदमी ने ही दिया- 'वो इसे रोज पंद्रह रुपए देता है।'
दैनिक वेतन के इस हिसाब किताब के पीछे का कपट एक क्षण को विस्मित कर देने वाला था। इससे लड़के का रोज काम पर आना सुनिश्चित होता था और अगर वो छुट्टी करे तो मालिक का पैसा बचता था।
'पंद्रह से तो महीने के साढ़े चार सौ ही हुए?' मैंने लड़के की ओर प्रश्नवाचक निगाह से देखा।
वह इस हिसाब-किताब से उलझन में पड़ गया था। शायद उसने इस बारे में कभी सोचा ही नहीं था। वह उसी तरह कुछ सोचता हुआ चुप बना रहा, पर आदमी बोला- 'वो साला तेरे पचास रुपए हर महीने खा लेवे है।'
मैंने लड़के की ओर देखा। उसकी उम्र इतनी कम थी कि तनखा या काम के घंटों के सटीक हिसाब किताब में उसकी अधिक दिलचस्पी नहीं थी। उसकी उम्र इतनी कम भी थी कि उसे गाली देने में कोई खतरा नहीं था, हालांकि कोई चतुर मालिक चाहता तो प्यार के दो झूठे बोल बोल कर भी उसे बरगलाए रख सकता था।
'साला गाली बहोत देता है। सीजन में उसे धोखा देउंगा।' सीजन यानी मई-जून में, जब कूलर पंखों का काम ज्यादा होता है, तब वह एकाएक काम छोड़कर मालिक को 'धोखा' देगा, उसके इस इरादे को सुनकर मैकेनिक हंसने लगा और बोला- 'धोखा देने की छोड़, तू मेरे साथ आजा, मैं तुझे छह सौ रुपए दे दूंगा। डेक, वीसीडी का काम है, जादे मेहनत भी नहीं है।'
लेकिन लड़के की सीडी के काम से ज्यादा रुचि सीडी चलाने वाली मशीन में दिखाई पड़ी। उसने नई मशीन की कीमत पूछी और फिर पूछा कि कोई पुराना वीसीडी प्लेयर रिपेयर होकर कितने में मिल जाता है। उसने सीडी का दाम भी पूछा, और फिर बोला- 'तब तो जब चाहे तब फिल्म देखो!'
आदमी को लड़के के सवालों से चिढ़ होने लगी थी। पर लड़के के निर्मम और नीरस यथार्थ में सीडी का मसला एक उम्मीद की तरह प्रवेश कर गया था एकाएक उसकी आंखों में पैदा हुई चमक बुझ सी गई, 'पर फायदा क्या, बत्ती तो आती नहीं।'
उसके इस कथन से मुझे प्रायः अंधेरे में डूबी रहने वाली उस बस्ती की याद आई जिसे एशिया की सबसे बड़ी अनधिकृत बस्ती माना जाता है और जहां लड़के का उतरना संभावित था। उसकी हताशा दुखी कर देने वाली थी उसकी हर उम्मीद एक लाचारी के आगे पस्त थी। अपने पहने हुए दस्तानों के पोरों को दांतों से कुतरते उस बारह साल के लड़के की आंखों में आशा और निराशा के कितने ही भीषण भाव आए और गुजर गए। बस के बाहर एक शहर टिमटिमा रहा था। भीतर एक पीले बल्ब की मरियल रोशनी में छत का डंडा पकड़ कर बहुत से लोग खड़े थे। वे खड़े नहीं थे बल्कि फेलिनी की फिल्म 'एट एंड हाफ' के एक दृश्य की तरह टंगे हुए थे। बस के बाहर अंधेरी बस्ती दिखनी शुरू हो गई थी, जहां के किसी कोने में रात बिताते हुए लड़का अपनी उम्र के लिए जरूरी सपने देखेगा, और तब तक देखता रहेगा जब तक कि इन टंगे हुए लोगों में शामिल नहीं हो जाएगा।

टिप्पणियाँ

  1. इस पोस्ट को पढ़कर मुझे भी एक लड़के की याद आ गयी| घर के पास की सब्जी मंदी में मसरूम बेचता हैं| पर यहाँ तो मालिक ही शोसन कर रहा हैं| क्या फायदा ऐसे किताबी कानूनों का जो "युग क्रांति" न ला सकें......

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  2. भैया ऐसे ही है
    सबकी अपनी जिन्दगी है अपनी मन्ज़िल है

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  3. हर उम्मीद एक लाचारी के आगे पस्त थी। आह!!

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  4. "अपने पहने हुए दस्तानों के पोरों को दांतों से कुतरते उस बारह साल के लड़के की आंखों में आशा और निराशा के कितने ही भीषण भाव आए और गुजर गए।"
    दुखद लेकिन हमारे आसपास के सत्य का दर्शन.

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