भारतीय रंगमंच की यह चौथाई सदी
कला-संस्कृति के क्षेत्र में बदलाव अक्सर नामालूम तरह से घटित होते हैं। वे सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक बदलावों की अनुगूँज के रूप में सामने आते हैं। ये परिवर्तन हमेशा यूरोपीय रेनेसाँ की तरह नहीं हो सकते, जब नए यथार्थबोध से लैस कलादृष्टियाँ सर्वांगीण बदलाव की युगांतरकारी प्रक्रिया में बराबर के दर्जे से शामिल थीं। हमारे यहाँ भी एक रेनेसाँ 19वीं सदी के बंगाल और महाराष्ट्र में घटित हुआ था, जब समाज की हीन नागरिक समझी जाने वाली तवायफों को पहली बार स्टेज कलाकार की इज्जत मिली। बहरहाल, इस परिप्रेक्ष्य में अपना चौथाई हिस्सा गुजार चुकी इस सदी के रंगमंच में आए बदलावों को समझना इतना आसान नहीं है, जब टेक्नालाजी और वैश्विक पूँजी ने एक छोटे से वक्फे में जीवन की मूलभूत मान्यताओं की नींव को ही हिला दिया है। फर्क कर पाना मुश्किल है कि रंगमंच अपनी केंचुल बदल रहा है या अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है। इस फर्क को समझ पाना यूँ तो एक बड़ी रिसर्च का विषय है, पर यहाँ संक्षेप में उन परिघटनाओं, ईवेंट्स और प्रभावों को पहचानने की कोशिश की गई है जिनसे इन परिवर्तनों और परिवर्तनों की प्रवृत्तियों को चिह्नित किया जा सके।...