भारंगम में फिल्म वालों के नाटक


बर्फ : सौरभ शुक्ला
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यह एक तीन पात्रों की अजीबोगरीब कहानी है। कश्मीर गया हुआ एक डॉक्टर किसी गफलत में अपने टैक्सी ड्राइवर के एक बीहड़ एकांत में स्थित गाँव में पहुँचा हुआ है। ड्राइवर का घर इस निर्जन गाँव का अकेला आबाद घर है, जहाँ वह अपनी बीवी के साथ रहता है। पार्श्व में एक विशाल सफेद कपड़े से बर्फीले पहाड़ का मंजर बनाया गया है और आगे की ओर ड्राइवर का दोमंजिला घर भी कहानी के माहौल के लिहाज से काफी ठीकठाक है। इन दोनों के बीच में कुछ मकानों की खिड़कियों में रोशनी दिखती है। सिनेमा की तर्ज के म्यूजिक और कमोबेश साफ-सुथरे चरित्रांकन में लगता है कुछ निकलकर आएगा। लेकिन ऐसा होने के बजाय कहानी एक साथ लोककथा, रहस्यकथा और नीतिकथा होने के घनचक्कर में फँस गई है। डॉक्टर की बीवी कुछ साइको-नुमा है, जो एक गुड्डे को अपना बच्चा समझती है, और रूहों से निर्देश लेती है। ड्राइवर अपनी मोहब्बत में दिन-रात बीवी की गलतफहमी बनाए रखने की जुगत किया करता है। अब डॉक्टर बीमार होने के कारण लगातार सो रहे बच्चे का इलाज करने के लिए एक तरह से यहाँ बंदी बना लिया गया है। इससे आगे कहानी में जो होता है वह इमोशन का जलजला है। डॉक्टर की समझ के सच और ड्राइवर की सटकी हुई बीवी के झूठ की लड़ाई में इमोशन के कंधे पर चढ़कर झूठ जीत जाता है। यह इमोशन सतही है, बनावटी है, झूठ पर आधारित है या जो भी है, पर दर्शक इसपर तालियाँ पीटते हैं। हो सकता है कुछ दर्शकों को कहानी से कुछ ज्यादा निकलने की उम्मीद रही हो, उन्हें बेशक मायूस होना पड़ा होगा। डॉक्टर बने विनय पाठक यूँ तो ठीक थे, पर कई बार उनके अभिनय में भेजा फ्राई वाली शैली का क्लीशे दिखता है। 

दोपहरी : पंकज कपूर 
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पंकज कपूर की वाचन-प्रस्तुति दोपहरी लखनऊ की उन गलियों की दास्तान है, जहाँ एक अकेली बुजुर्ग महिला अम्मा बी की हवेली गुजश्ता यादों के साथ मौजूद है। पंकज खुद की लिखी कहानी को मंच-सज्जा के ठियों पर पांडुलिपि में से पढ़ते रहे। अगले दिन निर्देशक से मिलिए कार्यक्रम में उन्होंने इस वाचन को थिएटर का एक प्रकार याकि शैली बताया। कोई अन्य क्षेत्र होता तो कमेटी गठित करके हकीकत का पता लगाया जा सकता था, पर कला के क्षेत्र में ऐसा कोई चलन न होने से यह ठीक-ठीक पता नहीं लगाया जा सकता कि पंकज कपूर ने मंच पर जो किया वह कला थी या नहीं। मुझे याद आया कि बरसों पहले जब हर्षद मेहता के प्रतिभूति घोटाले की अखबारों में बड़ी चर्चा थी, तो कवि नागार्जुन (वो हमारे मोहल्ले में ही रहते थे) कहते थे—हिंदी कविता में बड़ा भारी अनुभूति घोटाला चल रहा है कहीं उसकी खबर भी है क्या!.... नागार्जुन तो नहीं रहे, पर क्या है कोई दुस्साहसी जो कलाओं की दुनिया के शैली-घोटालों पर रोशनी डाले!

डियर फादर :  दिनकर जानी
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इस प्रस्तुति में परेश रावल थोड़ा खब्ती हो गए पिता और पिता के साथ हुई दुर्घटना की जाँच करने आए पुलिस अधिकारी की दोहरी भूमिका में थे। परेश रावल तो थे ही, बीच-बीच में उनकी राजनीतिक चुहुल भी थी, जिनमें कभी नरेन्द्र मोदी की तारीफ थी तो कभी सोनिया गाँधी पर निशाना। लेकिन बावजूद इन चंद जुमलों के यह पेशेवर रंगमंच की एक पर्याप्त चुस्त प्रस्तुति थी। परेश रावल दो बिल्कुल जुदा किरदारों में जितनी सहजता से खुद को रूपांतरित करते हैं वह बड़ी बात है। न सिर्फ इतना बल्कि अपनी खब्त में रहने वाले इंसान की कई बारीक छवियाँ भी उन्होंने अच्छे से उतारी हैं। कहानी में एक गति है और स्थितियाँ लगातार बदलते रहने से एक सतत उत्सुकता बनी रहती है। नाटक में फ्लैट के ड्राइंगरूम का सेट काफी भव्य और शानदार था, और परेश रावल के अलावा अन्य अभिनेता भी अच्छी लय में थे। लोकरुचि का खयाल रखकर तैयार की गईं इस तरह की प्रस्तुतियाँ महानगरों में रंगमंच को पेशेवर शक्ल देने में कारगर हो सकती हैं। प्रस्तुति में न इमोशन की अतिरंजना है, न कहानी को डाइल्यूट करने वाला मेलोड्रामा-- ये दोनों चीजें अपने यहाँ एक बीमारी की तरह हैं और जिंदगी की वास्तविक टेंशन और ड्रामे में झाँकने की मेहनत से बचने के कारण पनपती हैं। प्रस्तुति के निर्देशक दिनकर जानी गुजराती और हिंदी में रंगकर्म के अलावा टीवी सीरियल शक्तिमान का निर्देशन भी कर चुके हैं। निर्देशकीय में उन्होंने आज की सरपट दौड़ती दुनिया में पीढ़ियों के अंतराल की बाबत एक-दूसरे का ध्यानाकर्षण और प्यार हासिल करने के लिए कई तरह की जोड़-तोड़ को आवश्यक बताया हैं।   

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