अनर्थ के जंगल में

रंगकर्मी हनु यादव एमेच्योर साधनों में गुरुगंभीर विषयों को मंच पर पेश करते रहे हैं। बीते दिनों उन्होंने वेटिंग फ़ॉर गोदो का मंचन किया। उनके काम और रंग-ढंग में एक बोहेमियन आत्मविश्वास बहुत साफ झलकता है। शायद इसी की बदौलत वे अपनी निपुणता को कई तरह की लापरवाहियों में गर्क किया करते हैं। वेटिंग फॉर गोदो की इस प्रस्तुति में जाने क्यों उन्होंने बैकड्राप के परदे को पूरी तरह हटवा दिया था। इससे ग्रीनरूम की तरफ खुलने वाले दरवाजे से आ रही रोशनियां और बैकस्टेज का नजारा गँवारू ढंग से मंच पर घुसपैठ किए हुए था। इस खीझ पैदा करने वाले मंजर में जब नाटक शुरू होता है तो गोगो या डीडी में से कोई एक आवश्यकता से कहीं बहुत देर तक अपना जूता उतारा करता है। इस तरह कुछ न किए जा सकने की व्यर्थता को दर्शाने वाली स्थिति एक चालू किस्म की नाटकीय युक्ति में तब्दील हुई रहती है। प्रस्तुति देखते हुए लगता नहीं कि उसके अभिनेताओं ने नाटक की मंशा को आत्मसात करने की कोई चेष्टा की है- इस वजह से उनके द्वारा बोले जा रहे संवाद स्थितियों के मंतव्य को सामने लाने के बजाय अक्सर प्रलाप जैसी शक्ल में नाटक की एब्सर्डिटी को एब्स्ट्रैक्ट में तब्दील करते मालूम देते हैं। यानी मंच पर निरंतर कुछ न कुछ किया तो जा रहा हैपर उससे निकलकर कुछ नहीं आ रहा।
यूं गोदो कुछ न निकलकर आने का ही नाटक है। उसके दोनों पात्र तरह-तरह से अपना समय काट रहे हैं। इसके लिए वे सोनेबहस करनेगाना गाने या आत्महत्या के बारे में सोचने जैसे कई काम करते हैं। इस तरह कहीं कुछ न हो रहे होने के व्यर्थताबोध के साथ मंच पर उपस्थित उन दोनों के संवाद पहले ही पर्याप्त बेतुके से लगते हैं। इस बेतुकेपन की सही से सम्हाल न करने पर उसका गड्डमड्ड होना लाजिम है। गोगो अपने हैट में झांकता हैडीडी अपने जूते में- पर कहीं कुछ नहीं है। फिर वे पोजो और उसके नौकर से मुलाकात के जरिए एक सामाजिकता में प्रवेश करते हैं। वह भी उतनी ही ऊटपटांग है। नौकर लकी हर समय बहुत सा सामान बैल की तरह अपने कंधे पर लटकाए खड़ा हैऔर हद दर्जे के गुलाम की तरह अपने मालिक के तमाम नाजायज आदेशों को पूरी तत्परता से पूरा कर रहा है। यहां तक कि थकान में उसके स्नायु जवाब देने लगते हैंतब भी। फिर वह इन बीच राह में मिले मेहमानों को खुश करने के लिए नाचता और सोचता भी है।
वेटिंग फॉर गोदो में एक तात्विक आशय बगैर गूढ़ हुए दिलचस्प नाटकीय ढंग से प्रस्तुत होता है। इधर हिंदी थिएटर में एब्सर्ड शैली को आशयहीनता में डिजाइन के (प्रायः) ऊटपटांग प्रयोग करने की तरकीब मान लिया गया है। जैसे कि सत्तर के दशक में यह बौद्धिकता के प्रदर्शन का एक जुमला होता था, जिसका बीएम शाह ने तब अपने नाटक त्रिशंकु में उसी जुमलेबाजी के ढंग से मजाक उड़ाया था। लेकिन हनु यादव की प्रस्तुति की समस्या ऐसी कुछ नहीं हैं। उसकी समस्या असामंजस्य से पैदा हुई है। उनके पात्र चरित्रों की स्टाइल में जाने के बजाय उन्हें कुछ अधिक नाटकीय बनाने की चेष्टा करते दिखते हैं। इस क्रम में संवादों की परस्परता में एक आवश्यक सामंजस्य या तादात्म्य जिस अर्थ का निर्माण करता है वह प्रस्तुति में अपनी धुरी से खिसका हुआ है। उधर निर्देशकीय में वेटिंग फॉर गोदो को हमारे समाज की आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक स्थिति की बड़ी खूबसूरती से उजागर करने वाला बताया गया है। साथ ही निर्देशक ने यह भी कहा है कि प्रयोग के नाम पर दर्शकों के सामने कुछ भी ऊटपटांग करना उचित नहीं है। कहा जा सकता है कि अर्थहीनता एक जंगल है, जहां अनर्थ के जंगल की तुलना में कहीं ज्यादा रोशनी आती है। यह एक अभिनय कार्यशाला प्रस्तुति थी, जिसमें पात्रों की ऊर्जा यकीनन काफी दुरुस्त थी। आनंद पांडेय और अतुल ध्यानी जैसे युवा अभिनेताओं के साथ ही पोजो की भूमिका में कैलाश चंद जैसे कहीं प्रौढ़ वय के अभिनेता में भी इस ऊर्जा को देखा जा सकता था। लकी मंच पर दो थे। मुख्य लकी की भूमिका में राहुल सागर ठीक थे, हालाँकि उनका नाच उतना ऊटपटांग नहीं था जितना उसे होना चाहिए था. 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भीष्म साहनी के नाटक

न्यायप्रियता जहाँ ले जाती है

आनंद रघुनंदन