अंग्रेज भारत में कैसे आए
भारत में सबसे पहला अंग्रेज थॉमस स्टीवन एक पुर्तगाली कर्मचारी था,
जो 24 अक्टूबर 1579 को समुद्र के रास्ते गोवा पहुँचा था। वह एक समर्पित कैथोलिक था जिसे गोवा के एक
उपनगर का अफसर नियुक्त किया गया। यहाँ रहते हुए उसने मराठी और कोंकणी भाषा सीखी और
यहीं की भाषा में ‘क्राइस्ट पुराण’ लिखी। लेकिन
व्यापाराना उद्देश्यों से बिल्कुल शुरू में आए अंग्रेज पहली बार गुजरात के नजदीक
दीव में 5 नवंबर 1583 को पहुँचे थे। यह व्यापारियों का एक ग्रुप था जो जमीन के
रास्ते भारत और चीन से व्यापार की संभावनाएँ तलाश करने के लिए उसी साल फरवरी में
लंदन से ‘टाइगर’ नाम के जहाज पर
निकला था। उनका सबसे पहला पड़ाव सीरिया का एलेप्पो शहर था (‘मैकबेथ’ की पहली चुड़ैल कहती है ‘Her husband to Aleppo gone,
master of the Tiger.’)। वहाँ से वे इराक के बसरा, बगदाद, और फिर ईरान के ओरजस बंदरगाह, जो
पुर्तगालियों के कब्जे में था, तक कभी समुद्र, कभी नदी, कभी जमीन के रास्ते होते
हुए पहुँचे थे। यहाँ उन्हें जासूस होने के शक में गिरफ्तार कर जहाज पर लादकर गोवा
लाया गया और जेल में डाल दिया गया। जेल से जमानत पर बाहर आने में उनकी मदद ऊपर
जिक्र किए गए पहले अंग्रेज थॉमस स्टीवन ने की। लंदन से चले दल में से दो पहले ही
बसरा में अलग हो चुके थे। बचे तीन में से एक पेंटर था, जिसे गोवा में चर्च को
सँवारने का काम मिल गया, और बाकी दोनों जमानत में ही भाग निकलकर भारत और आसपास के
देशों में अगले कई सालों तक घूमते रहे। इनमें से एक राल्फ फिच ने भारत के बारे में
जो यात्रावृत्त लिखा वह बाद के अंग्रेजों के लिए भारत के बारे में जानकारियों का
एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज साबित हुआ।
अंग्रेज व्यापारियों के भारत आने की खबर पुर्तगालियों के लिए कान खड़े
करने वाली थी। यह एशिया के व्यापार पर उनके एकाधिकार के लिए खतरे की घंटी थी। दरअसल
अटलांटिक महासागर में स्पेन और पुर्तगाल के वर्चस्व पर इंग्लैंड के नाविक कई दशकों
से परेशानी खड़ी कर रहे थे। 1562 में अंग्रेज व्यापारियों ने अफ्रीका से गुलामों
को ले जा रहे पुर्तगाली जहाज को हाईजैक करके तीन सौ गुलामों की बिक्री से मुलाफा
कमाया था। पुर्तगाल छोटा देश था लेकिन 1580 में वहाँ की राजशाही का कोई वारिस न
होने से स्पेन का फिलिप द्वीतीय दोनों देशों का संयुक्त सम्राट बन गया। और अंततः
1585 में इंग्लैंड से स्पेन-पुर्तगाल का युद्ध शुरू हो गया, जो लगभग दो दशक तक चला।
1585 के इसी साल में सम्राट फिलिप को जब अंग्रेज व्यापारियों के गोवा में होने की
खबर मिली तो उसने पुर्तगाली क्षेत्र में उनके विचरण को निषिद्ध करने का निर्देश
भिजवाया। दरअसल एशियाई व्यापार पर पुर्तगाल के एकाधिकार की वजह थी-- उनका समुद्री
रास्तों का ज्ञान। उक्त निर्देश का मकसद निश्चित ही उस ज्ञान को लीक हो जाने से
बचाना ही होगा। लेकिन अंततः अगले कुछ सालों में यह ज्ञान लीक हो ही गया, और वह भी
एक धोखे से।
1583 से 1588 के दौरान गोवा में पुर्तगाल के वायसराय का सचिव जान हुएन
वान नाम का एक डच व्यक्ति था। उसने अपने पद का लाभ उठाकर पुर्तगालियों
के समुद्री रास्तों से संबंधित सारे ब्योरों को गुपचुप तरीके से हासिल कर लिया। उसने
नक्शों की प्रतिलिपियाँ बनाईं और बेहद गोपनीय चार्टों को पृष्ठ-दर-पृष्ठ उतार
लिया। इस तरह वे सारे दस्तावेज, जिनमें रास्ते में पड़ने वाले द्वीपों, रेतीले
तटों, पानी की गहराई, लहरों की तीव्रता आदि के विवरण थे, हासिल करके पदमुक्त होने
के चार साल बाद वह अपने देश हॉलैंड लौट गया। वहाँ उसने 1596 में इन दस्तावेजों की
एक किताब छपवाई, जो बाद में अंग्रेजी में भी प्रकाशित हुई। हालाँकि अंग्रेज
व्यापारी इससे पहले भारत पहुँचने के अन्य संभावित रास्तों की खँगाल करते हुए पूरे
ग्लोब का चक्कर लगा चुके थे, और भारत पहुँचने की कवायद में केप ऑफ गुड होप के
रास्ते अरब सागर और मलेशिया तक जाकर लौट चुके थे। लेकिन तथ्य यही है कि पुर्तगालियों
का सामुद्रिक ज्ञान सार्वजनिक हो जाने से ही यूरोप के व्यापारियों में यह
आत्मविश्वास आया कि बाकायदा इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी और डच ईस्ट इंडिया कंपनी
बनाकर अभियान शुरू किए जा सके।
यह सन 1600 का दिसंबर महीना था जब ब्रिटिश
महारानी ने नवगठित ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में व्यापार करने की आज्ञा जारी की। पाँच
जहाजों का पहला बेड़ा इसके चार महीने बाद अप्रैल 1601 में उसी कैप्टेन जेम्स
लैंकास्टर के नेतृत्व में रवाना हुआ जो सन 1591 में मलेशिया के नजदीक तक का चक्कर
लगा चुका था। उसके पास महारानी की ओर से जारी छह पत्र थे जिनमें संबंधित राजाओं के
संबोधन वाली जगह खाली छोड़ी हुई थी। पुर्तगालियों के डर से बेड़ा अंडमान से होता
हुआ इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप पहुँचा, जहाँ के बेंटन में पहली ब्रिटिश
फैक्ट्री लगाई गई।
ईस्ट इंडिया कंपनी के जहाज इसके बाद नियमित रूप
से हिंद महासागर में आने लगे, लेकिन पुर्तगालियों के कारण भारत के समुद्र तट तक
उनकी पहुँच अभी नहीं बनी थी। 1604 में स्पेन-पुर्तगाल के साथ इंग्लैंड का युद्ध
समाप्त होने से ईस्ट इंडिया कंपनी के लोगों को उम्मीद बँधी कि शायद पुर्तगाली अब
उनके प्रति पहले की तुलना में विनम्र होंगे। इसी उम्मीद से कैप्टेन विलियम हॉकिन्स
24 अगस्त 1608 कोजहाज ‘हेक्टर’ में डेढ़ साल
की यात्रा के बाद गुजरात में सूरत के समुद्र तट पर पहुँचा, और इस तरह पहली बार
हिंदुस्तानी लोगों ने एक ब्रिटिश झंडा भारतीय समुद्र तट पर देखा। हॉकिन्स के पास
बादशाह जहाँगीर के नाम इंग्लैंड के सम्राट की चिट्ठी थी, और बहुत सारे उपहार थे।
लेकिन उसके साथ यहाँ अच्छा बर्ताव नहीं हुआ। पुर्तगालियों ने उसके लोगों को बंधक
बनाकर साथ लाए सामान पर कब्जा कर लिया; और ऐसा ही कुछ मुगलों के स्थानीय प्रशासक मुकर्रब खाँ ने किया। खुद
को ब्रिटिश राजदूत बताने से उसे थोड़ी रियायत हासिल हुई, जिसके कारण वह खाली हाथ
ही सही 9 अगस्त 1608 को जहाँगीर के दरबार में आगरा जा पहुँचा। दरबार में उसका
अच्छा स्वागत हुआ। हॉकिन्स को तुर्की भाषा आती थी (जो कि उसे इस यात्रा का कैप्टेन
नियुक्त किए जाने की एक वजह भी थी), जिसकी मदद सेजल्द ही वह बादशाह के खास लोगों में शुमार हो गया। उसे
चार सौ सवारों का कप्तान बनाकर स्थानीय राजदूत का ओहदा दे दिया गया। उसने यहाँ
रहने वाली एक ईसाई अर्मीनियाई लड़की से शादी भी कर ली। लेकिन यह सब होने के बावजूद
हॉकिन्स को व्यापार करने और फैक्टरी लगाने की इजाजत हासिल करने में सफलता नहीं मिल
पाई, क्योंकि बादशाह से नजदीकी ने दरबार में उसके बहुत से शत्रु पैदा कर दिए थे। लेकिन
हॉकिन्स के आने का यह नतीजा जरूर हुआ कि अंग्रेजों के जहाज भारतीय समुद्रतट पर
दिखने लगे। हालाँकि ब्रिटिश सम्राट जेम्स प्रथम ने सन 1609 में कंपनी के
व्यापार-अधिकार को इस चेतावनी के साथ तीन साल के लिए बढ़ाया था कि अगर वह इस दौरान
मुनाफा नहीं कमा सकी तो भारत के आसपास उसके व्यापार के अधिकार समाप्त कर दिए
जाएँगे।
लेकिन सूरत की फैक्टरी भारत में अंग्रेजों का
पहला ठिकाना नहीं थी। इससे एक साल पहले सन 1611 में अंग्रेज कोरोमंडल तट पर डच कंपनी
के प्रभुत्व वाले इलाके से थोड़ी दूर आंध्रप्रदेश के मछलीपटनम में अपनी फैक्ट्री
स्थापित कर चुके थे। यहाँ पैर टिकाना उनके लिए इसलिए आसान रहा, कि यह क्षेत्र
मुगलों के नहीं बल्कि गोलकुंडा के मुस्लिम राजा के अधीन था। विजयनगर साम्राज्य की
पराजय को अभी पचास साल भी नहीं हुए थे, और यहाँ का प्रशासन मुगलों जैसा स्थिर नहीं
था।
सूरत की लड़ाई के तीन साल बाद 1615 में
इंग्लैंड का राजदूत थॉमस रो जहाँगीर के दरबार में पहुँचा, जहाँ से उसे भारत में
कहीं भी व्यापार करने का फरमान हासिल हुआ। इस शाही संरक्षण के हासिल हो जाने के बाद
अंग्रेजों का कारोबार तेजी से भारत में बढ़ने लगा। 1647 तक भारत में अंग्रेजों की
23 फैक्टरियाँ स्थापित हो चुकी थीं। फैक्टरी का ढाँचा कुछ ऐसा था कि एक फैक्टरी
में उसके गवर्नर सहित नब्बे लोग काम करते थे, और ये ऊँची-ऊँची दीवारों से घिरी
किलेनुमा होती थीं। सूरत के अलावा मद्रास (1639), मुंबई (1668), और कलकत्ता (1690)
की फैक्टरियाँ इनमें सबसे बड़ी थीं। 1664 में जब शिवाजी ने सूरत पर धावा बोला था
तब फैक्टरी की ऊँची और मजबूत दीवारों के कारण उसका बाल भी बाँका नहीं हुआ था।
हैसियत बढ़ने के साथ-साथ अंग्रेजों के उग्र रूप
भी दिखाई देने लगे। 1682 में कंपनी के आवेदन पर उसेबंगाल में अपना व्यापार केन्द्र
बनाने की इजाजत दे दी गई। लेकिन कुछ अरसे बाद जब उसने चटगाँव में किला बनाने की
इजाजत भी चाही, तो वह उसे नहीं दी गई। उल्टे बंगाल के शासक शाइस्ता खाँ ने साढ़े
तीन फीसद टैक्स कंपनी पर और बढ़ा दिया (जो यकीनन दकक्न में चल रहे युद्ध के घाटे
को पूरा करने के लिए ही बढ़ाया गया होगा)। नतीजे में कंपनी ने 1685 में युद्ध की
तैयारी कर ली।इसके लिए बर्मा के सूबे अराकान के राजा से समझौता किया गया। कंपनी का
इरादा बंगाल के चटगाँव नगर को अपने लिए एक सुरक्षित किले में तब्दील करना था। ऐसा
माना जाता है कि ऐसा करने के बाद उनका इरादा ढाका में उत्पात मचाना था, और फिर
मुगलों के साथ शांति का समझौता करते हुए ढाका और चटगाँव को अपने लिए स्वतंत्र
क्षेत्र के रूप में हासिल कर लेना था। कंपनी की ओर सेजॉब चारनाक के नेतृत्व में एडमिरल
निकल्सन बारह जहाजों, दो सौ तोपों, दो सौ अतिरिक्त बंदूकों और एक हजार लोगों के
साथचटगाँव के लिए निकला लेकिन हवा का रुख जब जहाजों को हुगली के किनारे ले आया तो
उसने वहीं डेरा डालकर गोलीबारी शुरू कर दी जिसमें बहुत से मकानों के परखच्चे उड़
गए। ऐसे हालात देखकर शाइस्ता खाँ ने कंपनी की सारी फैक्टरियों को जब्त करने के
आदेश दिए और बड़ी तादाद में सेना बुला ली। चारनाक को इसकी खबर लग चुकी थी, और इन
हालात में उसके लिए कंपनी की पुरानी स्थिति पर समझौता करने के अलावा कोई रास्ता
नहीं बचा था। ऐसा होने का एक कारण यह भी था कि उसके जहाज बड़े पैमाने पर
क्षतिग्रस्त थे, और उनकी मरम्मत होने की आवश्यकता थी। लेकिन तब तक शाइस्ता खाँ की
सेनाएँ करीब आ चुकी थीं और ऐसे में उन्हें इन्हीं क्षतिग्रस्त जहाजों पर भागकर एक
ऐसे द्वीप पर शरण लेनी पड़ी जहाँ मच्छरों, साँपों और शेरों की भरमार थी। आधे
अंग्रेजों को यहाँ जान से हाथ धोना पड़ा और बाकी की जान माफीनामे के बाद बची।
अंग्रेजों की सीनाजोरी की मिसाल सिर्फ बंगाल की
यह घटना ही नहीं थी; सन
1688 में उन्होंने सूरत से मक्का के लिए जा रहे हिंदुस्तानी जहाज को बंधक बना
लिया। न सिर्फ इतना बल्कि बंगाल में हार के बाद कैप्टेन हेराथ डेढ़ सौ सैनिकों के
साथ उड़ीसा के बालासोर में उत्पात मचाने के लिए जा पहुँचा। वहाँ उसने भयानक तांडव
मचाया। इन सबसे खफा होकर औरंगजेब ने पूरे देश में अंग्रेजों की संपत्तियों को जब्त
करने का आदेश जारी किया। आदेश के नतीजे में बड़ी संख्या में कंपनी की संपत्तियाँ
जब्त की गईं, अंग्रेजों को जेल में डाला गया और फाँसी पर लटकाया गया। अब सिर्फ
मद्रास और बंबई के मजबूत किलों और माफी माँगने के एकमात्र रास्ते के अलावा उनके
पास कुछ नहीं बचा था;
(और बंबई का किला भी पूरी तरह औरंगजेब के विश्वासपात्र सिद्दी याकूब की घेरेबंदी
में था)। अलबत्ता माफी की एवज में उन्हें औरंगजेब के कदमों में सिर रखना पड़ा और
भारी हरजाना चुकाना पड़ा।
इन वाकयों के सिर्फ पंद्रह साल बाद थॉमस पिट
नाम के ब्रिटिश अधिकारी ने भारत में हिंदू सिपाहियों को अंग्रेज सैन्य अफसरों के
अधीन भर्ती करने की वकालत की और संभवतः ऐसा शुरू भी कर दिया। उसके आधी सदी बाद हुई
प्लासी की लड़ाई के वक्त कंपनी के पास कुल चार हजार सैनिकों की सेना थी। माना जाता
है कि राबर्ट क्लाइव ने वह लड़ाई धोखे और झूठ से जीती थी। लेकिन यह बात पूरी तरह
सच नहीं है। प्लासी की लड़ाई में क्लाइव के छल-छद्म, दुस्साहस और युद्ध-कुशलता
सबको मिला भी दें तब भी वह लड़ाई जीती नहीं जा सकती थी। मीर जाफर की दगाबाजी के
बावजूद सिराजुद्दौला के साथ क्लाइव के चार हजार सैनिकों के मुकाबले बारह हजार
सैनिक थे, और फ्रांसीसियों के तोपखाने का साथ था। वह दरअसल दो तत्कालीन राष्ट्रीय
किरदारों की एक प्रतीकात्मक लड़ाई थी, जिसमें 24 साल का अनुभवहीन सिराजुद्दौला
गद्दारी, आत्मविश्वासहीनता और चूकों (युद्ध के दौरान बारिश हो जाने से उसकी सेना
का बारूद गीला होकर बेकार हो गया था) का शिकार हुआ। यह युद्ध अंग्रेजों ने इतने कम
साधनों में जीत लिया था कि इससे उन्हें भविष्य में मिलने वाली सफलताओं का अनुमान
हो गया। जाति, धर्म, क्षेत्रीय पहचानों में बँटा और सामुदायिकता के मुकाबले अक्सर
निजी स्वार्थ को सर्वोपरि रखने की प्रवृत्ति आदि अवयवों से लबालब एक देश को फतह कर
लेने के उनके इस आत्मविश्वास पर सात साल बाद बक्सर में हुई लड़ाई ने पूरी तरह मोहर
लगा दी, जिसमें अंग्रेज सेना के मुकाबले मुस्लिम राजाओं की विशाल संयुक्त सेना को
एक बार फिर हार का मुँह देखना पड़ा।
ऐसा नहीं था कि अंग्रेजों के अपने झगड़े और
स्वार्थ नहीं थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों ने मसालों, नील, चाय, सूत और गोला-बारूद बनाने में काम आने
वाले साल्टपीटर के धंधे से मोटा मुनाफा कमाया था। ऐसे में बहुत से अफसरों ने और
ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए स्वतंत्र रूप से काम करना शुरू कर दिया (ईस्ट इंडिया
कंपनी द्वारा मक्का जा रहे मुगल जहाज को बंधक बनाने के पीछे मुख्य वजह उनकी यह माँग
ही थी कि इन स्वतंत्र व्यापारियों को बेदखल करके उसके एकाधिकार को बहाल किया जाए)।
लंदन में इन व्यापारियों की मजबूत लॉबी ने आखिर 1694 में अपने पक्ष में कानून पास
करवा कर ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार को समाप्त कर दिया। और अंततः अपनी एक
स्वतंत्र कंपनी ‘इंग्लिश कंपनी ट्रेडिंग टु द ईस्ट इंडीज’ बना ली। लेकिन बाद में फायदा न दिखने पर इन दोनों कंपनियों को एक ही
में मिला दिया गया।
भारत में अंग्रेजी राज के कारणों की सरसरी शिनाख्त में स्पष्ट दिखाई
देता है कि अंग्रेजों को प्राथमिकता के मुताबिक अपने कर्तव्य को निर्धारित करने और
अडिग रहने की प्रवृत्ति ने तो फायदा पहुँचाया ही, साथ ही तब तक रहे भारतीय राज्य
के उस ढाँचे ने भी, जिसमें आम जनता सिर्फ सत्ता के हितों को पूरा करने का माध्यम
रहती आई थी। अकबर के समय में जो राजस्व उपज का 33 फीसदी होता था, शाहजहाँ और
औरंगजेब के समय में कई बार उसे 50 फीसदी तक कर दिया गया। इतिहासवेत्ता मुश्ताक काव
के मुताबिक** टैक्स इतना अधिक था कि जिन वर्षों में अच्छी फसल
होती थी तब भी किसान बुरे वक्त के लिए अनाज नहीं बचा पाते थे । राजस्व के तौर पर वसूला जाने वाले यह धन बड़े
पैमाने पर दरबारियों की विलासिता और सेना के रखरखाव में खर्च होता था। जनता की
प्रवृत्ति ‘कोऊ नृप होय हमैं का हानि’ से निर्धारित थी। यही कारण रहा कि देश की प्राकृतिक संपन्नता हमेशा
एक छोटे तबके के हितार्थ ही काम आई। अंग्रेजों ने आर्थिक शोषण को इतना चुस्त बना
दिया जो ब्रिटिश राज में कई अकालों की वजह बना। लेकिन अकाल इससे पहले भी पड़ते थे।
तुगलक के राज में पड़े अकाल से लेकर मुगलों के राज राज तक अकालों की एक लंबी
श्रृंखला चली आई है। सुशासन का युग माने जाने वाले मुगल शासन में क्या स्थिति थी
इसे औरंगजेब के शुरुआती सालों में दिल्ली में रहे फ्रेंच यात्री बर्नियर के शब्दों
से जाना जा सकता है—‘जो लोग भूमि पर अधिकार प्राप्त करते हैं,
चाहे वे सूबेदार हों चाहे इजारेदार चाहे तहसीलदार, उनका खेतिहरों पर बड़ा अधिकार
रहता है; और खेतिहरों तक ही बात नहीं है वरन अपने प्रांत
के गाँवों और कस्बों के व्यापारियों और कारीगरों पर भी उनको वैसा ही विलक्षण
अधिकार प्राप्त है। पर जिस ढंग से वे अपने अधिकार का व्यवहार करते हैं उससे अधिक
कोई कष्टदायक अत्याचार विचार में नहीं आ सकता। इसके अतिरिक्त ऐसा कोई व्यक्ति नहीं
है जिसके पास ये बेचारे अत्याचार के मारे किसान, कारीगर और व्यापारी जाकर अपना
दुखड़ा रोएँ। अर्थात न तो फ्रांस की तरह यहाँ कोई ‘ग्रेट लॉर्ड’ है न पार्लियामेंट और न अदालत के जज, जो
इन निर्दयी अत्याचारियों के अत्याचारों को रोकें।’
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** Kaw, Mushtaq A. (1996), Famines in Kashmir, 1586–1819: The policy of the Mughal and
Afghan rulers, 33 (1), Indian Economic Social History Review. विकिपीडिया से साभार
भाग्यवाद और दब्बू प्रवृत्ति के साथ गहरी उदासीनता जो कारण और परिणाम के विषय में सोचना नहीं चाहती .
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