घुप्प अंधेरा और श्वेत छवियां

उत्सुशी  
पिछले महीने भारत रंग महोत्सव में हुई जापानी प्रस्तुति उत्सुशी कई तरह की मौन देहगतियों का एक दृश्यात्मक संयोजन है। पूरी प्रस्तुति में सिर्फ एक ही रंग दिखाई देता है—सफेद। लाइट्स ऑफ होते ही मंच के स्याह घुप्प अंधेरे में तीन झक्क सफेद वृत्त नुमाया हुए हैं। हर वृत्त में नख से शिख तक चूने की प्रतिमा जैसी एक आकृति है। धीरे-धीरे संगीत-स्वरों के समांतर उनमें हरकत पैदा होती है। वे देर तक एक ही तरह से हाथों को हवा में लहरा रहे हैं, जैसे कुम्हार चाक पर आकार गढ़ता है। खास तरह से बनाए गए उनके घाघरे हवा भरने से फूल गए हैं। फिर अगले दृश्य में नई नमूदार हुई आकृतियों के चेहरे गायब हैं। उन्हें प्लास्टर ऑफ पेरिस के जरिए चट्टानी बना दिया गया है, जिसे देखना एक अजीब-सा अहसास देता है। उनके कपड़ों पर बहुत से जाले जैसे बने हुए हैं। मानो किसी समाधि से निकलकर आए हों। अगले दृश्य में मंच के दो छोरों से दो पात्र प्रकट होते हैं। उनकी धीमी मुद्राएँ कुछ ऐसी हैं मानो वे गतिशील जीव न होकर मूर्तिशिल्प हों। इतनी सफेदी में उनका मुँह खोलना एक अजीब सी छवि बनाता है। एक मौके पर चार आकृतियाँ इस तरह से खड़ी हैं जैसे मनुष्य के जीववैज्ञानिक विकास को दर्शा रही हों। प्रस्तुति की एक विशेषता मंच पर मौजूद पात्रों की भंगिमाओं की एकरूपता है। हालांकि बाद की स्थितियों में इस एकरूपता को बाकायदे खंडित करके भी कलात्मकता निकाली गई है। विकसित देशों में इसी तरह कला की नई-नई विधियां निरंतर खोजी जाती रहती हैं। यह पिछड़े समाजों  के आक्रोश, संघर्ष और द्वंद्व जैसे विषयों से आगे की दुनिया है। टोक्यो के संकाई जुकु ग्रुप की इस प्रस्तुति के निर्देशक उशियो अमागात्सु हैं।
अलका
इससे पहले रोज कमानी प्रेक्षागृह में उमा झुनझुनवाला निर्देशित प्रस्तुति अलका का मंचन हुआ। मनोज मित्रा का यह मूल बांग्ला नाटक घर-परिवार की कई तरह की समस्याओं से जूझती एक स्त्री की कहानी है, जिसका पति एक दुर्घटना में स्नायविक रूप से विकलांग होकर एक ओर कुर्सी पर बैठा रहता है। गोद ली बेटी दहेज प्रताड़ना की शिकार है, गोद लिया बेटा रैगिंग का। इनके अलावा भी कई किरदार हैं, जिनमें दो पड़ोसिनें काफी दिलचस्प हैं। एक खांटी मोहल्लाई प्रपंची है और दूसरी शराबनोशी करने वाली उन्मुक्त स्वभाव की तलाकशुदा। नाटक में पुराने मध्यवर्गीय जीवन के बहुत सारे खटराग अपनी देशज रंगतों में शामिल हैं। लेकिन कुछ स्थितियों को अनावश्यक रूप से लंबा और जबरिया ढंग से मेलोड्रामेटिक बनाने की कोशिशें बीच-बीच में अखरने वाली भी हैं। क्रिकेट पर अल्का के भाई-भतीजे की हल्की-फुल्की चर्चा बेवजह खींची गई है। इसी तरह खुद अलका भी अक्सर वास्तविक परेशानियों से कहीं ज्यादा खीझी हुई नजर आती है। और बार-बार के दोहराव में उसकी यह खीझ और पूरी स्थिति ही बनावटी नजर आने लगती है।
इसमें कोई शक नहीं कि नाटक में लगातार पेश आने वाली अलग-अलग स्थितियां और कई तरह के किरदार दर्शकों को काफी ठोस ढंग से बांधे रखने वाले हैं। खास बात यह कि इतने यथार्थवादी नाटक के सेट डिजाइन का आधा हिस्सा किसी संस्थापन के जैसा प्रयोगवादी है। पीछे की ओर जहाँ घर का दरवाजा खुलता है, वहां दीवार के नाम पर तिकोने वेधशाला जैसे कट्स हैं। इनके आड़े तिरछेपन में किसी कलाकृति जैसा आकर्षण है। लिटिल थेस्पियन ग्रुप की यह प्रस्तुति अगर आलेख की यथार्थवादी नाटकीयता को थोड़ा अधिक ठोस तरह से बरत पाती तो कहीं और बेहतर होती।     
अग्निपथ
बुधवार को हुई बी. जयश्री निर्देशित प्रस्तुति अग्निपथ एक आकर्षक दृश्य-श्रव्य संयोजन थी। नाटक की थीम महाभारत के कुछ अहम स्त्री-किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती है। अंबा, गांधारी, कुंती, माद्री, द्रौपदी आदि पात्रों के अंतर को एक नई रोशनी में देखा गया है।  पुरुष समाज के अहं के बरक्स इसमें स्त्री-संवेदना को प्रकट किया गया है। निर्देशिका ने इसमें उत्तरी कर्नाटक की लोक नाट्य शैली गोंदालिगा का इस्तेमाल किया है। प्रस्तुति में इस मुख्यतः गायन-वाचन शैली में यक्षगान की भंगिमाओं को भी शामिल किया गया है। मंच की भव्यता के कई आयाम हैं। वेशभूषा, संगीत, पात्रों की ऊर्जा और अभिनय। भाषा समझ में न आने पर भी पात्रों के आक्रोश और दुख को इसमें समझा जा सकता है। मैसूर के नटना थिएटर ग्रुप की इस कन्नड़ प्रस्तुति की निर्देशिका बी. जयश्री अपनी रंगमंचीय उपलब्धियों के लिए इन दिनों राज्यसभा की नामित सदस्य हैं।

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