सम्राट अशोक की विडंबना

दयाप्रकाश सिन्हा का नया नाटक सम्राट अशोक अपने प्रोटागोनिस्ट को एक नई छवि में पेश करता है. यह एक सत्तालोलुप अशोक है, जो अपने मंत्री की मदद से बड़े भाई का हक हथियाता है. वह कामुक है, कुरूप है और एक उपेक्षित संतान भी. उसके चेहरे पर उसे असुंदर बनाने वाला एक काला धब्बा है, जिसकी वजह से पिता बिंदुसार उसे पसंद नहीं करता. कालांतर में पिता की उपेक्षा अशोक की मनोग्रंथि बन चुकी है, जिससे उबरने के लिए उसने अपना नाम प्रियदर्शी रखा. पर उसकी ग्रंथियाँ इससे कम न हुईं और वह क्रमशः अपने ही अंतर्विरोधों में घिरा एक किरदार बनता गया. वह भिक्खु समुद्र को आग पर जलाकर मार देने का आदेश देता है, क्योंकि भिक्खु ने भाई के रक्त में सने उसके अशुद्ध हाथों से भिक्षा ग्रहण करने से इनकार कर दिया था. फिर अपने अपराधबोधों से बाहर आने के लिए वह बुद्ध की शरण में जाता है, पर यहाँ भी वह एक अतिवादी साबित होता है. सारी जनता और सभी धर्मों के प्रति समान रूप से अपने शासकीय कर्तव्यों को पूरा करने के बजाय उसकी निष्ठा सिर्फ एक ही धर्म के प्रति है. बौद्ध मठों के लिए राजकोष खुले हैं, पर जैन, आजीवक, वैदिक धर्मों आदि की उसे कोई परवाह नहीं. पिछले दिनों दयाप्रकाश सिन्हा के ही निर्देशन में श्रीराम सेंटर में हुई ढाई घंटे की प्रस्तुति में अशोक के किरदार के उतार-चढ़ावों को आकार देते अभिनेता जेपी सिंह के लिए यकीनन यह एक चुनौतीपूर्ण भूमिका रही होगी.

कुछ साल पहले दिल्ली के ही रंगकर्मी तोड़ित मित्रा ने भी अशोक पर देवानामपिया नाम से एक बांग्ला नाटक खेला था जिसमें उसकी प्रचलित छवि को उलट दिया गया था. आधुनिक इतिहास में करीब डेढ़ सौ साल पहले प्रोमिथ्यु अनबाउंड और मेघनादेर बध काव्यजैसी काव्यात्मक उदभावनाओं के जरिए प्राचीन साहित्य के खलनायकों को नायक बनाया गया था; अब ये- नायक को प्रतिनायक बनाने की- परंपरा विपरीत दिशा में शुरू हुई है. एक इतिहासबोधविहीन देश, जिसे दो सौ साल पहले अशोक नाम के राजा का नाम भी पता नहीं था, अब सारी संभावनाएँ इतिहास में ही तलाश लेना चाहता है. बहरहाल, लेखक-निर्देशक दयाप्रकाश सिन्हा के नाटक की एक समस्या यह भी है कि वह करने की तुलना में बोलता ज्यादा है. कई जगहों पर जहाँ एक्शन की स्पष्ट जरूरत दिखती है वहाँ भी कथोपकथन से काम चला लिया गया है. आखिर वह कैसा सम्राट है, जिसे उसके ही मंत्री ने बंदी बना लिया है, और वह कुछ करने की तुलना में कातर ढंग से बोले जा रहा है? इतना क्रूर और विध्वंसक शासक इतना निरीह कैसे है? अशोक की विडंबना की व्यूहबंदी के चौतरफा आयोजन में उसे बौद्ध भिक्षु हो गए अपने ही पुत्र महेंद्र के पैर छूने पड़ते हैं. दयाप्रकाश सिन्हा धर्म के इस पाखंड प्रकरण के जरिए अशोक के किरदार का मनोविश्लेषण करने की कोशिश करते हैं : भौतिक महत्त्वाकांक्षाओं की अति में फँसा व्यक्ति अपने कुकृत्यों की आत्मग्लानि में इसी तरह धर्म की शरण में जाता है, और उसके विगलित कर देने वाले कर्मकांड का शिकार होता है. नाटक की हैपनिंग इस लिहाज से किंचित औपन्यासिक टच लिए हुए है. कई मौकों पर स्थितियों का अनावश्यक विस्तार और लंबे संवाद विषय के फोकस को धूमिल करते हैं. इसकी एक वजह चीजों को स्याह और सफेद के निष्कर्षों में देखने की लेखकीय दृष्टि भी हो सकती है. नाटक के ज्यादातर किरदार नीति और अनीति के पारंपरिक पैटर्न से बँधे हुए मालूम देते हैं. इस लिहाज से भिक्षु सागरमते नाटक का एक रोचक किरदार है. वह शूद्र था और अपनी प्रेमिका को पाने के लिए बौद्ध बन गया, और फिर अशोक की दूसरी पत्नी की साजिश में भी शरीक हो जाता है. रोहित त्रिपाठी ने अपने अभिनय में इस किरदार को एक अच्छी कॉमिक रंगत दी है, जिसमें उसके हावभाव में एक दिलचस्प मौकापरस्ती टपकती रहती है.

प्रस्तुति में तरह-तरह के पात्र कई तरह के कास्ट्यूम में लगातार एक भव्य दृश्य के रूप में प्रस्तुत होते हैं. लाइट डिजाइनर आरके ढींगरा, जिन्हें लाइट एंड साउंड शोज का अच्छा अभ्यास है, इस भव्यता में अपनी बहुरंगी रोशनियों से एक अतिरिक्त चमत्कार पैदा करते हैं, जो कई मौकों पर संजीदा स्थितियों में एक गैरसंजीदा शै के रूप में भी दखल देती है. अशोक की भूमिका में जेपी सिंह अलग-अलग मौकों पर लगभग विपरीत आचरण करते चरित्र का अच्छा निबाह करते हैं. एक दृश्य, जिसमें आत्मधिक्कार से घिरे अशोक को अपनी पत्नी देवी की छवि दिखाई देती है, में अच्छी निर्देशकीय कल्पनाशीलता सहज ही दिखती है. डालचंद द्वारा तैयार कास्ट्यूम भी प्रस्तुति की एक विशेषता हैं. लगभग हर पात्र अपने पहनावे में मंच पर काफी सुघड़ दिखाई दे रहा था.

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