गनीमत है कि गनीमत है



     गनीमत है कि भुखमरी, अशिक्षा, बेरोजगारी वगैरह के बावजूद लोकतंत्र देश में अभी बचा हुआ है। जैसे गुजरात और कश्मीर के बावजूद सेक्युलरिज्म अभी बचा हुआ है। भूमंडलीकरण के बावजूद न्यूनतम वेतन कानून बचा हुआ है। कम्युनिज्म के दुनिया में न रहने के बावजूद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी बची हुई है।
     कवि मदन कश्यप की एक पंक्ति है गनीमत है कि गनीमत है। गनीमतें हमारे वक्त में टूटी पड़ रही हैं। दिन भर बिजली गायब रहती है, लोग कहते हैं गनीमत है कि रात को तो आ जाती है। अखबारों में बलात्कार और छेड़खानी की खबरें बढ़ती हैं तो लोग कहते हैं कि गनीमत समझो कि जीबी रोड और सोना गाछी अभी बचे हैं। कई बार लगता है कि शायद किसी दिन ये गनीमतें चुक जाएंगी। लेकिन गनीमतें भी कभी चुका करती हैं क्या? आज अगर इसलिए गनीमत है कि पड़ोस में हमसे भी गरीब बांग्लादेश है, तो कल क्या इसलिए गनीमत में नहीं होंगे कि कहीं न कहीं कोई इथियोपिया दुनिया में तब भी होगा। जैसे विश्वव्यापी मंदी के बावजूद उपभोक्तावाद बचा हुआ है। बार बार के सूखे और बाढ़ के बावजूद खेती अभी बची हुई है, तमाम विनिवेश के बावजूद सार्वजनिक क्षेत्र अभी बचा हुआ है, क्या वैसे ही गनीमतें भी हमेशा बची नहीं रहेंगी?
     खत्म हो जाना बचे रहने की एक विलोम स्थिति है। जिस तरह खत्म हो जाना सृष्टि की अनिवार्यता है वैसे ही खत्म हो जाना भूमंडलीकरण की दुनिया का एक मूल्य है। हर साल ट्रेन और हवाई दुर्घटनाओं में कितने ही लोग मरते हैं, पर कुछ बच भी जाते हैं। बचे रहने का सुख इन खत्म न हुए लोगों को शायद सबसे अच्छी तरह पता होगा। गुजरात के दंगों पर एक डॉकुमेंटरी देखते हुए लगा कि उसमें कई ऐसे पात्र थे जो बचे रहने के बावजूद काफी हताश थे। एक किशोर था जिसके परिवार के पांच लोगों को मार दिया गया, लेकिन वो अपने बचे रहने पर तनिक भी खुश नहीं दिखा। 
     यह एक महत्त्वपूर्ण सवाल है कि लोकतंत्र इस देश में क्यों बचा हुआ है। प्रत्यक्षतः इसके तीन कारण नजर आते हैं।एक- इससे नेताओं को सत्ता मिलती है, दो- नौकरशाहों को वेतन मिलता है, तीन- जनता को करीबी रेखा से ऊपर रहने के लिए सात सौ ग्राम चावल प्रतिदिन की संभावना मिलती है। गरीबी रेखा से नीचे रह रहे 27 करोड़ लोगों के लिए यह संभावना क्योंकि अभी दूर की कौड़ी है, लिहाजा वे आम की गुठली पीसकर उसके आटे से गुजारा किया करते हैं। जिस बीच 27 करोड़ लोग गुठलियां पीस रहे होते हैं, उस बीच कंपनियां आम के गूदे से आमपापड़ बनाकर बाजार में बेच रही होती हैं। यानी जब तक गरीबों के लिए गुठलियों और अमीरों के लिए आमपापड़ की संभावना बची हुई है तब तक लोकतंत्र बचा हुआ है। 
     लोकतंत्र देश में वैसे ही बचा है जैसे मध्यवर्ग में सहिष्णुता बची है। कुछ लोग आज भी इसे गनीमत के स्तर के आसपास रखते हैं। वे कहते हैं कि गनीमत है कि देश चल रहा है। बड़ी खुशी की बात है कि ठहरे हुए एशिया में हिंदुस्तान चल रहा है। जैसे गड्ढे के पानी में केंचुआ अपना शरीर घसीटते हुए चलता है।जैसे रक्षा सौदों में कमीशन चलता है। जैसे शादियों में दहेज चलता है। जैसे न्यायलयों में मुकदमे चलते हैं, जैसे मुकदमों में पेशेवर गवाह चलते हैं। लोकतंत्र गरीब की पत्तल है जिस पर अमीर खाना खाते हैं और फिर छेद कर देते हैं। लोकतंत्र एक सकोरा भी है जिसमें भरकर सरकार और सरकार के मुलाजिम सत्ता का सोमरस पिया करते हैं। सुकरात को इसी सकोरे में जहर भरकर पीने के लिए दिया गया था। मुकदमे के दौरान अपना पक्ष रखते हुए सुकरात ने एथेंस की तुलना एक शानदार लेकिन आलसी घोड़े से की थी और खुद की खुदा की भेजी हुई मक्खी से, जो डंक मारकर सोए हुए घोड़े को जगाने का काम करती है।एथेंस अगर शानदार घोड़ा था, तो हिंदुस्तान विशालकाय हाथी है। वह अगर आलस्य की नींद में था, तो यह जातीयता के नशे में है। यह कई सदी पुराना नशा है। डंक मारने से यह नहीं टूटेगा, इसके लिए तो पूंछ में आतिशबाजी की लड़ लगानी होगी।

टिप्पणियाँ

  1. Bahut khub..
    खत्म हो जाना बचे रहने की एक विलोम स्थिति है। जिस तरह खत्म हो जाना सृष्टि की अनिवार्यता है वैसे ही खत्म हो जाना भूमंडलीकरण की दुनिया का एक मूल्य है।
    that sound ompressive.. and its truly my kind

    kanishka kashyap
    Content-Head
    Swarajtv

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  2. यही तो सबसे बडी गनीमत है।

    SBAI TSALIIM

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  3. यही तो सबसे बडी गनीमत है।

    SBAI TSALIIM

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  4. लोकतंत्र - जो भी हो, मार्क्सवाद, लेनिनवाद, फासीवाद, मिलित्रीवाद और स्टालिनवाद जैसी तानाशाहियों से, कास्त्रोवाद जैसी शोषक मौकापरास्तियों से और माओवाद, पोल -पोत्वाद आदि जैसे आदमखोरों से अब भी कहीं बेहतर विकल्प है.
    लोकतंत्र में लोक इतना प्रधान है जो किसी भी अन्य तंत्र - किताबी या ज़मीनी - में नहीं है
    जो लोग सोचते हैं कि रेल की पटरियां उखाड़ के, स्कूल जला के या सड़कें बारूदी सुरंग से उड़ा के वे लोकतंत्र की आवाज़ दबा देंगे उन बदनसीबों को सच की ज़रा भी पहचान नहीं है. लोकतंत्र तो रूस और समस्त पूर्वी यूरोप में दशकों तक कुचले जाने के बावजूद भी मारा नहीं जा सका था.

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