फेलिनी के किरदार और बकरी


भारत रंग महोत्सव में नवयथार्थवादी दौर के इतालवी फिल्मकार फेदेरिको फेलिनी की फिल्मों के किरदारों और स्थितियों से प्रेरित प्रस्तुति फेलिनीस ड्रीम का प्रदर्शन किया गया। विश्व सिनेमा में फेलिनी एक बिल्कुल अलग शैली और विषयों की रेंज के लिए जाने जाते हैं। फेलिनी का सिनेमा अपने में ही एक पूरा संसार है। इन फिल्मों के दर्शक रहे दर्शकों के लिए निश्चित ही यह प्रस्तुति ज्यादा रुचिकर रही होगी, लेकिन अनभिज्ञ दर्शकों के लिए भी उसमें काफी कुछ था। यह प्रस्तुति क्या है, निर्देशक पिनो दि बुदुओ का यह बयान इसे ज्यादा ठीक से बता पाता है- यह प्रस्तुति अभिनेता की भूमिका और स्टेज पर उसकी उपस्थिति को आधुनिकतम डिजिटल और प्रकाश तकनीक के साथ संयुक्त करती है। मंच के बीचोबीच लटकते धागों से बना एक विशाल परदा है। इसी पर बहुरंगी रोशनियों के आकार विशाल वीडियो प्रोजेक्शन की मदद से फेलिनी की फिल्मों की आभासी भावयोजना बनाते हैं। थोड़ी-थोड़ी देर में अलग-अलग पात्र तरह-तरह के परिधानों में आते हैं। कभी कोई पात्र चेहरे पर रंग पोते है, कभी कोई मुखौटा लगाए हैं। परदे पर कभी इमारतें, कभी विशाल प्रेक्षागृह, कभी झूमरों वाली छत वगैरह उभरते हैं। जाहिर है मंच पर पेश हो रहे अभिनय और इन छायाओं का ताल्लुक उनकी फिल्मों रोम- ओपन सिटीकासानोवा’,  आमार कोर्द और एट एंड हाफ वगैरह से है। इस तरह से दर्शक इटली की उन सर्वाधिक शानदार जगहों, जिन्हें फेलिनी ने अपनी फिल्मों के लिए चुना- रोम, वेनिस, रेमिनी, और सर्कस और समुद्र- वगैरह की सैर करते हैं। अभिनेताओं के साथ दर्शक विभिन्न कालखंडों  से होगर गुजरते हैं, वे इतालवी नवयथार्थवाद के जादुई माहौल की तलाश करते हैं। और ऐसा करते हुए वे फर्क नहीं कर पाते कि क्या यथार्थ है और क्या अतियथार्थ, और क्या रंगमंच है और क्या सिनेमा।
प्रस्तुति इस अर्थ में पर्याप्त कल्पनाशील ढंग से दिलचस्प है कि फेलिनी के यहां की नाटकीयता यहां एक मुकम्मल रंगमंचीय मुहावरे में रूपांतरित हो पाई है। मानो उन फिल्मों को निचोड़कर उनमें से रंगमंच निकाल लिया गया हो। इटली के टिएट्रो पोटलाक ग्रुप की इस प्रस्तुति के लेखक स्टीफानो गेरासी हैं।
इससे पहले युवा रंगकर्मी भूपेश जोशी ने श्रीराम सेंटर एक्टिंग कोर्स के छात्रों के लिए सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के नाटक बकरी का निर्देशन किया। उन्होंने अपेक्षाकृत नए अभिनेताओं की ऊर्जा को अच्छे मूड्स में इस्तेमाल किया है। उन्होंने साबित किया कि एक सीधे-सरल कथानक में दृश्यात्मकता के कितने कोण हो सकते हैं। बकरी हमारे देश के प्रहसन जैसे हो गए यथार्थ का नाटक है। नेता एक गरीब औरत की बकरी को गांधी जी की बकरी की पड़पोती बताकर भेड़ जैसी जनता की आस्था से कमाई करता है। फिर उसी को हलाल करके सारे दावत उड़ाते हैं। मंच पर हट्टे-कट्टे कद के बाहुबली नेता दुर्जन सिंह की बजाहिर खलनायकी देखते ही बनती है। एक आंख को कुछ चढ़ाए हुए वह किसी कार्टून फिल्म के किरदार की मिमिक्री करता हुआ मालूम देता है। भूपेश जोशी ने अपने कलाकारों की सहज प्रतिभाओं के मुताबिक उन्हें भूमिकाएं दी हैं। जैसे कि नटी बनी दोनों लड़कियों के नाच में उनके बदन की लचक क्या खूब एक दृश्य बनती है। इस नाटक की और भी बहुत सी प्रस्तुतियां देखी हैंपर यह शायद उनमें सर्वश्रेष्ठ कही जा सकती है। स्थितियां इसमें उभर कर आती हैं। आम लोगों की वेशभूषा और चरित्रांकन पर ठीक से काम किया गया होने की वजह से उनके कुतर्क और भेड़ियाधसान का एक यथार्थवादी दृश्य बनता है। प्रस्तुति का संगीत पक्ष भी काफी बेहतर था।

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