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सम्राट अशोक की विडंबना

दयाप्रकाश सिन्हा का नया नाटक  ‘ सम्राट अशोक ’  अपने प्रोटागोनिस्ट को एक नई छवि में पेश करता है. यह एक सत्तालोलुप अशोक है, जो अपने मंत्री की मदद से बड़े भाई का हक हथियाता है. वह कामुक है, कुरूप है और एक उपेक्षित संतान भी. उसके चेहरे पर उसे असुंदर बनाने वाला एक काला धब्बा है, जिसकी वजह से पिता बिंदुसार उसे पसंद नहीं करता. कालांतर में पिता की उपेक्षा अशोक की मनोग्रंथि बन चुकी है, जिससे उबरने के लिए उसने अपना नाम प्रियदर्शी रखा. पर उसकी ग्रंथियाँ इससे कम न हुईं और वह क्रमशः अपने ही अंतर्विरोधों में घिरा एक किरदार बनता गया. वह भिक्खु समुद्र को आग पर जलाकर मार देने का आदेश देता है, क्योंकि भिक्खु ने भाई के रक्त में सने उसके अशुद्ध हाथों से भिक्षा ग्रहण करने से इनकार कर दिया था. फिर अपने अपराधबोधों से बाहर आने के लिए वह बुद्ध की शरण में जाता है, पर यहाँ भी वह एक अतिवादी साबित होता है. सारी जनता और सभी धर्मों के प्रति समान रूप से अपने शासकीय कर्तव्यों को पूरा करने के बजाय उसकी निष्ठा सिर्फ एक ही धर्म के प्रति है. बौद्ध मठों के लिए राजकोष खुले हैं, पर जैन, आजीवक, वैदिक धर्मों आदि की उसे कोई प

भाव-आडंबर की लयकारी

पिछले महीने हुए  भारत रंग महोत्सव की शुरुआत इसी प्रस्तुति से हुई थी। कावलम नारायण पणिक्कर निर्देशित प्रस्तुति  ‘ छाया शाकुंतल ’ ।  पणिक्कर संस्कृत की उस शास्त्रीयता के सबसे बड़े रंगकार माने जाते है ,  जो कई तरह की आलंकारिकताओं का एक संयोजन होती है।  उदयन वाजपेयी के रूपांतरण पर आधारित इस प्रस्तुति में छोटी-छोटी स्थितियां देर-देर तक मंथर फैलाव में चलती रहती हैं। इस  ‘ चाक्षुष यज्ञ ’  में हाथों का लहराया जाना है ;  नेत्रों की चतुर-चपल-कारुणिक भंगिमाएँ हैं ;  सखियों की मधुर ठिठोली और नायिका की सलज्ज मुद्राएं हैं ;   रौद्र रस वाले दुर्वासा और विशाल दाढ़ी वाले  कण्व ऋषि हैं।   शास्त्रीय का अर्थ है—रस सिद्धांत के रसों का संयोजन। मनुष्य-स्वभावों का कोई ‘ कन्फ्लिक्ट ’  या द्वंद्व यहां नहीं है। कथावस्तु का एकमात्र द्वंद्व या पंगा है- नायक का अपनी प्रेमिका को भूल जाना। यह भूल जाना भी यथार्थ की किसी वजह से नहीं बल्कि दुर्वासा के शाप के कारण है। लेकिन बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। बात यह है कि कथावस्तु का महत्त्व ही यहां निमित्त मात्र के तौर पर है। असली चीज है इस निमित्त का बनाव श्रृंगार। कथ्य के दु

घुप्प अंधेरा और श्वेत छवियां

उत्सुशी    पिछले महीने भारत रंग महोत्सव में हुई जापानी प्रस्तुति  ‘ उत्सुशी ’   कई तरह की मौन देहगतियों का एक दृश्यात्मक संयोजन है। पूरी प्रस्तुति में सिर्फ एक ही रंग दिखाई देता है—सफेद। लाइट्स ऑफ होते ही मंच के स्याह घुप्प अंधेरे में तीन झक्क सफेद वृत्त नुमाया हुए हैं। हर वृत्त में नख से शिख तक चूने की प्रतिमा जैसी एक आकृति है। धीरे-धीरे संगीत-स्वरों के समांतर उनमें हरकत पैदा होती है। वे देर तक एक ही तरह से हाथों को हवा में लहरा रहे हैं, जैसे कुम्हार चाक पर आकार गढ़ता है। खास तरह से बनाए गए उनके घाघरे हवा भरने से फूल गए हैं। फिर अगले दृश्य में नई नमूदार हुई आकृतियों के चेहरे गायब हैं। उन्हें प्लास्टर ऑफ पेरिस के जरिए चट्टानी बना दिया गया है, जिसे देखना एक अजीब-सा अहसास देता है। उनके कपड़ों पर बहुत से जाले जैसे बने हुए हैं। मानो किसी समाधि से निकलकर आए हों। अगले दृश्य में मंच के दो छोरों से दो पात्र प्रकट होते हैं। उनकी धीमी मुद्राएँ कुछ ऐसी हैं मानो वे गतिशील जीव न होकर मूर्तिशिल्प हों। इतनी सफेदी में उनका मुँह खोलना एक अजीब सी छवि बनाता है। एक मौके पर चार आकृतियाँ इस तरह से खड

अंजी का मुहावरा

विजय तेंदुलकर के नाटक   ‘ अंजी ’   का मुहावरा खासा दिलचस्प है। इसमें स्वांग या प्रहसन के तौर-तरीकों को एक युक्ति के रूप में इस्तेमाल किया गया है। तेंदुलकर इसमें बैकस्टेज के सारे तामझाम को मंच के औपचारिक स्पेस में ले आए हैं। नाटक का सूत्रधार उसकी पूरी कथावस्तु का संचालक है। वह मंच पर एक ओर को हारमोनियम वाले के बराबर में तबले पर बैठा है। ट्रेन के दृश्य में वह भिखारी, चायवाले, हिजड़े आदि के किरदार निभा कर पुनः अपनी जगह आ बैठता है और यदा-कदा नाटक की मुख्य पात्र अंजी दीदी से उसके हालचाल भी पूछ लेता है। दरवाजे पर दी गई किसी दस्तक को वह तबले की थाप के जरिए मुकम्मल बनाता है। नायिका कोई पता ढूंढ़ रही है। सूत्रधार जल्दी से मंच के एक कोने में रखी दरवाजे वाली चौखट लाकर बीच में रख देता है और उसके दूसरी ओर जाकर घर में रहने वाला दुबेजी बन जाता है। नायिका की खटखट पर उससे दरवाजा नहीं खुल रहा। तब वह नायिका को थोड़ा रुकने को कहता है क्योंकि दरवाजा उसने उल्टा रख दिया है। फिर दरवाजे को सीधा करने पर दुबेजी के रूप में प्रकट होकर   बताता है कि तिवारी जी का मकान थोड़ा आगे है। और जल्दी से दरवाजा थोड़ा आगे वाल

कच्चेपन के भावबोध की प्रस्तुति

ताऊस चमन का अर्थ है मोर का बगीचा। रंगकर्मी अतुल तिवारी की प्रस्तुति   ‘ ताऊस चमन की मैना ’   उर्दू कथाकार नैयर मसूद की एक कहानी पर आधारित है ,  जिसमें नानी-दादी की कहानियों की तरह छोटी-छोटी बातों के बड़े-बड़े विस्तार और वैसी ही भोली सरलता है। इन्हीं सब के जरिए एक छोटी सी कथावस्तु करीब सवा दो घंटे के विस्तार में पसरी हुई है। प्रस्तुति में तीन कैदियों में से एक कालेखां अपनी कहानी सुना रहा है। उसकी सबका खयाल रखने वाली सुखन बीवी अचानक एक रोज दौरा पड़कर गिर जाने से मर जाती है। बेहाल यहां-वहां भटकते कालेखां को राजा के बनवाए ताऊस चमन में नौकरी मिल जाती है। उसकी बेटी को पहाड़ी मैना चाहिए। एक रोज वह वहां से पहाड़ी मैना को चोरी से घर ले जाता है। यही चोरी बाद में उसके जी का जंजाल बन जाती है। नाटक में थोड़ा सा इतिहास भी है। कहानी का राजा वाजिद अली शाह है और ताऊस चमन लखनऊ के कैसर बाग में स्थित बताया गया है। प्रस्तुति में इतिहास के साथ थोड़ी ज्यादती भी है ,  क्योंकि उसमें ब्रिटिश रेजीडेंट को जोकर और राजा को न्याय और दयालुता की प्रतिमूर्ति की तरह दिखाया गया है। फिर भी प्रस्तुति ऐसी चित्रकथा नुमा है