उस घर में अब वो नहीं रहते
देबूदा पुरानी दिल्ली की बस्ती हिम्मतगढ़ में रहते थे। अजमेरी गेट की तरफ से जाने वाली बहुत सी गलियों में से एक गली थी। गली के एक नुक्कड़ पर वो पुराने वक्त की एक हवेली थी, जिसके खड़े और किंचित अंधेरे में डूबे जीने से होकर देबूदा के यहां पहुंचा जा सकता था। हवेली में देबूदा का घर दरअसल एक आयताकार कमरा था, जिसमें दीवारों और लकड़ी के पार्टीशनों आदि के जरिये रसोई, स्टोर, दो कमरे, बरोठा, बाथरूम निकाल लिए गए थे। बरोठे में छत की जगह लोहे का जाल पड़ा था, जहां से ऊपर वाले घर की आवाजें आया करतीं। अक्सर उनके यहां जाने पर देबूदा बीच वाले कमरे में तख्त पर लगे बिस्तर पर बैठे या लेटे मिलते। कई बार रसोई के काम निबटाते या दरवाजे के बाहर गलियारे में धूप सेंकते भी मिल जाते। साथ वाला दूसरा कमरा उनकी बहन मिष्टु दी का होता, जो कई बार कलकत्ता से वहां आई हुई होतीं। नाटे कद की थोड़ी स्थूल मिष्टु दी को रतौंधी से मिलता जुलता कोई रोग था। उन्हें लगभग कुछ भी दिखाई नहीं देता था। पर अपने छोटे-छोटे कदमों से बगैर लड़खड़ाए वे पूरी कुशलता से रसोई और घर के तमाम कामकाज निबटाया करतीं।
एक नजर में घर के अंदर का ढांचा किसी को बेतरतीब लग सकता ता, पर दरअसल देबूदा के यहां हर चीज पूरी तरह व्यवस्थित थी। टेढ़ी-मेढ़ी एक पर एक रखी किताबों में देबूदा को बिल्कुल सटीक पता होता कि शापेनहावर की फलां किताब उनमें कितनी किताबों के नीचे है, कि उसकी किस पृष्ठ संख्या पर किस बात का उल्लेख है। रसोई में मसाले, चीनी-चाय के डिब्बे बंद ढक्कनों के बावजूद उल्टे पॉलीथिन से ढंके रहते, ताकि वे गर्द और गंदे होने से बचे रहें। यह आज से लगभग बीस-बाईस साल पहले के दिन थे। भूमंडलीकरण के इस दौर को देबूदा `बेलगाम अराजकता का दौर' कहते थे। इस दौर में आसपास के जीवन की मक्कारियों, मूर्खताओं और मुद्रास्फीति से देबूदा को अपनी अदना सी पेंशन के जरिए निबटना था, जो उन्हें अरसा पहले `होलटाइमर' बनने के लिए छोड़ दी गई वित्त मंत्रालय की नौकरी के कारण मिलती थी। आमदनी सामाजिक हैसियत का बड़ा कारण होती है, इसलिए देबूदा पेंशन की रकम के बारे में कभी नहीं बताते थे। `हो सकता है वह तुम्हें इतनी कम लगे कि तुम्हारी नजरों में मेरी इज्जत कम हो जाए' - वे कहते। निश्चित ही इज्जत से उनका तात्पर्य औकात से होता।
देबूदा पुराने कम्युनिस्ट थे। उनकी जिंदगी में एक ऐसी सचेतनता और संजीदगी थी कि उनकी हर गतिविधि और क्रियाकलाप में सोचे समझे सहीपन की एक व्याख्या निहित होती। कई बार मुझे लगता, मानो वे अपनी जिंदगी को एक थ्योरी के रूप में जी रहे हों। देश दुनिया के बारे में उनकी रायें सटीक नतीजों की शक्ल में होतीं। जैसे कि दुनिया में कॉफी हाउस संस्कृति उन्नीसवीं शताब्दी की किस तारीख को शुरू हुई, कि दिल्ली जब ब्रिटिश हुक्मरान की राजधानी थी तब गोरों की संख्या यहां एक हजार से ज्यादा नहीं थी, कि भारतीय जीवन का मूल दर्शन आनंदवाद है, कि काके दा ढाबा और करीम होटल में स्वाद के बुनियादी फर्क क्या हैं, कि संगठित क्षेत्र ज्यादा भौंकने वाले कुत्ते की तरह होता है जिसके आगे महंगाई भत्ते की रोटी फेंकते ही वह मालिक के आगे दुम हिलाने लगता है, आदि। उनका कहना था कि आदमी जब भीतर से असंवेदनशील होता है तो उसकी त्वचा भी वैसी हो जाती है। उन्होंने बताया कि एक रोज उन्होंने बस में अपने बराबर में बैठे एक आदमी को पिन चुभोई तो बहुत देर तक उसे इसका पता ही नहीं चला।
देबूदा की बहन जब यहां होतीं, तो वे उन्हें इलाज के लिए नियमित गुरुनानक अस्पताल ले जाते। देबूदा उस तरह के व्यक्ति थे जो एक वक्त पर अपनी वैचारिकता को वैयक्तिकता से ज्यादा तवज्जो देते हैं और बाद के दिनों में यह वैयक्तिकता किसी स्तर पर उनकी कुंठा बन जाती है। वे अपने आसपास के प्रति अपनी गंभीरता, सूक्ष्मता और लिहाजा कड़वाहट के कारण काफी कुछ अलग-थलग पड़ गए थे। वे अविवाहित थे और अपनी वैयक्तिकता के स्फुरणों को संभवतः समझ नहीं पाते थे, जिसके परावर्तन उनकी बदजबानी में कई बार दिखाई देते। पर उनमें जिम्मेदार और अपनी निष्ठाओं में दुरुस्त रहने की कोशिश हमेशा होती। बहन को अस्पताल ले जाना उनके जीवन के बहुत कम रह गए कामों में से एक था। एक बार उनके घर जाने पर मिष्टु दी नहीं थीं। पूछने पर उन्होंने बताया कि वे चली गईं हमेशा के लिए।
एक बार मैं देबूदा के यहां गया, तब शाम का धुंधलका हो चुका था। वे रसोई में कुछ काम कर रहे थे। हवेली में रहने वाले एक परिवार के दो बच्चे भी उनके यहां थे। वह पड़ोस में एकमात्र परिवार था जिससे उनका कोई संपर्क था। वे उन बच्चों को अपने विशिष्ट अंदाज में पढ़ाते थे और ऊटपटांग ढंग से फटकारते भी रहते थे। थोड़ी देर में उन्होंने बच्चों को जाने का निर्देश दिया, और तनिक देर बाद मुझसे कहा- `देखो बिट्टू तो नहीं है।' मैंने झांककर उसके न होने की पुष्टि की तो उन्होंने फुसफुसाते हुए कहा- `इन बच्चों को नहीं मालूम कि मुझे सेकेंड स्टेज का कैंसर है।' मैं एक क्षण को उनका मुंह देखता रहा। वे बोले- `इलाज चल रहा है। एक-डेढ़ महीने में पता चल जाएगा कि रोकथाम हो पाएगी कि नहीं।' फिर एक क्षण रुककर बोले- `लेकिन मौत मुझपर सवार नहीं है।'
`लेकिन मौत मुझपर सवार नहीं है'-- क्या कह रहे थे देबूदा! क्या अब भी वे `पॉलिटिकली करेक्ट' होने की फिक्र में थे। कुछ न सूझने पर मैंने कहा- `मुझे तो कुछ पता ही नहीं था।' जवाब में उनका अप्रत्याशित आत्मपीड़ा से भरा स्वर सुनकर मैं चौंक-सा गया। वे कह रहे थे-`किसी को मेरी फिक्र क्यों होगी..' ..पड़ोस में रहने वाले बच्चों के पिता भी तब तक वहां आ गए थे। उन्होंने कहा- `आप ऐसा क्यों सोचते हैं, हमें आपकी फिक्र है न!' लेकिन उस भारी वातावरण में कहे गए इन भारहीन शब्दों को देबूदा ने शायद नहीं सुना। वे शून्य में कहीं और ताक रहे थे।
मैं देबूदा के यहां बीच-बीच में जाता था, पर जाते हुए झिझकता भी था। वे स्वाभाविक रवैये में भी छिपे हुए आशय ढूंढ़ते और अपनी पूर्वाग्रही खुर्दबीनी से हमेशा माहौल को तनावग्रस्त बना देते। मैं कई बार उनसे कहना चाहता- `देबूदा, जिंदगी हमेशा उतनी सार्थक, सटीक और ठोस नहीं होती जितना आप सोचते हैं। वो थोड़ी हवाई और खोखली भी होती है।' लेकिन मैं उनसे यह कभी कह नहीं पाया। कई बार लंबे अंतराल पर जाने पर वे मुझे चिढ़े हुए मिलते। चिढ़े होने पर वे जानबूझ कर दूसरे को आहत और दुखी करने वाली बातें करते। अंतिम बार भी ऐसा ही हुआ था। उस रोज उन्होंने अति ही कर दी थी। और एक तीखी झड़प के बाद मैं उनके यहां से निकल आया था।
बाद में कई बार उनसे मिलने का मन हुआ। पर उस रोज कही उनकी अपमानजनक बातों और उनपर मेरी उतनी ही तुर्श प्रतिक्रिया की झिझक बार-बार रोक लेती थी। उनकी बीमारी का खयाल आता तो लगता कि हम जिस अप्रत्याशित की आशंका से हमेशा परेशान रहते हैं वैसा जीवन में कुछ भी नहीं होता, और चीजें हमेशा सहज रूप से चला करती हैं। और यह कि कुछ दिनों बाद जब जाऊंगा तो देबूदा हमेशा की तरह मुझे रसोई में काम करते या तख्त पर बैठे हुए मिल जाएंगे। यह सब सोचते चार-पांच महीने निकल गए।
इसी बीच एक रोज कनाट प्लेस की ओर जाते बस में बिट्टू दिखी। मैं लपक कर उसके पास गया और अभिवादन के बाद पूछा-`देबूदा कैसे हैं?' उसने एक क्षण को देखा और बोली- `वे तो नहीं हैं। दो महीने हो गए उनकी डेथ को।' लगा कहीं गिलट का पुराना बड़ा वाला सिक्का टन्न से नीचे गिरा। ...
वो कह रही थी- `आपको बार-बार याद करते थे। मुझसे कहते थे, तुम उसको फोन करो, पर मेरा नाम मत लेना।'
`उनके सामान वगैरह का क्या हुआ?' मैंने पूछा।
`मकान तो पुराना किराए का था। कोई रिश्तेदार नहीं आया तो वो मकान मालिक के पास ही चला गया। किताबें उनके एक परिचित कामरेड ले गए। सामान भी आसपास वालों में बांट दिया गया।' उसने बताया।
मुझे याद आया, देबूदा ने एक बार कहा था, `कम्युनिस्ट की कोई निजी संपत्ति नहीं होती, मेरी भी नहीं है।'
सचमुच अपनी बात के खरे निकले देबूदा!
एक नजर में घर के अंदर का ढांचा किसी को बेतरतीब लग सकता ता, पर दरअसल देबूदा के यहां हर चीज पूरी तरह व्यवस्थित थी। टेढ़ी-मेढ़ी एक पर एक रखी किताबों में देबूदा को बिल्कुल सटीक पता होता कि शापेनहावर की फलां किताब उनमें कितनी किताबों के नीचे है, कि उसकी किस पृष्ठ संख्या पर किस बात का उल्लेख है। रसोई में मसाले, चीनी-चाय के डिब्बे बंद ढक्कनों के बावजूद उल्टे पॉलीथिन से ढंके रहते, ताकि वे गर्द और गंदे होने से बचे रहें। यह आज से लगभग बीस-बाईस साल पहले के दिन थे। भूमंडलीकरण के इस दौर को देबूदा `बेलगाम अराजकता का दौर' कहते थे। इस दौर में आसपास के जीवन की मक्कारियों, मूर्खताओं और मुद्रास्फीति से देबूदा को अपनी अदना सी पेंशन के जरिए निबटना था, जो उन्हें अरसा पहले `होलटाइमर' बनने के लिए छोड़ दी गई वित्त मंत्रालय की नौकरी के कारण मिलती थी। आमदनी सामाजिक हैसियत का बड़ा कारण होती है, इसलिए देबूदा पेंशन की रकम के बारे में कभी नहीं बताते थे। `हो सकता है वह तुम्हें इतनी कम लगे कि तुम्हारी नजरों में मेरी इज्जत कम हो जाए' - वे कहते। निश्चित ही इज्जत से उनका तात्पर्य औकात से होता।
देबूदा पुराने कम्युनिस्ट थे। उनकी जिंदगी में एक ऐसी सचेतनता और संजीदगी थी कि उनकी हर गतिविधि और क्रियाकलाप में सोचे समझे सहीपन की एक व्याख्या निहित होती। कई बार मुझे लगता, मानो वे अपनी जिंदगी को एक थ्योरी के रूप में जी रहे हों। देश दुनिया के बारे में उनकी रायें सटीक नतीजों की शक्ल में होतीं। जैसे कि दुनिया में कॉफी हाउस संस्कृति उन्नीसवीं शताब्दी की किस तारीख को शुरू हुई, कि दिल्ली जब ब्रिटिश हुक्मरान की राजधानी थी तब गोरों की संख्या यहां एक हजार से ज्यादा नहीं थी, कि भारतीय जीवन का मूल दर्शन आनंदवाद है, कि काके दा ढाबा और करीम होटल में स्वाद के बुनियादी फर्क क्या हैं, कि संगठित क्षेत्र ज्यादा भौंकने वाले कुत्ते की तरह होता है जिसके आगे महंगाई भत्ते की रोटी फेंकते ही वह मालिक के आगे दुम हिलाने लगता है, आदि। उनका कहना था कि आदमी जब भीतर से असंवेदनशील होता है तो उसकी त्वचा भी वैसी हो जाती है। उन्होंने बताया कि एक रोज उन्होंने बस में अपने बराबर में बैठे एक आदमी को पिन चुभोई तो बहुत देर तक उसे इसका पता ही नहीं चला।
देबूदा की बहन जब यहां होतीं, तो वे उन्हें इलाज के लिए नियमित गुरुनानक अस्पताल ले जाते। देबूदा उस तरह के व्यक्ति थे जो एक वक्त पर अपनी वैचारिकता को वैयक्तिकता से ज्यादा तवज्जो देते हैं और बाद के दिनों में यह वैयक्तिकता किसी स्तर पर उनकी कुंठा बन जाती है। वे अपने आसपास के प्रति अपनी गंभीरता, सूक्ष्मता और लिहाजा कड़वाहट के कारण काफी कुछ अलग-थलग पड़ गए थे। वे अविवाहित थे और अपनी वैयक्तिकता के स्फुरणों को संभवतः समझ नहीं पाते थे, जिसके परावर्तन उनकी बदजबानी में कई बार दिखाई देते। पर उनमें जिम्मेदार और अपनी निष्ठाओं में दुरुस्त रहने की कोशिश हमेशा होती। बहन को अस्पताल ले जाना उनके जीवन के बहुत कम रह गए कामों में से एक था। एक बार उनके घर जाने पर मिष्टु दी नहीं थीं। पूछने पर उन्होंने बताया कि वे चली गईं हमेशा के लिए।
एक बार मैं देबूदा के यहां गया, तब शाम का धुंधलका हो चुका था। वे रसोई में कुछ काम कर रहे थे। हवेली में रहने वाले एक परिवार के दो बच्चे भी उनके यहां थे। वह पड़ोस में एकमात्र परिवार था जिससे उनका कोई संपर्क था। वे उन बच्चों को अपने विशिष्ट अंदाज में पढ़ाते थे और ऊटपटांग ढंग से फटकारते भी रहते थे। थोड़ी देर में उन्होंने बच्चों को जाने का निर्देश दिया, और तनिक देर बाद मुझसे कहा- `देखो बिट्टू तो नहीं है।' मैंने झांककर उसके न होने की पुष्टि की तो उन्होंने फुसफुसाते हुए कहा- `इन बच्चों को नहीं मालूम कि मुझे सेकेंड स्टेज का कैंसर है।' मैं एक क्षण को उनका मुंह देखता रहा। वे बोले- `इलाज चल रहा है। एक-डेढ़ महीने में पता चल जाएगा कि रोकथाम हो पाएगी कि नहीं।' फिर एक क्षण रुककर बोले- `लेकिन मौत मुझपर सवार नहीं है।'
`लेकिन मौत मुझपर सवार नहीं है'-- क्या कह रहे थे देबूदा! क्या अब भी वे `पॉलिटिकली करेक्ट' होने की फिक्र में थे। कुछ न सूझने पर मैंने कहा- `मुझे तो कुछ पता ही नहीं था।' जवाब में उनका अप्रत्याशित आत्मपीड़ा से भरा स्वर सुनकर मैं चौंक-सा गया। वे कह रहे थे-`किसी को मेरी फिक्र क्यों होगी..' ..पड़ोस में रहने वाले बच्चों के पिता भी तब तक वहां आ गए थे। उन्होंने कहा- `आप ऐसा क्यों सोचते हैं, हमें आपकी फिक्र है न!' लेकिन उस भारी वातावरण में कहे गए इन भारहीन शब्दों को देबूदा ने शायद नहीं सुना। वे शून्य में कहीं और ताक रहे थे।
मैं देबूदा के यहां बीच-बीच में जाता था, पर जाते हुए झिझकता भी था। वे स्वाभाविक रवैये में भी छिपे हुए आशय ढूंढ़ते और अपनी पूर्वाग्रही खुर्दबीनी से हमेशा माहौल को तनावग्रस्त बना देते। मैं कई बार उनसे कहना चाहता- `देबूदा, जिंदगी हमेशा उतनी सार्थक, सटीक और ठोस नहीं होती जितना आप सोचते हैं। वो थोड़ी हवाई और खोखली भी होती है।' लेकिन मैं उनसे यह कभी कह नहीं पाया। कई बार लंबे अंतराल पर जाने पर वे मुझे चिढ़े हुए मिलते। चिढ़े होने पर वे जानबूझ कर दूसरे को आहत और दुखी करने वाली बातें करते। अंतिम बार भी ऐसा ही हुआ था। उस रोज उन्होंने अति ही कर दी थी। और एक तीखी झड़प के बाद मैं उनके यहां से निकल आया था।
बाद में कई बार उनसे मिलने का मन हुआ। पर उस रोज कही उनकी अपमानजनक बातों और उनपर मेरी उतनी ही तुर्श प्रतिक्रिया की झिझक बार-बार रोक लेती थी। उनकी बीमारी का खयाल आता तो लगता कि हम जिस अप्रत्याशित की आशंका से हमेशा परेशान रहते हैं वैसा जीवन में कुछ भी नहीं होता, और चीजें हमेशा सहज रूप से चला करती हैं। और यह कि कुछ दिनों बाद जब जाऊंगा तो देबूदा हमेशा की तरह मुझे रसोई में काम करते या तख्त पर बैठे हुए मिल जाएंगे। यह सब सोचते चार-पांच महीने निकल गए।
इसी बीच एक रोज कनाट प्लेस की ओर जाते बस में बिट्टू दिखी। मैं लपक कर उसके पास गया और अभिवादन के बाद पूछा-`देबूदा कैसे हैं?' उसने एक क्षण को देखा और बोली- `वे तो नहीं हैं। दो महीने हो गए उनकी डेथ को।' लगा कहीं गिलट का पुराना बड़ा वाला सिक्का टन्न से नीचे गिरा। ...
वो कह रही थी- `आपको बार-बार याद करते थे। मुझसे कहते थे, तुम उसको फोन करो, पर मेरा नाम मत लेना।'
`उनके सामान वगैरह का क्या हुआ?' मैंने पूछा।
`मकान तो पुराना किराए का था। कोई रिश्तेदार नहीं आया तो वो मकान मालिक के पास ही चला गया। किताबें उनके एक परिचित कामरेड ले गए। सामान भी आसपास वालों में बांट दिया गया।' उसने बताया।
मुझे याद आया, देबूदा ने एक बार कहा था, `कम्युनिस्ट की कोई निजी संपत्ति नहीं होती, मेरी भी नहीं है।'
सचमुच अपनी बात के खरे निकले देबूदा!
प्रभावकारी लेखन। उम्मीद जगाता लेखन। शुक्रिया...
जवाब देंहटाएंप्रेरक प्रसंग। वाह।।
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
umda !
जवाब देंहटाएंabhinav!
anupam!
BADHAI!
acha hai swagat apka
जवाब देंहटाएंदेबुदा जैसे व्यक्तिओं में कुछ खासियत होती है और संवेदनशील व्यक्ति ही व्यक्ति विशेष के बारे में अपने अनुभव लिखता है..,बहुत सुन्दर और प्रभावित करने वाला लेखन..,लेख पढ़ते समय में पुरानी दिल्ली की बस्ती हिम्मतगढ़ पहुच गया था देबुदा जी के आयताकार कमरे में ..
जवाब देंहटाएंहमारी शुभकामनाएं सदा आपके साथ है..,खूब लिखें और बेहतर लिखें ..मक्
Saans jaane bojh kaise jivan ka dhoti rahi
जवाब देंहटाएंNayan bin ashru rahe par zindagi roti rahi.
Ek mahal ke bistare pe sote rahe kutte billiyaan
Dhoop me pichwaade ek bachchi choti soti rahi .
Ek naajuk khwaab ka anzaam kuch easa hua
Main tadapta raha idhar wo us taraf roti rahi
Tang aakar Muflisi se khudkushi kar li magar
Do ghaz qafan ko laash uski baat johati rahi
Bookh gharibi,laachari ne umar tak peecha kiya
Mehnat ke rookh par zardian tan pe phati dhoti rahi
Aaj to us maa ne jaise - taise bachche sulaa diye
Kal ki fikr par raat bhar daaman bhigoti rahi.
“Deepak” basher ki khawahishon ka qad itna bad gaya
Khawahishon ki bheed me kahi zindagi khoti rahi.
@ Kavi Deepak Sharma
http://www.kavideepaksharma.co.in
http://www.shayardeepaksharma.blogspot.com
उफ़...
जवाब देंहटाएंपता नहीं क्यों?...
ये सारे समझदार, ईमानदार और समर्पित लोग कम्युनिस्ट ही क्यूं निकलते हैं..
समझ नहीं आता...क्या आपको पता है?
बेहतर है श्रीमान...
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं.....
sabhee aise nahi hote, jo hain unko lal salam. narayan narayan
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्लाग जगत में स्वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।
जवाब देंहटाएं