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जन्नत में जम्हूरियत का घपला

अरसे बाद मुश्ताक काक ने दिल्ली में कोई प्रस्तुति की है। श्रीराम सेंटर रंगमंडल के लिए व्यंग्यकार शंकर पुणतांबेकर की रचना पर आधारित उनकी प्रस्तुति  ‘ डेमोक्रेसी इन हेवन ’ अच्छी-खासी रोचक है। एक नेता अपनी एक असिस्टेंट और चमचे के साथ एक रोड एक्सीडेंट में मारा जाता है। तीनों यमराज के दरबार में और फिर वहां कुछ घपला करके स्वर्ग पहुंच जाते हैं। इस तरह स्वर्ग के सात्विक माहौल में इन तीन घपलेबाजों की उपस्थिति और भावभंगिमाओं का सिलसिला देखने लायक है। अपनी फितरत के मारे तीनों अली, बली, कली में से कली अदा फेंककर कहती है-  ‘ फिक्र मत करो सर, मैं चित्रगुप्त को ऐसा कांटा लगाऊंगी कि... ’  उधर ऐंठा हुआ नेता अपनी आदत के अनुसार आरोप लगा रहा है कि यमराज कायर है, उसने पीछे से मारा। तीसरा चमचा बली है, जो नेता द्वारा अपना कान उमेठे जाते ही हांक लगाने लगता है- ओए चाबी बनवा लो, ताले बनवा लो। हिंदी-व्यंग में पारलौकिक दुनिया में जा पहुंचने की फंतासी का इस्तेमाल खूब हुआ है। थिएटर को स्थिति-वैचित्र्य का यह कंट्रास्ट खूब रास भी आता है। हरिशंकर परसाई के  ‘ इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर ’  से लेकर रेवतीशरण शर्मा की 

अनर्थ के जंगल में

रंगकर्मी हनु यादव एमेच्योर साधनों में गुरुगंभीर विषयों को मंच पर पेश करते रहे हैं। बीते दिनों उन्होंने   ‘ वेटिंग फ़ॉर गोदो ’   का मंचन किया। उनके काम और रंग-ढंग में एक बोहेमियन आत्मविश्वास बहुत साफ झलकता है। शायद इसी की बदौलत वे अपनी निपुणता को कई तरह की लापरवाहियों में गर्क किया करते हैं।   ‘ वेटिंग फॉर गोदो ’   की इस प्रस्तुति में जाने क्यों उन्होंने बैकड्राप के परदे को पूरी तरह हटवा दिया था। इससे ग्रीनरूम की तरफ खुलने वाले दरवाजे से आ रही रोशनियां और बैकस्टेज का नजारा गँवारू ढंग से मंच पर घुसपैठ किए हुए था। इस खीझ पैदा करने वाले मंजर में जब नाटक शुरू होता है तो गोगो या डीडी में से कोई एक आवश्यकता से कहीं बहुत देर तक अपना जूता उतारा करता है। इस तरह   ‘ कुछ न किए जा सकने ’   की व्यर्थता को दर्शाने वाली स्थिति एक चालू किस्म की नाटकीय युक्ति में तब्दील हुई रहती है। प्रस्तुति देखते हुए लगता नहीं कि उसके अभिनेताओं ने नाटक की मंशा को आत्मसात करने की कोई चेष्टा की है- इस वजह से उनके द्वारा बोले जा रहे संवाद स्थितियों के मंतव्य को सामने लाने के बजाय अक्सर प्रलाप जैसी शक्ल में नाटक की एब्स